कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षक का व्यावसायिक विकास सुनकर आपको किस प्रकार की दक्षता के अंदाज लगते हैं जो शिक्षकों में होने चाहिए। शिक्षण एक व्यवसाय है इसे मानने में कोई परहेज नहीं होनी चाहिए। क्योंकि अन्य व्यवसायों की तरह ही शिक्षण एक व्यवसाय है। यदि व्यवसाय है तो कुछ व्यावसायिक कौशल की अपेक्षा भी होगी। वे कौन सी दक्षताएं हैं जो हम शिक्षक में होने की अपेक्षा करते हैं। पहली बात तो यही कि शिक्षण को उसने स्वेच्छा से चुना हो। उसके चुनाव किसी प्रकार के दबाव व परिस्थितिवश लिए गए मजबूरी के निर्णय न हों। क्योंकि आज हकीकत यही है कि इस पेशे में बिना पहली प्राथमिकता के शिक्षक दबाववश ज्यादा हैं। कहीं किसी को कोई नौकरी मिलती नजर नहीं आती तो वह इस पेशे में भाग्य आजमाता है। किसी तरह से कोर्स पूरा करने के बाद पढ़ाना भी शुरू कर देते हैं। लेकिन मन में एक कसक के साथ की भाग्य ने साथ नहीं दिया वरना वो किसी कॉलेज, बड़े ओहदे, लाल बत्तीधारी होते। लेकिन कहीं न कहीं संभव है उनके प्रयास में कमी रही होगी। या कोई और वजह जिसकी वजह से वो आज स्कूल में हैं। इस कठोर सच को स्वीकारने में उन्हें सालों लग जाते हैं। शिक्षविदों को मानना है कि ऐसे लोगों की संख्या शिक्षण कर्म में ज्यादा है जिनसे शिक्षा और शिक्षण को संघर्ष करना पड़ता है।
शिक्षण को पढ़ना-पढ़ाना रूचिकर लगे यह एक प्रकारांतर से दक्षता कह सकते हैं। अनुभव बताते हैं कि शिक्षक एक बार शिक्षण में आने के बाद पढ़ना छोड़ देते हैं। इसके पीछे उनके अपने तर्क शास्त्र होते हैं। समय नहीं मिलता। क्या पढ़ें आदि। संभव है उनके सामने पीआरटी से टीजीटी, पीजीटी, उप प्रधानाचार्य, प्रधानाचार्य तक के सफ़र के अलावा कोई और विकास की संभवानाएं खत्म नजर आती हों। काफी हद तक सच्चाई भी है। लेकिन हकीकत तो यह भी है कि जो शिक्षण पढ़ने-पढ़ाने, शोध प्रवृत्ति को होते हैं उनके लिए स्कूल से बाहर काम के खुल आमंत्रण भी होते हैं। जहां वे अपनी शोधपरक रूझान को आकार दे सकते हैं। पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक लेखन, निर्माण की प्रक्रिया से भी जुड़ सकते हैं। कई ऐसे प्राथमिक और माध्यमिक स्कूल के शिक्षक हैं जिनका योगदान एनसीइआरटी की पाठ्यपुस्तक निर्माण में सहभागिता है। अवसर की तलाश करना हर व्यक्ति का अधिकार है। और उस अवसर को सकार करने के लिए प्रयास भी जरूरी है। केवल स्कूल तक खुद को महदूद रखने वाले शिक्षक ही संभव है समय से पहले मृतप्राय से हो जाते हैं।
शिक्षक स्वयं भाषायी कौशल, तकनीक इस्तमाल, सृजनात्मक सोच को स्वीकारने और बढ़ावा देने वाला हो। ऐसे में शिक्षकीय जीवंतता तो बचाई ही जा सकती है साथ ही बच्चों में सृजनात्मकता का प्रवाह भी सहजता के साथ किया जा सकता है। लेकिन अमूमन देखा यही जाता है कि जब किसी दक्षता विकास कार्यशाला में शिक्षकों को आमंत्रित किया जाता है तो उसमें उनकी रूचि न के बराबर होती है। अरूचिपूर्ण सहभागिता की प्रवृत्ति से आए शिक्षकों की उस मनस्थिति को तोड़ने, निर्माण करने की प्रक्रिया काफी चुनौतिपूर्ण होती है। अनुभव बताते हैं कि शिक्षकों के लिए आयोजित होने वाले कार्यशालाओं में शिक्षकों को धकेल कर भेजा जाता है। वे भी आदेश के पालक के तौर पर हिस्सा भी ले लेते हैं। यह देखना भी दिलचस्प होता है कि उनमें से कितने कार्यशाला के पश्चात उन कौशलों का इस्तमाल अपनी कक्षाओं में करते हैं। मुश्किलन बीस फीसदी शिक्षक ही कार्यशालाओं में अपनी रूचि के साथ आते हैं। यही शिक्षक पूरे कार्यशाला में सकारात्मक सोच के साथ सहभागी भी होते हैं। वरना अधिकांश शिक्षक महज समय कैसे कट जाए या ज़रा टटोलें कि जो उन्हें पढ़ाने आया है वह कैसे उन्हें पढ़ाता है। इस प्रवृत्ति के शिक्षक हमेशा कार्यशाला में व्यवधान पैदा करते हैं।
एक बड़ा फांक वहां भी नजर आता है जब एक शिक्षक टटका प्रशिक्षण हासिल कर कक्षाओं में कुछ करना चाहते हैं। लेकिन उन्हें अपने ही सह शिक्षक मित्रों से सुनने को मिलता है कि हम भी पहले ऐसे ही लगन से पढ़ाया करते थे। कुछ दिन की बात है फिर यह भी हमारी तरह हो जाएगा। इस किस्म के नकारात्मक सोच और मानसिक प्रहार में खुद की शिक्षण ललक को बचाए रखना कठिन होता है। जो भी शिक्षक इस माहौल को हावी नहीं होने देते वे बड़ी शिद्दत से आज भी शिक्षण कर रहे हैं। उन्हें कुछ शिक्षकों की वजह से ही शिक्षण पेशे की नाक बची हुई है।
प्रो कृष्ण कुमार अपनी पुस्तक गुलामी शिक्षा और राष्टवाद में इस मसले पर बड़ी गंभीरता से विमर्श करते हैं कि एक शिक्षक की हैसीयत समय के अनुसार घटती रही है। आज वह शिक्षक एक कर्मचारी की तरह हो चुका है जिसपर अधिकारियों के आदेश थोपे जाते हैं। वह महज आदेश पालक बन कर रह गया है। इसके पीछे एक कारण यह है कि वह अपने पेशे को ही हीन दृष्टि से देखता है। ज बवह स्वयं अपने पेशे से उदासीन होगा तो समाज में शिक्षक के मान सम्मान तो घटेंगे ही। शिक्षक बेसहारा और दीनहीन की स्थिति में तब ज्यादा पाता है जब अपने ही सामने और को आगे बढ़ते हुए देखता है। हमें अपने पेशे की पहचान बनाने और बिगाड़ने की पूरी छूट है। हम कैसी पहचान निर्मित कर रहे हैं उसपर ठहर कर सोचना होगा। कृष्ण कुमार उक्त किताब में लिखते हैं कि अधिकांश शिक्षक पेशे में आने के बाद पढ़ने-लिखने से दूर हो जाते हैं जिसकी वजह से आंतरिक परीक्षाओं में पास नहीं हो पाते। आज के संदर्भ में इसे इस तरह से समझ सकते हैं कि जब राष्टीय व राज्यकीय शिक्षक पात्रता परीक्षाओं में एक या दो फीसदी शिक्षक ही पास हो पाए। इन परिणामों को देखते हुए शिक्षकों के संगठनों से इस किस्म की परीक्षाओं का विरोध करना शुरू किया। जबकि यह एक हकीकत है कि शिक्षक एक बार शिक्षण कर्म में आने के बाद पढ़ना-लिखना छोड़ देता है। यह स्थिति न केवल स्कूली स्तर पर देखे जा सकते हैं बल्कि कॉलेज और विश्वविद्याल स्तर पर लगभग यही स्थिति है। स्कूल स्तर पर तो कोई ऐसा प्रावधान नहीं है कि आपने कितने सेमिनार किए, कहां कहां पेपर पढ़ा, कितने घंटे कक्षाएं लीं। कितनी किताबें लिखीं अिद जिन पर आपकी ग्रोथ निर्भर करती है। यह स्थिति विश्वविद्यालयी स्तर पर शुरू हो चुकी हैं। शिक्षकों की प्रोन्नति उनके पर्चे, सेमिनार,, जर्नल आदि में छपे आलेखों पर निर्भर करते हैं। यदि इस तरह के प्रावधान स्कूलों में भी किया जाए तो संभव है शिक्षक पढ़ने-लिखने में मजबूरन ही सही रूचि लेने लगें।
3 comments:
बड़े ही रोचक और सुंदर तरीके से अपनी बात कही है सर आपने।
यह सब कुछ हमारे आसपास के क्षेत्रों में होता आ रहा है। शिक्षक अफसरशाही के कारण आजकल केवल आज्ञापालन ही कर रहे हैं और विद्यालयों में शिक्षण सिर्फ कागजों पर ही है।
अपने शिक्षा की हकीकत को बयान कर दिये हैं शिक्षक बने के बाद से ही अध्यापक के अपने छुट्टी अपने सैलरी के बारे में बात करते हैं लेकिन अपने साथी अध्यापक से कक्षा शिक्षा पर बिलकुल बात नही करते कि शिक्षा को कैसे रोचक बनाये up के प्राइमरी शिक्षा यही स्थिति हैं साथ ही शिक्षा के शत्रु शिक्षामित्र प्राइमरी शिक्षा को और गर्त में ले जा रहे हैं
अपने शिक्षा की हकीकत को बयान कर दिये हैं शिक्षक बने के बाद से ही अध्यापक के अपने छुट्टी अपने सैलरी के बारे में बात करते हैं लेकिन अपने साथी अध्यापक से कक्षा शिक्षा पर बिलकुल बात नही करते कि शिक्षा को कैसे रोचक बनाये up के प्राइमरी शिक्षा यही स्थिति हैं साथ ही शिक्षा के शत्रु शिक्षामित्र प्राइमरी शिक्षा को और गर्त में ले जा रहे हैं
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