कौशलेंद्र प्रपन्न
बस्ते के बोझ से ताउम्र लड़ने वाला एक विज्ञान पंड़ित अंतरिक्ष यात्रा पर निकल पड़ा। कहां जाएगा? कहां उसका ठौर होगा कहना मुश्किल है। लेकिन कहीं न कही,ं किसी न किसी जगह पर तो होगा। संभव है बस वो हमारी भौतिक आंखों से ओझल हो जाए। हमारे बीच जब तक रहा पूरी शिद्दत से विज्ञान और बच्चों की शिक्षा के लिए आवाज बलंद करता रहा। विभिन्न अकादमिक संस्थानों, समितियों में रहते हुए इन्होंने एक बेहतर शिक्षाविद् और वैज्ञानिक सोच के पैरोकार की तरह अपनी भूमिका निभाई।
स्कूली शिक्षा और बच्चे ख़ासकर इन्हें कभी भी भूल नहीं सकते। इन्होंने बच्चों के कंधे पर बस्ते के बोझ से कहीं ज्यादा पुस्तकीय बोझा को कम करने की वकालत की। शिक्षा के क्षेत्र में प्रो. यशपाल को कई मायने में याद किया जाएगा। इन्होंने यूजीसी, शैक्षिक समिति के चैयरमैंन रहते हुए शिक्षा को नए फलक तक ले जाने के प्रयास किए।
कक्षा में सवाल करने और सवाल करने की संस्कृति को हमेशा ही स्थान दिया। वो कहा करते थे यदि कक्षा में बच्चे सवाल नहीं करते तो इसका अर्थ है बच्चे पढ़ नहीं रहे बल्कि शिक्षकीय सत्ता के आगे नतमस्तक हैं। पॉले फ्रेरे के बरक्स चुप्पी की संस्कृति को तोड़ने के लिए यशपाल ने शिक्षा को बाल केंद्रीत करने की वकालत की। बच्चों को कक्षा में संवाद करने की स्थितियां कैसे मुहैया कराई जाएं इस ओर भी इसका ध्यान रहा।
चले तो गए विज्ञान पंड़ित लेकिन हमेशा हमारी किताबों और शैक्षिक विमर्शों में जज़्ब रहेंगे। ऐसे लोग कहीं नहीं जाते बल्कि सिर्फ रूप, रस,गंध, चेहरे बदल लेते हैं। दरअसल हमारी सोच और चिंतन के हिस्सा बन कर रहते हैं वैज्ञानिक, कलाकार, कलमकार। पिछले हप्ते अजीत कुमार चले गए। माना जाता है कि आधुनिक कविता के प्रख्यात अध्येता थे। कविता और आलोचना पर उनका ख़ासा पकड़ थी।
हमारे बीच से जब कोई कलमकार,वैज्ञानिक आदि जाते हैं तब उन्हें मीडिया में वो स्थान मयस्सर नहीं होती जो अभिनेताओं, राजनेताआें को हासिल होती है। बात तुलना की नहीं है बल्कि यह समझने की है कि सामान्य जीवन जीने वाले और हमारे बीच रहने वाले ऐसे लोग अभिनेता ही छवि बना कर भी नहीं रह सकते। यदि रहेंगे तो सार्वजनिक जीवन के चाक चिक्य में सृजन कब करेंगे। श्रीकांत वर्मा की पंक्ति है- ‘जो बचेगा वो कैसे रचेगा, जो रचेगा वो कैसे बचेगा’ रचनाकार सार्वजनिक जीवन में रिश्ते नाते निभाते हुए भी इन सब से विलग रहता है। कुछ लोग इसे अहंवादी, ऐकांतिक का नाम देते हैं। लेकिन यह कुछ हद तक ही सही प्रतीत होता है। ऐसे कलमकारों, चिंतकों, वैज्ञानिकों को उनके जाने के बाद कम से कम उनके कार्योंं को सार्वजनिक करने का जिम्मा मीडिया के कंधे पर तो आता ही है।
5 comments:
बहुत खुब।
कक्षा में सवाल करने और सवाल करने की संस्कृति को हमेशा ही स्थान दिया। अच्छा लगा।
प्रो. यशपाल को नमन
He used to host a show-"turning point"...Which actually was a turning point for me in learning and understanding the concepts of science...
आपने उत्तम शब्दों से दिल की बात कही।
सादर नमन
A great mentor
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