जब तक आपके या मुझ में कुछ करने की लालसा होगी तब तक दुनिया में श्रीजन काम करते ही रहेगें। मसलन कुछ लोग तो दुसरे की कमी निकालने में इतने माहिर होते हैं कि आपने कहा नहीं कि उधर आलोचना तैयार। मगर यदि कुछ लिखने या रहने की बात हो तो फिर देखने लायक होता है यैसे लोग पहले पलायन करते हैं।
साहित्य में भी काफी लोग मिलेंगे जो आलोचना कर्म में इतने मंजे होते हैं कि खुद कुछ लिख ही नहीं पते। उनकी लेखनी बस विष वमन कर सकती हैं जो ताउम्र चलती रहती है। कई बार आलोचना की सरोकार होती है लेकिन तब कलम नहीं चलती। लेकिन किसी की खाल उध्रनी हो तो साहब सबसे आगे रहते हैं। खुद बेशक सालों साल कलम न पकड़ी हो लेकिन लेखन पर व्याखान देने दूर दूर बुलाये जाते हैं। यैसे बकता वास्तव में अपने आगे किसी को बढ़ते नहीं देख सकते। वैसे तो यह शास्त्र सभी जगह लागु होती है लेकिन लेखन में कुछ ज़यादा ही सटीक है।
कई लेखक किताब छपने से पहले ही इतना हवा बंधते हैं कि सामने वाला कुछ देर के लिए अपना आप खो बैठे। लेकिन इनकी असलियत तब सामने आती है जब पाठकों के साथ ही समिश्कों की नज़र इनकी पुस्तक पर कोई सेमिनार, बहस तक नहीं आयोगित करती। फिर साहब खुद ही अपने करीबी को बोल गोष्टी रखते हैं जिस सारा खर्च खुद उठाते हैं। लोगों को कानो तक यह बात पहुच नहीं पाती और लगता है इनके किताब पर इतनी गोष्टी, इतनी समीक्षा प्रकाशित हो चुकी है, जब की माज़रा कुछ और ही हुवा करता है। खुद साहब समीक्षा लिख कर कई अखबारों, पत्रिका में भेजा करते हैं। छपने के बाद लोगों को दीखते फिरते हैं। फलना फलना अख़बार, पत्रिका में मेरी किताब की समीक्षा छापी है।
तो यैसे किताब और समीक्षा लिखने या छपने का क्या लाभ। बेशक लोग आपको लेखक के रूप में जानने लगेगे लेकिन हकीकत तो आप या आपकी पत्नी जानती है। बसरते के आपने पत्नी को सच बताया हो। वर्ना वो भी इसी मुगालते में जीती रहेगी कि उसके पतिदेव लेखक हैं। लोग जानते हैं। और आप सीना फुला कर पत्नी के सामने तो चल सकते हैं लेकिन जब मंच पर साहित्य के परखी मौजूद होंगे तब आपकी रचना का सही मूल्याङ्कन होगा। वास्तव में आपकी लेखनी में कितना दम है, इसका मूल्याङ्कन तो परखी लोगों के द्वारा ही हो सकता है। लिखे हुवे शब्द को चिरकाल तब संजोने की लिए गुण करी रचना करनी होती है। और उसके लिए पढंत लिख्यंत और स्वाध्याय जरुरी होती है। आज कितने लोग है जो अपनी रचना के अलावे दुसरे को पढ़ते हैं। बहुत ही कम लोग होंगे जो किसी की रचना पर अपनी राये लिख कर लेखक को भेजते हैं। कुछ करते है तो उनको लेखक की तरफ से कोई प्रतिक्रिया नहीं मिलती। यानि लेखक- पाठक के बीच के रिश्ते ख़त मेल सब कब के अर्थ हीन हो चुके हैं।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Saturday, January 9, 2010
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