बिन भेद वाले रंग,
जिस रंग में न हो भेद किसी कौम या कि धर्म कि,
रंग हो तो बस प्रेम और स्नेह कि,
क्या उस पर क्या उन पर सब पर,
रंग हो इक सा।
वह रंग न डाले-
कोई भी यैसे रंग जिस में,
दिख जाये उपरी प्यार कि,
मुस्कान।
आप सभी को रंग प्यार के मुबारक।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
बिन भेद वाले रंग,
जिस रंग में न हो भेद किसी कौम या कि धर्म कि,
रंग हो तो बस प्रेम और स्नेह कि,
क्या उस पर क्या उन पर सब पर,
रंग हो इक सा।
वह रंग न डाले-
कोई भी यैसे रंग जिस में,
दिख जाये उपरी प्यार कि,
मुस्कान।
आप सभी को रंग प्यार के मुबारक।
ज़िन्दगी यूँ ही चलेगी , चुकी हम किसी से समझोता नहीं करते। जबकि ज़िन्दगी में तो सुख दुःख तो पहिया के समान चलते रहते है। लेकिन हम तो सुख का दामन हाथ से निकलने नहीं देते। हमारी कोशिश तो यही होती है कि हम बेहतर ज़िन्दगी जीयें। लेकिन हम जैसा चाहते हैं वैसा हर समय कहाँ होता है। कोई जिसे आप या हम बेहद करीब मानते हैं जब उससे रुखसत की बरी आती है तब दिल बैठना शुरू होजाता है ।
छह कर भी उससे दूर नहीं जा पाते। लाख मनन कर लेते हैं कि यह गलत है लेकिन दिमाग हमेशा से ही बस अपने बारे में ही सोचता है। यैसे में प्यार, नफरत, दूरिय, सब के सब रह रह कर चहलकदमी कर ने लगते हैं। यैसे में कोई खुद के अपने प्रिय से को अलग कर सकता है। अलग होने या करने के लिए मनन, चिंतन जैसे भावुक पलों को बिलकुल भूलना पड़ता है। कठोर हो कर सोचना होत्ता है।
मन क्या करे उसे जब इन्द्रिय अपनी और खेचती हैं तो वह रुक नहीं पाटा। यही वो पल होता है जब इन्सान खुद को धुखा देता है। खुद के साथ झूठ बोलता है। जब की मनन हकीकत जनता है। बस दिल इसे शिकार नहीं कर पाटा।
जब की यह सच है कि इन्सान को अपनी जमीन देखनी चाहिए।
कुम्भ में स्नान को लेकर जिस तरह से भीड़ हरिद्वार में जमा हुई है उसे देख कर लगता है समस्त देश गंगा के तट पर जमा है। देश की आर्थिक, सामाजिक या फिर राजनीतिक हालत जो भी हो हमें स्नान करने से वास्ता है। वहां की जनता परेशां होती है हो। स्कूल, कॉलेज बंद रहें तो हों। मगर स्नान में किसी भी किस्म की बदिन्ताज़मी बर्दास्त नहीं होगी।
कुम्भ में अखाड़ों में पहले मैं पहले मैं की लड़ाई में किसे कदर आम जन को भय से गुजरना होता है उसका अंदाजा लगा सकते हैं। मगर न तो सरकार और न ही अखाड़ों को इससे कोई खास लेना होता है और न ही स्नान करने वालों को।
साधू समाज को समाज के प्रति भी कोई जिम्माधारी होती है है तो उसका पालन किया जाना चाहिय। लेकिन साधू समाज का वास्ता स्नान से ज़यादा होता है। काश वो लोग समाज की सर्स्कृति व् धर्म या फिर संस्कार के लिए स्चूलों में नैतिक मूल्यों का प्रसार करें तो कम से कम आज के बच्चों में कुछ मूल्य, संस्कार या फिर भारतीय धरोहरों के बारे में लगाओ पैदा करने में रूचि जागेगी। लेकिन इस काम के लिए मेहनत करना होगा। साधू समाज को धार्मिक कर्मकांडों से फुरशत ही कहाँ है जो इस काम में समय दे सकें।
बेगुन हुवा ब्रिंजल, आखिर जनता और जैव संबर्धित उत्पाद पर चल रहे विवाद का अंत हो गया। जय राम रमेश ने आख़िरकार जैव आधरित बैगन के उत्पाद को लेकर सरकार के कदम का खुलासा कर दिया। पहले तो रमेश १० फरबरी को येलन करने वाले थे लेकिन इक दिन पहले ९ तारीख को ही घोषणा कर दी कि फ़िलहाल भारत में जैव आधरित उत्पाद के लिए प्रयाप्त समय नहीं है।
इस एरिया में अभी जाँच पड़ताल करना बाकि है। पूरी तरह से सुरक्षित है इस बात की पुस्ती जब तक नहीं हो जाती इस मौसदे को सरकार आगे नहीं बध्यागी।
यानि बैगुन का भरता निकल गया। हो भी क्यों न बिना पूरी तहकीकात के बेगुन की जैविक खेती का मन बनालेने से तो बात नहीं बन जाती। इसीलिए इस परियोजना को मुह की खानी पड़ी। जानकारों का मानना है कि इस पारकर कि खेती से न केवल इन्सान पर बल्कि जीव जनत्वों पर भी बुरा असर पद सकता है। अमरीका में कपास की जैविक खेती के दौरान पाया गया कि जिन जनत्वों ने उस पौद्ध को खाया था उनकी या तो मौत हो गई या फिर उनकी किडनी में खराबी पायी गई। यैसे में बिना पर्याप्त जाच पड़ताल के आनन् फानन में सरकार इस मौसदे को अमली जामा पहनना चाह रही थी।
मगर देश की जनता और खुद देश के ११ राज्यों ने जैविक बैगुन की खेती के खिलाफ आवाज बुलंद कि की हम अपने यहाँ जैविक खेती नहीं होने देंगे।
कुम्भ में चक्षु स्नान करने वाले
चक्षु स्नान करने वालों की अची खबर ली है। सही है कि कुछ लोग नहाने कम नहाते हुए का देह दर्शन करने आते हैं और देह दर्शन से तृप्त होकर अपने अपने घर लौट जाते हैं। इस कर्म में क्या बूढ़े और क्या बच्चे, क्या मीडिया कर्मी और क्या आमजन सब के सब यहाँ नंगे हैं।
आपकी इस टिपण्णी पर कुछ लोग जिनकी चमड़ी अभी नर्म होगी उन्हें ज़रा चुभ सकती है। चलिए कम से कम सुधर जाये तो सार्थक हो। आदते इतनी ज़ल्दी कहाँ जाती है। जाते जाते टाइम लग जाता है।
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...