महेंद्र प्रजापति की यू ंतो यह पहली कहानी नहीं है। हां नया ज्ञानोदय अंक नवंबर 2013, के लिए बेशक पहली हो सकती है। लेकिन पढ़ कर अनुमान लगाना कठिन है कि यह कथाकार, संपादक की पहली कहानी है। प्रजापति वास्तव में कथाकार की भूमिका में अच्छे रचे-बसे लगते हैं। एक बार इस कहानी में पढ़ने बैठें तो वास्तव में बिहार अंचल की भाषायी छटा को आनंद तो मिलेगा ही साथ ही तीन चार दशक पहले बल्कि आज भी जो मजूर अपनी ब्याहता को घर-गांव में छोड़ रोटी रोजी के लिए कलकता, पंजाब, मुंबई जाते हैं, उन महिलाओं की अंतरवेदना, छटपटाहट की सिसकिया सुनाई देंगी।
कई बार भिखारी ठाकुर भी बगले ही बैठे मिलेंगे। परदेसिया नाटक जिन्होंने नहीं देखा उनके लिए यह कहानी वह रोशनदान है जिससे परदेसिया को देख सकते हैं। भोजपुरी बोली-बर्ताव को प्रजापति ने कुछ यूं घोला है कि कहानी में सरसता खुद ब ख्ुाद दुगुनी हो जाती है।
सच में एक पढ़नीय कहानी बन पड़ी है। भाषा-शैली तो आंचलिक है ही साथ ही कहानी की जमीन भी जानी पहचानी है लेकिन उसके साथ प्रजापति का तानाबाना बुनना एकदम सामयिक है।
साध्ुावाद और अगली कहानी का इंतजार पाठकों को रहेगा।
कौशलेंद्र प्रपन्न
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