यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Sunday, January 31, 2010
गाँधी बाबा सुन लो ना
अब तो आपके समय का लुटियन जों का नाम भी हमने बदल दिया अब वह ज़गह राजीव गाँधी और इंदिरा गाँधी के नाम से जाना जाता है। हमने तो आपके जाने के बाद सब कुछ नै सिरे से सब कुछ सजाया। सुन रहे हैं बापू ? आपकी अश्थी महा सागर में विसर्जित की जा चुकी है। आपकी प्रपोत्र के हाथों आप अब महासागर में जा मिले। चलिए बाबा कभी इधर आना हो तो अपने साथ अपना आईडी ज़रूर लाना। वर्ना मुश्किल में पद जायोगे। हाँ बाबा अगर मुंबई जाना ही हो तो मराठी सिख लेना नहीं तो कभी भी महाराष्ट्र से ख्देरे जा सकते हो।
Friday, January 29, 2010
लोकतन्त्र के चौथे स्तम्भ से एक जिम्मेदार एवं सृजनात्मक भूमिका
Tuesday, January 26, 2010
देश की रास्ट्रीय गान पर ख़ामोशी
जी जहाँ देश भर में ६१ वे गणतंत्र दिवस मनाया जा रहा था। इंडिया गेट पर राष्ट्रपति महा महिम प्रतिभा देवी सिंह पाटिल जवानों की सलामी ली रही थीं। राज पथ पर जवान, विभिन राज्यों से आये युवा अपनी मिटटी, संस्कृति, लोक धुन आदि का परिचय दे रहे थे। इसी बीच जब देश का रास्ट्रीय गान, ' जन गन मन गया जा रहा था उस धुन पर कुछ लोगों की ख़ामोशी देखी जा सकती थी। प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह, वित् मंत्री प्रणव मुखर्जी , सोनिया गाँधी की होठ सिले हुवे थे। यदि किसी का होठ हिल रहा था तो वह था , उप राष्ट्रपति हामिद अंसारी का। क्या ही विडम्बना है कि देश के प्रमुख पदों पर विराजे लोग बिना ही शर्म के देश के रास्ट्रीय गान का अपमान कर रहे थे मगर कोई इस ध्यान देने वाला नहीं था।
देश या की देश की शान तिरंगा झंडा का खुलम खुला मखोल बने और हम या की नयायपालिका, पत्रकरिता, कार्यपालिका सब के सब खामोश रहें तो फिर किसे से उम्मीद किया जायेगा। आम जनता अपने नेतावों को बड़ी ही उम्मीद से देखा करती है। मगर जब वो ही देश के सम्मान में गए जाने वाले गान को गुनगुनाना में कोताही बर्तेगें तो आम जनता में किसे तरह का सन्देश जायेगा।
यूँ तो कोर्ट ने समय समय पर इस बाबत आदेश जारी किये हैं लेकिन परिणाम यही धाक के तीन पात। पहले देश के सम्मान में गए जाने वाले गीत के दरमियाँ लोगों से उम्मीद की जाती थी की वो देश गान के समय कम से कम सावधान खड़े हो कर इज्जत देंगे। धीरे धीरे देखा गया कि लोगों को खड़े होने में भी परेशानी होती है। रास्त्र गान की इज्जत बनी रहे इस लिए कोर्ट में पीएल डाला गया कि कोर्ट इस मामले में हस्तचेप करे। लेकिन कोर्ट के अन्य आदेशों की तरह इस का भी हस्र हुवा।
स्कूल, कॉलेज में या कि अन्य अवसरों पर भी देश गान का अपमान किया जाता रहा है। याद करें इस से पहले इक प्रधानमंत्री देश गान के समय हाथ पीछे बांध कर खड़े थे। बाद में जब इस बाबत मीडिया में ख़बरें गरम हुई तो उनने अपनी गलती स्वीकारी। मगर देखते हैं ६० वे गणतंत्र पर सोनिया जी, मनमोहन सिंह, प्रणव मुखर्जी साहब अपनी इस चुप्पी पर कुछ बोलते हैं या नहीं।
Monday, January 18, 2010
शब्द साधक ही साधू
जिस उम्र में आकर,
अमूमन लोग खुद को काम से मुक्ति पर्व मानते हैं,
किन्तु आपने कर्म प्रधान यही जग माहि,
जीया,
किया,
दुनिया को दिया,
शब्द समझ का औजार....
शब्द ब्रम्ह के करीब आप या
गंगा में स्नान,
आचमन,
तिलक,
धुनी राम कट ली ज़िन्दगी,
इस गुमान में कि,
हैं वो उसके बेहद करीब ...
पर सच है यह कि,
जो शब्द साधना करे-
एकांत वासी अरविन्द हो,
आप के जन्म दिन पर मेरी शुभ कामना स्वीकार करें,
आप का,
कौशलेन्द्र
Sunday, January 17, 2010
कोई रोटी बिन जान देवे तो जश्न में पैसा खर्चे
जितनी बर्बादी पार्टी में होती है उस खर्च से कई बेहाल परिवार को रोटी मिल सकती थी। अगर हम येसा करें तो कई बेसहारा मौत की बजाय जीवन का सामना कर्येंगा।
Thursday, January 14, 2010
घरघुसना
आज भी कई लोग मिलेंगे जिन्हें घर से निकलना हो तो कई बार तलने की कोशिश करते हैं।
Wednesday, January 13, 2010
साथ साझा चुल्हा कैसे जले
हमने तो मंदिर,
आँगन,
चूल्हा,
बर्तन,
सब अब तक दो फाक कर चुके।
नदियाँ,
नाले,
पोखर भी,
उस पार दी ही डाले,
झेलम,
चिनाब,
शिप्रा,
गंगा,
यमुना,
अपने पास रख लिया,
कुछ को हमने उसपार उलीचा,
सागर भी हमने सोचा दो फाक कर ही डालीं,
पर्वत खोदी,
माँ की आँचल फाड़ चुके हम,
अब क्या फाड़ें तुम हे बोलो,
कहते हो कश्मीर भी दे दो
बोलो खुद ही अपने वतन का संभल बन पाए जो,
कश्मीर दे दें,
यह तो भीख में दी नहीं जा सकती,
फिर तो माज़रा यहीं पर अटके,
पर बोलो गर कश्मीर तेरा हो ही जाये तो,
कब तलक,
कौम पर राज कर ही सकोगे...
साझा सब कुछ खतम हो चुका,
अब तो दर्द,
आसूं अपने हैं साझा,
बोलो इस को जी सकते हो,
तब तो जंग ख़त्म हो जाये,
लहू तम्हारे भी बह जायेंगे.....
Tuesday, January 12, 2010
ग़ालिब तेरे शहर में जी नहीं लगता
कभी तेरे कूचा ये मुहबत में रौनक हुवा करती थी,
अब तो तेरे उन गलियों से खून, चीख आती है।
ग़ालिब चलो अब वहां आशियाँ बनायें जहाँ मिलती हों,
झेलम सतलुज या गोदावरी की आचल में हिलोद्ये मरती हो चेनाब,
फिर से चलो किसी के कोठे पर पतंग काटें मंझा लगा,
भाई ग़ालिब अब तो तेरा शहर हर रोज बस्ता और बर्बाद होता है।
ग़ालिब सुना है रब की घर में कोई बड़ा या की छोटा नहीं,
तो फिर चलो ग़ालिब खुदा से बात करें रोते के आसूं कैसे कोई पोचे।
लाहौर या की इस्लामाबाद शहर तेरा भी डरा डरा रहता है,
बम की गूंज वहां भी लहू पीती है, ग़ालिब कुछ करते हैं।
उन्हें अपने घर से निकाल देते हैं, फिर देखते हैं।
हम फिर खुली हवा में जी भर कर साँस लेंगे,
ग़ालिब मीर तकी मीर हों या कर्तुल यां हेडर,
सब ने पैगाम ये अमन की खातिर कलम थामी,
हम भी चलो कुछ येसा गीत लिख्यें जो साथ गुनगुना सक्यें।
अब तो ग़ालिब हद हो चूका कहाँ बर्लिन की दिवार भी गिर चुकी,
लेकिन हम हैं की अब तलक रूठे रूठे बैठे हैं
और कितना इंतज़ार करोगे की कोई आएगा हाथ में लेकर कश्मीर,
कश्मीर को यहीं रहने दो, हम वहां अमन की खेती करते हैं।
बच्चे गायें गीत प्यार की गूंज गूंगे को मीठे की स्वाद सा लगे,
बस भी करो मेरा तेरा हो गया पुराना, अब कुछ नया राग में अलाप्यें।
कुछ सुबह की नमाज़ की तरह या ब्रहम मुहर्त में गंगा स्नान की बाद शंकर को जल डालते,
अंजुरी में भर दें मुठी भर प्यार की रजकण ताकि हाथ से छुए जिसे भी वह मह मह हो जाये....
Saturday, January 9, 2010
जब तक
साहित्य में भी काफी लोग मिलेंगे जो आलोचना कर्म में इतने मंजे होते हैं कि खुद कुछ लिख ही नहीं पते। उनकी लेखनी बस विष वमन कर सकती हैं जो ताउम्र चलती रहती है। कई बार आलोचना की सरोकार होती है लेकिन तब कलम नहीं चलती। लेकिन किसी की खाल उध्रनी हो तो साहब सबसे आगे रहते हैं। खुद बेशक सालों साल कलम न पकड़ी हो लेकिन लेखन पर व्याखान देने दूर दूर बुलाये जाते हैं। यैसे बकता वास्तव में अपने आगे किसी को बढ़ते नहीं देख सकते। वैसे तो यह शास्त्र सभी जगह लागु होती है लेकिन लेखन में कुछ ज़यादा ही सटीक है।
कई लेखक किताब छपने से पहले ही इतना हवा बंधते हैं कि सामने वाला कुछ देर के लिए अपना आप खो बैठे। लेकिन इनकी असलियत तब सामने आती है जब पाठकों के साथ ही समिश्कों की नज़र इनकी पुस्तक पर कोई सेमिनार, बहस तक नहीं आयोगित करती। फिर साहब खुद ही अपने करीबी को बोल गोष्टी रखते हैं जिस सारा खर्च खुद उठाते हैं। लोगों को कानो तक यह बात पहुच नहीं पाती और लगता है इनके किताब पर इतनी गोष्टी, इतनी समीक्षा प्रकाशित हो चुकी है, जब की माज़रा कुछ और ही हुवा करता है। खुद साहब समीक्षा लिख कर कई अखबारों, पत्रिका में भेजा करते हैं। छपने के बाद लोगों को दीखते फिरते हैं। फलना फलना अख़बार, पत्रिका में मेरी किताब की समीक्षा छापी है।
तो यैसे किताब और समीक्षा लिखने या छपने का क्या लाभ। बेशक लोग आपको लेखक के रूप में जानने लगेगे लेकिन हकीकत तो आप या आपकी पत्नी जानती है। बसरते के आपने पत्नी को सच बताया हो। वर्ना वो भी इसी मुगालते में जीती रहेगी कि उसके पतिदेव लेखक हैं। लोग जानते हैं। और आप सीना फुला कर पत्नी के सामने तो चल सकते हैं लेकिन जब मंच पर साहित्य के परखी मौजूद होंगे तब आपकी रचना का सही मूल्याङ्कन होगा। वास्तव में आपकी लेखनी में कितना दम है, इसका मूल्याङ्कन तो परखी लोगों के द्वारा ही हो सकता है। लिखे हुवे शब्द को चिरकाल तब संजोने की लिए गुण करी रचना करनी होती है। और उसके लिए पढंत लिख्यंत और स्वाध्याय जरुरी होती है। आज कितने लोग है जो अपनी रचना के अलावे दुसरे को पढ़ते हैं। बहुत ही कम लोग होंगे जो किसी की रचना पर अपनी राये लिख कर लेखक को भेजते हैं। कुछ करते है तो उनको लेखक की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती। यानि लेखक- पाठक के बीच के रिश्ते ख़त मेल सब कब के अर्थ हीन हो चुके हैं।
Thursday, January 7, 2010
साहित्य में अतीत
साहित्य में अतीत बड़े ही ब्यापक रूप से वर्णित होता रहा है। किसी की कृति में लमही की जमीन, लोग, बोली वाणी साकार रूप पाते हैं, तो किसी की रचना में मैला आँचल रचा बसा होता है। वहीँ बाबा नागार्जुन के यहाँ छिपकली दीवारों पर गश्त लगा रही होती है तो कानी कुतिया बुझे चूल्हे के पास बैठी खुजला रही होती है इस उमीद में की कभी तो सब लोग होंगे बोहुत दिनों के बाद।
लेखक, कथाकार, उपन्यासकार अपनी लेखनी से अपने आस पास की हाल, उठा पटक को बखूबी पकड़ कर पाठक को परोसते हैं। कालिदास की रचना हो या विद्या निवास मिश्र या फिर निर्मल वर्मा ही क्यों न हों इन सभी की रचना अपने समय और तत्कालीन समय की करवट भी सुनी देखि जा सकती है। कोई लेखक अपने समय की धरकन को भला कैसे नज़रंदाज कर सकता है। जो येसा करता है उसके पाठक वर्ग बड़े ही सिमटे और अपने कुप्प में सिमित रहा करते हैं। किसी भी रचना की व्यापकता की पह्च्यां उसके पाठक की रूचि , पसंद - नापसंदगी पर काफी निर्भर करती है। जो ज्यादा पढ़ा जाएगा उसकी बाज़ार में मांग तो होगी ही साथ ही उससे पाठक वर्ग को उमीद भी होती है। लोग इंतजार करते हैं की अगला क्या आने वाला है। लेखक कुछ नया कहने लिखने के लिया किसे दौर से गुजर कर लिख पता है इसका अनुमान शायद पाठक को न हो लेकिन जो इस दुनिया के लोग हैं वो तो बेहतर समझते हैं।
जो समय के कपाल पर चरण धरने का मादा रखता है वही लेखक कुछ लिख सकता है। वर्ना रोज दिन लेखक उगते हैं और शाम से पहले ही ढल जाते हैं। लेकिन इक हकीकत यह भी है जिसे इंकार नहीं किया जा सकता कि लेखक आज की तर्रिख में केवल लिख पढ़ कर जीवन नहीं चला सकता। घर के लिया चाहिय नून तेल और रोटी। और यह लिख कर संभव नहीं। कभी हमारे साहित्य जगता में यैसे लोग थे। लेकिन आज समय कुछ और है। आज तो यैसे लोगों से कोई अपनी बेटी भी ब्याहना नहीं चाहता।
पैसे का मोल जानना होगा। स्वन्था सुख्या के बजाए बाज़ार और पाठक को ध्यान में रख कर लिखना होगा। वर्ना कई लेखक अपने उम्र के ढलान पर बुनयादी दवा चिकित्सा के घर के कोने में चारपाई पर खस्ते रहते हैं। अपने मेडल, अवार्ड को बेच कर जीवन की आखरी घडी को काटना मज़बूरी होती है। हर कोई प्रेमचंद, रेनू या संसद तक के सफ़र कर आने वाले की पंक्ति में नहीं आता। इक इक पुस्तक छपने में कितनी मसक्कत करनी होती है यह किसी उस लेखक से जान सकता है जिसे प्रकाशक कैसे कैसे नचाते हैं।
बॉस , बस आज इतना ही वर्ना कहीं आप या हम निराश हो कर उमीद छोड़ कर बैठ जाएँ , जो लिखयेगा वही तो आज न कल छापेगा।
Saturday, January 2, 2010
हेल्थ के साथ मजाक
मैंने दो दिनों में २००० रूपी खर्च कर चूका हूँ। वजह, रक्त चाप की मात्र २५५ हो गया। डॉक्टर को लग रहा था इस उम्र में रक्त चाप इतना कैसे हो सकता है? सो उसने कई तरह के जांच करा डाले। रिपोर्ट के अनुसार मुझे मीठा, बुट्टर, धुयाँ नहीं लेना है। डॉक्टर का कहना था, आप चाहें तो ड्रिंक कर सकते हैं मगर ध्यान रहे इससे ज़यादा खतरनाक धुयाँ होता है। सो मैं इसकी इज्ज़ज़त नहीं दे सकता।
अब लगता है, सच में सेहद ज़यादा नाज़ुक हुवा करता है , अगर लापरवाही की तो उसका हर्जाना तो देना ही होगा।
बस यही कहना है की सेहद के बड़ा कोई नहीं। लापरवाही तो बिलकुल नहीं।
Friday, January 1, 2010
भाषा मुझसे बार बार कहती है वो आपसे शेयर करना चाहता हूँ
मैंने बोहोत दिमाग खपाया मगर समझ से बाहर थी भाषा की ये बातें। मगर जब गहरे सोच कर देखा तो अमिताभ जी की फिल्म शराबी के संवाद याद आने लगे। " आई वाक् इंग्लिश , आई इत इन्ग्ल्सिः , आई स्लीप इंग्लिश"
वाह !!! क्या बात कह दी अमीत जी ने कहा - कितनी गजब की बात है भाषा की साथ सोने , खाने , घुमने जैसे रिश्ते बनाने से भाषा तो हमारी हो ही जाती है साथ ही वो हमें समाज में मान , इज्ज़त , और पैसे भी दिलाती है। फिर मैंने सोचा इतनी मज़े की बात को खुद तक दबा कर रखना भाषा की तौहीन ही तो होगी। भाषा सब की सब भाषा की परिवार के हों जाएँ तो कितनी गज़ब की बात होगी। फिर भाषा दर दर हमें ठोकरे खाने नहीं देगी। 'सिंह इस किंग' फिल्म की इक गीत के बोल है - 'इक बारी हो इक बारी ....' हाँ बिलकुल सही समझे इक बरी अगर भाषा से गठजोड़ हुआ तो मान कर चलिए की आपके रिश्ते में तलाक तलाक तलाक के मौके नहीं आयेंगे। आप भाषा से रिश्ता तोड़ सकते हैं मगर भाषा बेवफा नहीं होती।
जब भाषा आप से वफ़ा कर रही है तो आप भाई ! काहे को बेवफाई करने पर उतारू हैं। खा मखा पंगा लेना ज़रूरी है क्या। यार बनी बनायीं, बसी बसाई गृहस्ती में क्योँ आग लगा रहे हैं। ज़रा आप भाई भाषा के संग रह कर देखें तो सही , अगर उसकी यारी बुरी लगे तो बेशक गलियाते , कोसते भाग जाएँ। फिर मैं नहीं कहूँगा की भाषा के साथ ज़िन्दगी बिताने की बात।
सच है , भाषा की दोस्ती अगर निभ जाये तो क्या ही कमाल की बात होती है , आपसे हर कोई बात करना चाहे। आप ज़हन में कहीं भी जाएँ आपके संग भाषा ससा ससा कस्तो ससा तपन कुंजर कस्तो ससा.... आपके मान में चार चाँद लगा देती है। तो फिर सोच का रहे हो भैया? भकुए काहे हैं जी ज़रा भाषा की यारी कुबूल तो कर के देखो क्या ही मज़ा है। माल की क्या बात करते हो भाई , ये तो आपको विदेश भी घुमती है। यानि शादी भारत में और भाषा की पीहर विदेश में आप हो आते हैं। अरे दुलहा राजा अब मान भी जायो , भाषा की संग उसकी बहने साथ में मिला करती हैं। यानि इक के साथ अन्य फ्री.... सौदा घाटे का बिलकुल नहीं है।
मणि सेल्स मैं हूँ आप यही सोच रहे हैं ? हहा हां , मैं हूँ भाषा का सेल्स मैं.... तो क्या इस साल इक भाषा के साथ अन्य भाषा को घर लाना न चाहेंगे? आये न सर जी, आपकी बात सही है वही भाषा लेना चाहते हैं जिस को बाद में आप बेच कर खरीद दाम से ज़यादा कमाना चाहते हैं। तो बस आपके लिए बिलकुल सही मौक़ा है हाथ से इस अवसर को न जाने दीं।
बस इसी उम्मीद के साथ आज की दूकान बढ़ता है। कल फिर आयूंगा गली गली , शहर शहर घूम कर भाषा बेचता हौं। हाँ मैं भाषा बेचता हौं। क्या आप खरीदोगे?
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
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प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
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कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
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bat hai to alfaz bhi honge yahin kahin, chalo dhundh layen, gum ho gaya jo bhid me. chand hasi ki gung, kho gai, kho gai vo khil khilati saf...