Friday, October 16, 2009

वो दीप....

न वो दीप की रौशनी रही,
न वो अँधेरा ही,
चारो और,
रौशनी ही रोध्नी,
आखें धुन्धती,
चाँद पल की खातिर,
सुकून....
दीप जो,
रोशन कर दे,
अंतर्मन
छाए अंधरे और लोभ की घटा टॉप को....
चलो ले कर आयें,
येसी रोशन दीप,
जो चीर दे,
अन्धतम की छाती....

Friday, October 9, 2009

कर्म बड़ा या किस्मत

पातंजल योगदर्शन में सूत्र है योगः कर्म्शु कौशलम यानि कर्म में जो कुशल है यही योगी है। यहीं दूसरी तरफ़ गीता का इक शलोक कहता है , कर्मनेवा धिकरास्ता माँ फलेषु कदाचना यानि कर्म की प्रधानता यहाँ भी है। दुसरे शब्दों में कहें तो यह होगा की कर्म प्रधान यही जग माही। जो भी कर्म में जी चुराता है उसकी तमन्न कभी भी कैसे पुरी हो सकती है। हमारी आदत में शामिल है हम अपनी असफलता का ठीकरा भाग्य के माथे फोड़ते हैं , जबकि गौर से विचार करें तो पयांगें की हमारी अपनी सोच ही दूषित है। कर्म तो करते नही हाँ असफलता की दारोमदार सीधा भाग्य को देते हैं।
ज़रा कल्पना करें , कोई आदमी बाढ़ में फस्सा हो तो उसे आवाज़ लगाना चाहिए की कोई आएगा और उसे ख़ुद निकाल लेगा सोच कर बैठ जाना चाहिए। उत्तर साफ है अगर हाथ पावों नही मरेगा तो डूबना तै है। उसपर भाग्य को कोई कोसे तो उसे क्या कह सकते हैं। भाग्य तो हमारे कर्मों से बनता है। अपनी हाथ की लकीरें हम ख़ुद बनते हैं।
इक बार थान लेने पर कोई भी काम कठिन नही होता।

Friday, October 2, 2009

गाँधी छाए रहे शास्त्री रहे गायब

गाँधी छाए रहे शास्त्री रहे गायब यानि आज अखबार में अगर कोई चाय है तो वो हैं गाँधी जी। छाए तो वही रहते हैं जिन्हें पाठक देखना या पढ़ना चाहते हैं। गाँधी आज ब्रांड भी बन चुके हैं। उनके नाम पर कलमऔर अन्ये अंतरंज कपड़े बाज़ार में आ चुके हैं। तो गाँधी बाज़ार को भी भाते हैं और आम जनता को भी। मगर शास्त्री जी को इक प्रधानमंत्री के रूप में ही लोग जानते हैं। दो अक्टूबर गाँधी जी के नाम समर्पित है। शास्त्री जी तो हासिये पर नज़र आते हैं । यह कितनी अजीब बात है। कुओंकी शास्त्री जी गरीब थे, सोसेबज्गी से दूर थे इसलिए उनको भुलादिया गया। क्या यह जायज है ज़रा सोचें तो....

Thursday, October 1, 2009

प्रेम में आंसू यानि रोते हुवे

प्रेम में आंसू यानि के रोते हुवे दिन कट जाते हैं। कभी उसको याद कर के तो कभी उसे कोसते हुवे। मगर याद ज़रूर करते हैं। अपनी तमाम ज़रूरी काम पीछे छोड़ कर बस इक ही काम होता है उसको पानी पी पी कर कोसना या फिर पुराणी बात को जिन्दा रख कर अलाव तपते रहते हैं। जबकि सोचना तो होगा ही के समये बदल चुका है। उसकी प्राथमिकता बदल चुकी है। आप उसके लिए इक बिता हुवा सुंदर सपना भर हैं और कुछ नही। कभी कभार याद आजाते होगें वो अलग बात है। मगर अब संभालना तो होगा ही।

समय तो हर चीज के मायने बदल दिया करती है तो फिर रिश्ते किस खेत की मुली हैं। ज़नाब बेहतर तो यही होगा के आप अपनी पुराणी यादों को तिलंज़ली दे देन वरना होना तो कुछ नही बस अपनी ज़िन्दगी को बैशाखी ज़रूर पकड़ा रहे हैं। जब वो आपके बिना जी सकती है तो आपमें वो हिम्मत क्यों नही। अगर नही है तो पैदा करना होगा। ज़िन्दगी तो इक ही मिली है मुझे या आपको या फिर उसे ही, इसे आप प्रयोग करने में जाया कर देन या बेहतर बनने में यह तो आप पर निर्भर करता है।

बस यूँ समझ लें की, उपदेस नही है यह तो संसार है यही जो दुनिया। यहाँ पर ज़ज्बात की डरकर कम दिमाग की जायद जुररत होती है।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...