कौशलेंद्र प्रपन्न » चांद परेशां क्यों
च
चांद परेशां क्यों
क्यों हो चांद परेशां,
तन्हा भी हो क्यों,
रात रात भर अकेले
आंसू बहते हो।
सुबह दिखती हैं ओसों में,
निशा बुलाती है
बड़ी दीदी सुनाती है
तेरी धरती की बातें जो,
वही हमें याद आती है।
कल रात तुम अकेले थे-
सोचा तुम से बातें हों
मगर तुम तो खुदी में थे
क्या बातें भला होती।
सेाचा तुम को लिखूं ख़त
पता मुझको नहीं मालूम,
डाकिया ख़़्ात कहां देता,
लिखा ख़त मैं आज दे आया,
गांव के उस बुढ़े को,
जो आता ही होगा,
आज या कल में,
वही बांचेगा मेरा ख़त,
ज़रा ध्यान से सुनना।
क्यों हो चांद परेशां,
तन्हा भी हो क्यों,
रात रात भर अकेले
आंसू बहते हो।
सुबह दिखती हैं ओसों में,
निशा बुलाती है
बड़ी दीदी सुनाती है
तेरी धरती की बातें जो,
वही हमें याद आती है।
कल रात तुम अकेले थे-
सोचा तुम से बातें हों
मगर तुम तो खुदी में थे
क्या बातें भला होती।
सेाचा तुम को लिखूं ख़त
पता मुझको नहीं मालूम,
डाकिया ख़़्ात कहां देता,
लिखा ख़त मैं आज दे आया,
गांव के उस बुढ़े को,
जो आता ही होगा,
आज या कल में,
वही बांचेगा मेरा ख़त,
ज़रा ध्यान से सुनना।
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