कौशलेंद्र प्रपन्न
सपने देखना और उन सपनों को पूरा करना दोनों ही अलग अलग हक़ीकतें हैं। सपने देखना हमारी छूट है। जो भी सपने देखना चाहें। देख सकते हैं। लेकिन उन्हें पूरा करना कई बार हमारे हाथ में नहीं होता। हालांकि यह दूसरों पर दोष मढ़ने जैसा है। लेकिन कुछ हद तक ठीक हो सकता है।
मैनेजमेंट के जानकार मानते और कहते हैं कि यदि कोई भी प्रोजेक्ट व प्लान को शुरू में ही पूरी शिद्दत से योजना, रणनीति, रास्ते,प्लान दो और तीन, रिस्क, संभाव्य चुनौतियों , बजट प्रबंधन, मानवीय ताकतों की समुचित प्रबंधन आदि को ध्यान में रखते हुए कदम उठाए जाएं तो वे सपने और प्रोजेक्ट दोनों ही पूरे होते हैं। शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा, डेटा से लेकर आम जिं़दगी की तमाम योजनाएं और प्लान यूं ही फूसससस नहीं हो जातीं बल्कि उनके पिछड़ने में या न पूरा हो पाने में हमारी योजना और काम करने की क्षमता और गति, दिशा और इच्छा शक्ति दोनों ही काम करती है। यदि किसी सपने को उक्त चीजें समय पर नहीं मिलीं तो वे सपने अधूरे ही दम घुट कर मर जाते हैं।
आज हमारे युवा सपनों के साथ यह दुर्घटना खूब घट रही है। यदि सपने हैं तो उन्हें पूरा करने की इच्छा शक्ति व ताकत नहीं है। सपने पाल तो लेते हैं कि लेकिन जब बीच में संघर्ष व विपरीत स्थितियों आती हैं तब उनसे डट कर सामना नहीं कर पाते। सामना नहीं कर सकने के पीछे भी अभिभावकों और शिक्षकों आदि के हाथ होते हैं। हम उनके अंदर यह जज़्बा व एहसास ही पैदा नहीं कर पाते कि वे अपनी ताकत का अंदाज़ा लगा सकें। हमेशा उन्हें हाथ में सब कुछ दे देना। सब कुछ रेडीमेड नहीं होता। यह हम तब बताते हैं जब हमारे बच्चे हमारी ही आंखों के सामने अपने सपनों को ऑल्टर करते नज़र आते हैं।
नागर समाज का हर वह व्यक्ति, संस्था व परिस्थितियां सपने ऑल्टर करने की दुकानें हैं जहां हम बच्चों को सीखाते हैं कि कोई बात नहीं यदि फलां सपना पूरा नहीं हो पा रहा है तो वह वह वे वे सपने पाल हो। पाल लो न।
नीरज जी प्रसिद्ध कविता याद आ रही है-
कुछ सपनों के मर जाने से जीवन नहीं मरा करता है
कुछ चेहरों की उदासी से दर्पण नहीं....
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