सिमट गई कहन
अपनी खुशी भी बयां करते हैं
वाट्सएप के मार्फत,
ग़म ग़र हो कोई तो भी,
फेंक आते हैं
किसी सोशल प्लेटफॉम पर।
बजबजाते रहते हैं,
कुढते भी रहते हैं ख्ुदी में
न किसी से कुछ कहते हैं
न सुनते हैं किसी की,
बस मुंह फुलाए घूमते हैं।
ये कैसा दौर है बाबुजी
अकेले में चाहते हैं
किसी दूर ख़ाब को जीने की
चाह पूरी जीते हैं
मगर आकाशीय मंचों
रिश्तों में तलाशते हैं
कुछ पल सकून के,
कुछ चाहते जो रहती हैं दूर।
ये ऐसा ही दौर आया है बाबुजी,
न पास रहते जी पाते
न ही दूर ही रह सकते,
तो फिर कहीं दूर निकल जाते हैं,
एक सकून की तलाश में।
कहीं क्या जाएं,
कहते हैं
गरमी है
आज ज्यादा घर में ही रहें
सरदी है काफी
कहां जाएं
किसी से मिलने।
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