कौशलेंद्र प्रपन्न
काम है रास्ता दिखाना। काम है डांटना। डांटना है तो खीझ है। खीझ है तो कुढ़न है। हरेक की जिंदगी में एक बॉस हुआ करता है। वह घर हो या फिर दफतर। हर जगह हमें अपने बॉस का सामना तो करना ही होता है। कुछ बॉस हमें अपने पैरों पर खडे होने, चलने फिरने और अपनी सोच को बढ़ाने में मदद करते है। कुछ ऐसे भी होते हैं कि हमें वे पंगु बनाकर छोड़ देते हैं। हम गोया उन्हीं के पीए बन कर रह जाते हैं। हां कह सकते हैं कि जो बॉस के करीब होते हैं उन्हें कुछ समय के लिए कुछ छूटें मिल जाया करती हैं। लेकिन औरों की नजर में वे खटकने लगते हैं। लेकिन उनकी जिंदगी कुर्सी के कायम और बदलने तक बरकरार रहती है। उनके जाने के बाद या तो वे नई कुर्सी से करीबीयत बढ़ाते हैं या फिर उन्हीं के संग चले जाते हैं। चलें जाते हैं या उन्हें बॉस अपने साथ ही ले जाता है। क्या फर्क है?
कई बॉस रात बिरात, सोते जगते भी पीछा नहीं छोड़ते। उनका भय ऐसा होता है कि वे हमें कहीं भी चैन से जीने नहीं देते। इसे ऐसे भी समझें कि बॉस भी दो तीन किस्म के होते हैं। पहला वे जो जीवन और काम में आगे बढ़ने में मदद करते हैं। उसके बिना पर कुछ मांगते नहीं हैं। दूसरे जो आपके अंदर की प्रतिभा और दक्षता को और कुंठित कर देते हैं। आपके अंदर की शक्ति को कुंद करते चले जाते हैं। तीसरे वे जो निष्क्रिय भूमिका में होते हैं। जो यह नहीं चाहते कि कोई उनके सामने चुनौती पेश करे। कोई उनसे आगे निकले या पीछे रह जाए। उनका मकसद जॉब बजाना और समय काटना होता है।
हम सब के जीवन में उक्त तीन किस्म के बॉस के अलावा ऐसे बॉस से भी पाला पड़ा ही होगा जो जीवन में अहम भूमिका निभातें हैं। वे हमारे प्रोफेशनल सीमा से बाहर आकर जीवन जगत में शामिल हो जाते हैं वहीं ऐसे भी बॉस से साबका रहा ही होगा जो होते ही हमारी तमाम ताकतों, शक्तियों को सोख लेते हैं। वे परजीवी हुआ करते हैं। ऐसे बॉस से बचने की भी जरूरत होती है। जिन बॉस के सामने जाने से पहले हजार पर मरना पड़े वह बॉस न तो निजी जीवन के लिए बल्कि कंपनी के लिए भी हानिकारक होता है।
मैनेजमेंट और बाजार में कहा जाता है कि यदि कोई व्यक्ति बॉस की वजह से नौकरी छोड़ता है तो वह बॉस से ज्यादा कंपनी के लिए अहितकर होता है। एक अच्छे रिसोर्स बड़ी मुश्किल से मिलते हैं। जिन्हें पाने में हजारों लोगों में से चुनाव करना पड़ता है। और खोना बेहद आसान है। एक दिन में नोटिस दे दी जाती है।
तो मैं कह रहा था कि बॉस कई बार डांटने की मुद्रा में ही होता है। वह सोच कर आता है कि आज किसे किसे और किस स्तर पर डांटना ही है। इसकी पूरी कार्ययोजना तैयार की जाती है। ख़ास कर जब एप्रेजल का वक्त होता है तब बॉस साहिब खासकर तैयार किए जाते हैं कि कर्मचारी की मौरल स्तर इतना गिरा दो कि वह कुछ मांग ही न पाए। उसके कामों को इतना स्तरहीन साबित कर दो की वह नौकरी बचाने से आगे की सोच न पाए। हालांकि कई बार डांट भी दवाई की तरह काम करती है। लेकिन हर बार नहीं। हर काम में डांट फायदेमंद नहीं होता। जब बॉस सुनने के उच्च स्तर पर हो तो सुन लेना ही बेहतर होता है। इसे आप चुप्पा कहें, अवसरवादी कहें जो भी नाम दे लें लेकिन जब बॉस गुस्से में तैर रहा हो तब आपको बड़ी सावधानी से अपनी बात रखनी होती है। वरना आपका एक वाक्य आग में घी का काम कर सकता है।
तो प्रेम से बोलिए बॉस डांटाय नमः!!!
4 comments:
Very well written with humor and satire....
बढ़िया व्यंग्य।अब तुम्हारे लेखन में एक ठहराव देखने को मिल रहा हैं।यह एक सुखद संकेत हैं।
बधाई
लालित्य ललित
Very practical issues discussed here Sir! Very relevant in today's context.
Nice
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