कुछ सवाल बेहद दर्दीले बीते पलों और घ्त्नावो की याद दिलाते हैं. युन्हे याद कर या सवाल को दुहरा कर तकलीफ होती है. मसलन १९४७ के कसूरवार किसे मानें? मस्जिद गिराई गई उसके दोषी किस चेहरे को माने. उसी तरह कैदफा हमारे बीते पल भी सवाल करते हैं. जिनका जवाब बेहतर वाही दे सकता है जो निरपेक्ष हो कर मंथन कर सके. लेकिन इस काम में इक खतरा है की हम खुद को बचाते हैं और सामने वाले पर दोषारोपण करते हैं.
दोषारोपण के आगे हमारा विवेक जवाब दे जाता है. दुसरे शब्दों में कहे तो हम अपना पक्ष छुपा कर सापने वाले के सर पर ठीकरा फोड़ते हैं. देश के वर्त्तमान पोलिटिक्स और संसद की करवाई को देख कर भी यह झलक मिल सकती है. विपक्ष ताल ठोकती है, हमने शासन दो फिर देखो हम चला कर दिखा देंगे. मगर जब सत्ता में होते हैं तब तमाम वायदे भूल जाते हैं. दोष मढना आसन होता है. जीना मुश्किल वो भी सच के साथ.
दोषारोपण के आगे हमारा विवेक जवाब दे जाता है. दुसरे शब्दों में कहे तो हम अपना पक्ष छुपा कर सापने वाले के सर पर ठीकरा फोड़ते हैं. देश के वर्त्तमान पोलिटिक्स और संसद की करवाई को देख कर भी यह झलक मिल सकती है. विपक्ष ताल ठोकती है, हमने शासन दो फिर देखो हम चला कर दिखा देंगे. मगर जब सत्ता में होते हैं तब तमाम वायदे भूल जाते हैं. दोष मढना आसन होता है. जीना मुश्किल वो भी सच के साथ.
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