मैं तो तुम्हें पूरी दुनिया में देख आया। कहीं नहीं मिली। सब के सब अपनी भाषा तो बोलते हैं मगर अपनी भाषा को भूलते जा रहे हैं। इसे क्या नाम दें।
जिसे देखो वही भाषा की दुकान खोल कर बैठा है। हर कोई भाषा के सामान बेचने में लगा है। कोई कविता बेचता है। कोई कहानी तो कोई उपन्यास बेचता है। सब के सब बेचने में लगे हैं।
कहानी कोई बेचता है तो कोई कविता। जिसके हाथ जो बेचने को लग जाता है वेा वही बेचने में व्यस्त है। भाषा क्या सिर्फ कविता कहानी बेचने से बचाई जा सकती है। क्या सिर्फ सेमिनारों, सम्मेलनों के कंधे पर डाल कर लंबी नींद सोई जा सकती है।
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