कौशलेंद्र प्रपन्न
फिल्में हर समाज और काल में आम जन को प्रभावित करती रही हैं। फिल्मों के सामाजिक दरकार भी समय और संदर्भ सापेक्ष बदलती रही हैं। राजा हरिश्चंद्र मूक फिल्मों से लेकर सवाक फिल्मों तक, ब्लैक एंड वाइट के लेकर डिजिटल फिल्मों तक के सफ़र में ठहर कर देखें तो पाएंगे कि समाज का प्रतिबिंब तत्कालीन फिल्मों में दिखाई देती हैं। आजादी पूर्व की फिल्मों के कथानक, परिवेश,संवाद आदि तत् संबंधी होती थीं। आजादी के बाद की फिल्मों के विषय, बोल, परिधान आदि भी बदले यह परिवर्तन भी लाजमी थी। महिलाओं की दृष्टि से फिल्मी जगत को समझने की कोशिश करें तो फिल्मों का एक बड़ा कालख्ंाड़ और भूमिका महिलाओं की स्थिति बदलाती हैं। एक दौर था जब फिल्मों में तथाकथित बड़े परिवार की लड़कियां नहीं आती थीं। बड़ी क्या आम घरों की महिलाओं को फिल्मों में अभिनय करने की आजादी नहीं थी। तब पुरुष ही महिलाओं की भूमिका किया करते थे। समय ने करवट ली और धीरे धीरे लड़कियों का आना फिल्मों शुरू हुआ। महिलाएं किस रूप में दाखि़ल हुईं यह भी एक दिलचस्प कहानी है। महज गाना गाने,ठुमका लगाने,मां या पत्नी की भूमिकाओं ने इन्हें चुना। सत्तर के दशक तक कथानकों में एक बड़ा परिवत्र्तन घटता है। महिलाएं आभूषण,वस्त्र आदि के आकर्षण से बाहर निकल अभिनय के समानांतर चुनौतियां देने लगीं।
अस्सी के दशक में अस्मिता पाटिल,शबाना आज़मी ने निश्चित ही यादगार अभिनय से अपनी पहचान बनाई। इन्होंने फिल्मों में महिलाओं की भूमिकाओं को तो रेखांकित किया ही साथ ही समाज में बढ़ रहे वर्चस्व को भी पर्दे पर उतारा। यदि फिल्मों के सामाजिक सरोकारों की ओर नजर डालें तो नाच गाने,मार-धाड़ से आगे निकल कर सामाजिक स्थितियों को भी पर्दे पर जी रही थीं। फिल्मों ने चाहते हुए भी हमारे समाज की चेतना को झकझोरना का काम किया है। समाज का एक बड़ी तबका जो जवान हो रहा था व कहें किशोर से युवा हो उन्हें ख़ासे प्रभावित किया। एक्शन हीरो से लेकर एग्री यंग मैन की छवि भी समाज में खूब चली। साथी दुखांत भूमिकाओं के लिए दिलीप कुमार,साधना,गुरुदत्त को आज भी हम भूल नहीं पाएं हैं। कहानियां और कहानियों को पर्दे पर जीवंत करने वाले कलाकारों की निजी जिंदगी जैसी भी रही हो किन्तु पर्दे पर उन्हें देखना दिलचस्प था। ठीक उसी तरह से महिलाओं की भूमिकाएं भी दिन प्रति दिन बदल रही थी जैसे आम जिंदगी में बदलाव घट रहे थे। परिवर्तन की सुगबुगाहटें महिला कलाकारों में भी दिखाई देने लगी थी।
स्त्री विमर्श की एक दुनिया समानांतर रची जा रही थी। सावित्री बा फुले महिला शिक्षा के लिए संघर्ष कर रही थीं। वहीं समाज में शिक्षा और महिलाओं की जागरूकता में तेजी आ रही थी। बच्चियां घरों से निकल कर स्कूल जाना शुरू कर चुकी थीं। धीरे धीरे ही सही लेकिन शिक्षा और स्व अधिकार की ललक भी महिलाओं में जगने लगी थी। यह एक संक्रमण काल था जिसमें महिलाएं अपने चैका बर्तन से बाहर दुआर पर निकलने की कोशिश कर रही थीं। यह दृश्य फिल्मों से ओझल नहीं था। क्योंकि फिल्मों की नजर से सामाजिक बदलाव छुपे नहीं रहे। एक ओर प्रेमचंद के उपन्यासों,कहानियों पर फिल्में बन रही थीं वहीं टैगोर की रचनाओं को भी फिल्मों में चुना जा रहा था। गैर भारतीय भाषाओं मे लिखी जा रही रचनाओं और कथानकों पर फिल्में बनीं। लेकिन गौरतलब है कि आजादी पूर्व की कथानकों और फिल्मों में महिलाओं को रूढ छवियों में बंधी नजर आती हैं।
नब्बे के दशक के अंत अंत तक फिल्मों के कथानक और महिलाओं की प्रस्तुतिकरण में काफी बदलाव हुए। नाच गाने और ठुमके लगाने से आग बढ़ कर बैंडेड क्वीन,एलओसी,डोर,पिंजर,लज्जा आदि फिल्में आईं जिसमें समाज में महिलाओं की स्थिति को प्रकारांतर चित्रित करती हैं। वहीं 2000 और 2010 के बाद स्त्री विमर्श को आगे बढ़ाती फिल्में भी आईं जो बाजार और महिलाओं के अंतर्संबंध को उदघाटित करती हैं। कार्पोरेट, पेज थ्री, चांदनी बार, एनएच 8,मेरीकाॅम,नीरजा आदि ऐसी फिल्में हैं जिसमें हमारे समाज की महिलाओं की उलझनों को भी पकड़ने की कोशिश करती हैं। बाजार किस तरह से महिलाओं को महज वस्तु व विज्ञापन की तरह देखती है इसका भी उदघाटन हमें कई फिल्मों में मिलता है। समाज में जैसे जैसे महिलाओं की भूमिकाएं बदली सवाक फिल्मों में अछूत कन्या, पाकीज़ा दोनों ही फिल्मों में महिलाएं रूढ़ वैचारिक समाज की प्रतिबद्धताओं से लड़ती हैं। एक ओर अछूत कन्या होने की वजह से ब्राह्मण लड़के से शादी नहीं कर पाती वहीं विवाहेत्तर विवाह की धारणा पर बनी फिल्मों का सिलसिला भी एक नई जमीन तैयार करती है। जख़्म, जिस्म, क्वीन काॅपोरेट जैसी फिल्में महिलाओं के प्रगतिशील सोच और समाज के बदलते मूल्यों को पकड़ने की कोशिश करती हैं। क्वीन अपनी इच्छा और स्त्री की सोच और निर्णय की आजादी की कहानी कहती है। वहीं डेढ इश्किायां, कहानी, राजनीति,मर्दानी,उर्टी पिक्चर,रिवाल्वर रानी, तनु वेड्स मनु रिटर्न्स आदि फिल्में हैं जिसमें महिलाएं अपनी जमीन पर खड़ी नजर आती हैं।
सन् 1985 और 2000 के बाद बनी फिल्में मंे रूढ़ कथानकों में काफी तेजी से बदलाव नजर आता है। जहां अछूत, बाल विवाह, समाज के मुख्य धारा से कटी महिलाएं समाज के झंझावातों में अपनी भूमिका निभाती दिखाई देती हैं। मेरी काॅम, पीकू, एनएच 8, कहानी फिल्मों की नायिकाएं अपपी उपस्थिति को मजबूती के साथ स्थापित करती हैं। यह समाज में महिलाओं के साथ हो रहे बड़े बदलाव और सोच को आईना दिखाने वाली फिल्मों में साफ तौर से स्त्री अधिकार और वर्चस्व की कहानी पढ़ी और देखी जा सकती है। यदि पीकू और मेरी काॅम के कथानक को देखें तो एक लड़की अपने घर में पिता,पति को संभालते हुए दफ्तर भी जाती है। दो समानांतर चलने वाली भूमिकाओं और जिम्मेदारियों को निभाती लड़कियां नजर आती हैं। यह साबित करता है कि फिल्मों में कई बार समाज में घटने वाली हकीकतों को स्थान तो मिलता ही है और कई बार फिल्मों में चित्रित कथानक को देख समाज में युवा पीढ़ी कदम उठाती है। हाल ही में नोएडा से लापता दूसरे शब्दों में अपहृत लड़की ने कबूल किया क्राइम पेटोल देख कर उसने अपनी अपहरण की कहानी रच डाली। यह बताता है कि समाज और फिल्मों के संबंध बड़ी करीब के रहे हैं। दोनों ही एक दूसरे को गहरे प्रभावित करते रहे हैं। कई बार नागर समाज जब फिल्मों पर आरोप लगाता है कि फिल्मांे की वजह से समाज में अपराध,विवाहेत्तर संबंध, हत्याएं आदि बढ़ रह हैं। बच्चे फिल्मों को देखकर बिगड़ रहे हैं आदि। इस पर निर्देशकों को अपना तर्कशास्त्र है कि समाज यानी दर्शक जो देखना पसंद करता है हम उसे ही दिखाते हैं। अब सवाल उठ सकता है कि वो किन वर्गों के दर्शकों को इसमें शामिल कर रहे हैं। क्या सचमुच समाज और दर्शक हिंसा, बालात्कार देखना चाहता है या फिर आरोपित तर्कजाल हैं?
फिल्मों का समाजशास्त्र तो यह कहता है कि फिल्में मनोरंजन और विचारों को परिमार्जन में एक साधन बनें। लेकिन परेशानी यही है कि मनोरंजन के पैमाने और परिमार्जन के आधार तत्व कौन तय करेगा। क्या समाज के कुछ वर्ग और विचार के कुनबे इसे तय करेंगे कि कौन सी फिल्म समाज में दिखाई जाए और कौन सी फिल्म समाज की समरसता को तोड़ने वाले हैं। यहां यह सवाधानी बरतनी पड़ेगी कि वो कौन सा धड़ा है जो फिल्मों पर प्रतिबंध की मांग करता है? वो कौन सा वर्ग है जो मूल्यांे और नैतिकताओं की दुहाई देकर तोड़ फोड़ करता है। उसकी पहचान भी नितांत आवश्यक है। यही वजह है कि कई फिल्में कानूनी जालों में उलझकर आज तक दर्शकों के बीच नहीं आईं। या आईं भी तो विवादों का दरिया पार कर आईं। वाटर, फायर आदि फिल्मों पर हो हल्ला मचा यह सभी को याद होगा लेकिन प्रश्न उठता है कि यदि समाज का दपर्ण फिल्मों को मानते हैं तो समाज में घटने वाली घटनाओं को चित्रित करने मंे यदि ज़रा सी मर्यादा रखकर दिखाई जा रही है तो उसे स्वीकारें मंे क्या हर्ज है।
आंधी फिल्म की नायिका का राजनीति में वर्चस्व स्थापित करना क्या प्रकारांतर से समाज में बदलते राजनीति समीकरणों को उद्घाटित नहीं करता? क्या राजनीति, सरकार, गंगाजल नई वाली में स्त्री के उस स्वरूप को दिखाने की कोशिश नहीं है जहां महिलाएं चैके से बाहर निकल राजनीति में अपना हाथ आजमा रही हैं। एनएच 8 की गांव की महिला स्वयं अपनी बेटी को मरवा देती है तो यह क्या आकाशीय कथानक है या हमारे ही राज्यों में ऐसी घटनाओं को अंजाम नहीं दिया जा रहा है। यदि रांझना की नायिका की ओर नजर डालें तो वह एक क्रांतिचेत्ता और अपनी निजी खुन्नस निकालने के लिए नायक को नस्तनाबूत कर देती है। वहीं बाजीराव मस्तानी में भी एक महिला किस तरह से मुस्लिम बहु को मरवाने में पूरी ताकत लगा देती है इसकी झलकी मिलती है।
समग्रता में देखें और फिल्मों में चित्रित महिलाओं की भूमिका को समझने की कोशिश करें तो पाएंगे कि समय और कालखंड़ के अनुसार कथानक और प्रस्तुतिकरण में काफी बदलाव आया है। यहां तक की समाज की घटनाएं किस तरह से रूपहले पर्दे पर स्थान लेती हैं वह भी देखना दिलचस्प है। अछूत कन्या से लेकर वाटर, फायर, कहानी, एनएच 8 और क्वीन तक का सफ़र करती महिलाओं की छवियां रूढ़ भूमिकाओं को धत्ता बताती हुई नई सोच और वैचारिक बदलाव को ओढ़ चुकी हैं।
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