कौशलेंद्र प्रपन्न
‘‘हम तो नाम के शिक्षक हैं। पढ़ाने से हमारा दूर दूर का कोई वास्ता
नहीं है। पिछले एक माह से हम बच्चों के आधार कार्ड, बैंक
एकाउंट, राशन कार्ड और बैंक एकाउंट को आधार कार्ड से जोड़ने का काम कर रहे
हैं। सच पूछा जाए तो पढ़ाने का तो मौका ही नहीं मिलता। हमारे अधिकारी भी विजिट पर
आते हैं तो वे आधार कार्ड, बैंक एकाउंट आदि बने या नहीं चेक करते हैं।’’ एक
शिक्षिका ही नहीं बल्कि दिल्ली और दिल्ली के बाहर के शिक्षकों का भी लगभग यही कहना
हो सकता है। इन पंक्तियों में कहीं कोई मिलावट काट छांट नहीं की गई है ताकि पाठकों
को हकीकत से रू ब रू होने का मौका मिले। गौरतलब है कि इन बातों को कहने का मौका
पांच अक्टूबर ही क्यां चुना गया। दरअसल यह तारीख अंतरराष्टीय शिक्षक दिवस के रूप
में मनाया जाता है। इस असवर पर भारतीय शिक्षकों की स्थिति की दिशा क्या है इस पर
ठहर कर विचार किया जा सके।
समय और चुनौतियों के संदर्भ में समझने की
कोशिश करें तो आजादी के बाद जितनी भी शैक्षिक समितियों को गठन किया गया उनमें
शिक्षकों के पक्ष को मजबूती से नहीं उठाया गया। यदि शिक्षकों की बात उठाई गई है तो
वह बेहद लचर तरीके से। इसका परिणाम यह हुआ कि शिक्षा में तो भी जहां कोई कमी दिखी
उसके लिए शिक्षकों के गर्दन पकड़े गए। शिक्षक वह जीव होता है जिसकी आत्मा
अधिकारियों में बसती है। अधिकारी जब चाहें उसकी गर्दन मरोड़ सकते हैं। जिन
पंक्तियों के सहारे बात शुरू की गई थी उससे ने केवल शिक्षक बल्कि अधिकारी, शिक्षक
नीति निर्माता भी सहमत होंगे। आधार कार्ड, बैंक
एकाउंट आदि के अलावा भी कई काम शिक्षकों से कराए जाते हैं जिन्हें डाइस अपनी
रिपोर्ट में हर साल छापा करता है। उन पर नजर डालने पर दिन तो सोलह, सतरह, बीस
दिन ही नजर आते हैं लेकिन हकीकत कुछ और ही बयां करती है।अव्वल तो स्कूलों में
आरटीई के अनुसार पर्याप्त शिक्षक तक मयस्सर नहीं हैं जो हैं वे अन्य कामों में जोत
दिए गए हैं। उसपर तुर्रा यह कि शिक्षक पढ़ाना नहीं चाहते।
सच यह है कि शिक्षक तो पढ़ाना चाहता है
किन्तु उसे व्यवस्था/अधिकारियों की आदेश नहीं पढ़ाने पर मजबूर करते हैं। एक शिक्षक
पर चौरतरफा दबाव है। शैक्षिक गुणवत्ता को बरकरार रखे, गैर
शैक्षणिक कार्यों को भी अंजाम दे,
सैलरी भी समय पर न मांगे आदि। जो लोग
शुद्ध रूप से पढ़ाने का मन बनाकर इस पेशे में आए थे वे बेहद निराशा से भर गए हैं।
उन्हें इस मनोदशा से निकालना अधिकारियों का पहला काम होना चाहिए। केवल पारंपरिक
कार्यशालाओं, सेमिनारों में बैठाकर भाषण, नैतिकता
पीलाने की बजाए हकीकत से कैसे सामना किया जाए इसकी क्षमता विकास करने की आवश्यकता
है।
कार्यशाला के नाम पर दिल्ली में इसी मई
जून माह में नैतिक शिक्षा, जीवन कौशल जैसे दार्शनिक और आत्मिक विकास वाले मुद्दे पर टीजीटी
शिक्षकां को प्रशिक्षित किया गया। लेकिन जब एक छात्र ने हाल ही में परीक्षा में न
बैठे दिए जाने पर शिक्षक को चाकू से गोद कर मार देता है तो ऐसी स्थिति से कैसे
निपटा जाए इसकी तालीम देने की आवश्यकता है। विषयवार भी कार्यशालाएं होती हैं इससे
इंकार नहीं किया जा सकता। लेकिन जिस तरीके से इन कार्यशालाओं में विषय के साथ
बरताव किया जाता है वह काफी शोचनीय है।
अंतरराष्टीय स्तर पर शिक्षकों की स्थिति
को देखें तो भारतीय संदर्भ आंखों में किरकिरी की तरह गड़ने लगता है। क्योंकि जिस
देश समाज में शिक्षा को अधिकार बनाने में सौ लगे ऐसे मे बच्चों की शिक्षा की
स्थ्ति को सुधारने में पच्चास साल तो लगेंगे ही। हाल में ग्लोबन एजूकेशन
मोनिंटरिंग रिपोर्ट 2016 में जिक्र किया गया है कि भारत में अभी सभी के लिए शिक्षा का
सपना सपना ही है। इसे पूरा होने में कम से कम 2050
तक इंतजार करना होगा। भारत ने इएफए के लक्ष्य को पीछे 2000, 2010,2015 तीन बार से हासिल नहीं कर पाया है। अब नई तारीख की घोषणा भी हो
चुकी है 2030 तक हम सभी बच्चों को बुनियादी शिक्षा प्रदान कर देंगे।
हम जिनके कंधों पर सवार होकर यह लक्ष्य
पाने की इच्छा रख रहे हैं उन कंधों की पहचान भी कर लेनी चाहिए। देश में नब्बे के
दशक में तदर्थ, शिक्षा मित्र, पैरा टीचर के नाम से एक नई प्रजाति को जन्म दिया गया। ये वे
प्रजातियां थीं जिन्हें कम पगार, कम शैक्षिक योग्यता पर भी कक्षा में धकेला गया। जो आज बतौर जारी
है। इससे इंकार नहीं कर सकते कि स्थानीय युवाओं को रोजगार के अवसर मिले। लेकिन
शिक्षा जैसे गंभीर मसले को गै प्रशिक्षित, बारहवीं
व बी ए पास युवाओं के भरोसे से छोड़ सकते। आज देश के अन्य राज्यों में एकल शिक्षक
स्कूल चल रहे हैं। कई तो स्कूल ऐसे भी हैं जहां स्थाइ्र शिक्षक दो और बाकी तदर्थ
यानी अस्थाई तौर पर पढ़ा रहे हैं। सरकारी स्कूलों के समानांतर निजी स्कूलों का जाल
फैलता जा रहा है।गांव देहात, गली मुहल्ले में निजी स्कूलों का ख्ुलना और उन्हें आिर्थ्ाक मदद
पहुंचाने में स्थानीय निकायों के हाथ होने से इंकार नहीं किया जा सकता।
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