किताबें भावनाओं और विचारों को संप्रेषित करने के लिए औजार के तौर पर इस्तमाल की जाती रही हैं। किताबें खुद में विचारों और वादों को समोकर जीती हैं। क्योंकि किताबों की अपनी कोई पहचान नहीं होती। इसलिए उसकी पहचान लेखक के विचार-संसार से ही हो पाती है। विचार और वादों को संप्रेषित करने में किताबें महज माध्यम का काम करती हैं। लेखक किताब का इस्तमाल अपनी साध्य को हासिल करने के लिए करता है। वह किताब गद्य-पद्य की किसी भी विधा की हो सकती है। वैचारिक संवाद और विवाद भी पैदा करती है किताबें। लेकिन इन तमाम विवादों से किताबें निरपेक्ष होती हैं। क्योंकि किताबें स्वयं कुछ नहीं करातीं बल्कि लेखक के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली होती है। पिछले दिनों दीनानाथ बत्रा के बयान पर विवाद उठा। दीनानाथ बत्रा ने अपनी किताब में जिस तरह से विवेकानंद, गांधी, रामकृष्ण को कोट किया है वे कोट एकबारगी स्वयं के लिखे लगती हैं। क्योंकि कहीं भी स्पष्ट और प्रमाणिक संदर्भ नहीं दिए गए हैं ताकि उसकी जांच की जा सके। किताबें, पाठ्यपुस्तक और पाठ्यक्रम दरअसल लंबे समय से राजनीतिक धड़ों की गलियारों में चहलकदमी मचाती रही हैं। जिस भी वैचारिक प्रतिबद्धता वाली सरकार सत्ता में आई है उसने किताब और पाठ्यक्रम एवं पाठ्यचर्या के साथ अपनी मनमानी की है। स्कूली पाठ्यपुस्तकों में धर्म, सूर्यनमस्कार, आदि खास वैचारिक कथ्यों को बच्चों के बस्तों तक पहंुचाया गया है। पाठ्यपुस्तकों में लालू प्रसाद, मायावती, वसुंधरा राजे सिंधिया, नरेंद्र मोदी आदि की जीवनियों को शामिल की गई हैं। प्रेमचंद की कहानी को हाशिए पर डाल कर ज्यों मंेहंदी के रंग को स्थान दिया गया था। शिक्षा और शिक्षण से जुड़े व्यक्तियों के लिए इस तरह के बदलाव याद होंगे। यह भी याद होगा कि किस तरह से 1977, 1986, 2000 और 2005 में पाठ्यपुस्तकें तैयार की गईं। जब जब जिस जिस विचारधारा और राजनीतिक दल सत्ता में आए हैं उन्होंने मानव संसाधन मंत्रालय का इस्तमाल अपने वैचारिक हित साधने में किया है। ऐसे में को बड़ कहत छोट अपराधु कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Friday, December 5, 2014
निर्दोष नहीं होती किताबें
किताबें भावनाओं और विचारों को संप्रेषित करने के लिए औजार के तौर पर इस्तमाल की जाती रही हैं। किताबें खुद में विचारों और वादों को समोकर जीती हैं। क्योंकि किताबों की अपनी कोई पहचान नहीं होती। इसलिए उसकी पहचान लेखक के विचार-संसार से ही हो पाती है। विचार और वादों को संप्रेषित करने में किताबें महज माध्यम का काम करती हैं। लेखक किताब का इस्तमाल अपनी साध्य को हासिल करने के लिए करता है। वह किताब गद्य-पद्य की किसी भी विधा की हो सकती है। वैचारिक संवाद और विवाद भी पैदा करती है किताबें। लेकिन इन तमाम विवादों से किताबें निरपेक्ष होती हैं। क्योंकि किताबें स्वयं कुछ नहीं करातीं बल्कि लेखक के इशारे पर नाचने वाली कठपुतली होती है। पिछले दिनों दीनानाथ बत्रा के बयान पर विवाद उठा। दीनानाथ बत्रा ने अपनी किताब में जिस तरह से विवेकानंद, गांधी, रामकृष्ण को कोट किया है वे कोट एकबारगी स्वयं के लिखे लगती हैं। क्योंकि कहीं भी स्पष्ट और प्रमाणिक संदर्भ नहीं दिए गए हैं ताकि उसकी जांच की जा सके। किताबें, पाठ्यपुस्तक और पाठ्यक्रम दरअसल लंबे समय से राजनीतिक धड़ों की गलियारों में चहलकदमी मचाती रही हैं। जिस भी वैचारिक प्रतिबद्धता वाली सरकार सत्ता में आई है उसने किताब और पाठ्यक्रम एवं पाठ्यचर्या के साथ अपनी मनमानी की है। स्कूली पाठ्यपुस्तकों में धर्म, सूर्यनमस्कार, आदि खास वैचारिक कथ्यों को बच्चों के बस्तों तक पहंुचाया गया है। पाठ्यपुस्तकों में लालू प्रसाद, मायावती, वसुंधरा राजे सिंधिया, नरेंद्र मोदी आदि की जीवनियों को शामिल की गई हैं। प्रेमचंद की कहानी को हाशिए पर डाल कर ज्यों मंेहंदी के रंग को स्थान दिया गया था। शिक्षा और शिक्षण से जुड़े व्यक्तियों के लिए इस तरह के बदलाव याद होंगे। यह भी याद होगा कि किस तरह से 1977, 1986, 2000 और 2005 में पाठ्यपुस्तकें तैयार की गईं। जब जब जिस जिस विचारधारा और राजनीतिक दल सत्ता में आए हैं उन्होंने मानव संसाधन मंत्रालय का इस्तमाल अपने वैचारिक हित साधने में किया है। ऐसे में को बड़ कहत छोट अपराधु कहना ज्यादा प्रासंगिक होगा।
Subscribe to:
Post Comments (Atom)
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
-
प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
-
कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
-
bat hai to alfaz bhi honge yahin kahin, chalo dhundh layen, gum ho gaya jo bhid me. chand hasi ki gung, kho gai, kho gai vo khil khilati saf...
No comments:
Post a Comment