कौशलेंद्र प्रपन्न
मंजूल संयोग ही माना जाएगा कि शिक्षा
पर हमपेशा सुश्री ऋतु बाला और श्री राघवेंद्र प्रपन्न ने शिक्षा के नाम पर और
ज्ञान का शिक्षण शास्त्र पुस्तकें शिक्षा जगत को दिए हैं। इन दोनों ही पुस्तकों के
लेखकद्वय सुश्री ऋतु बाला और राघवेंद्र प्रपन्न निश्चित ही बधाई के पात्र हैं।
क्योंकि इन दोनों ने शिक्षा में पिछले दो दशकों से होने वाली हलचलों को ठहर कर
पकड़ने और समझने के लिए विभिन्न दस्तावेजों और अध्ययनों को अपनी इन किताबों में
शामिल किया है। लेखकद्वय ने शैक्षिक जगत से संबद्ध विभिन्न दस्तावेजों एवं
अंतरराष्टीय-राष्टीय दबावों और आर्थिकी पहलुओं की परतों को खोलने का प्रयास भी
किया है। शिक्षा के नाम पर आजादी से पूर्व और आजादी के बाद कितना और किस स्तर के
काम हुए हैं यह जानना अपने आप में बहुत ही दिलचस्प होगा। शिक्षा के छात्र और
शिक्षा में दिलचस्पी रखने वालों के लिए शिक्षा का इतिहास और राजनीति काफी रूचिकर
और रहस्यमय भी रहा है। रहस्यमय इसलिए क्योंकि राजनीति शिक्षा में हस्तक्षेप कर
शिक्षा की धार को कुंद करने की ताकत रखती है और इस ताकत को शिक्षा पर आजमाती भी
रही है यह समझना जरा मुश्किल काम है। हमें पाठ्यपुस्तकों,पाठ्यचर्याओं और
पाठ्यक्रमों के निर्माण प्रक्रिया को किस प्रकार राजनीतिक हस्तक्षेप शिक्षा के
उद्देश्य को भ्रमित करती है इसकी झलक हमें ज्ञान का शिक्षा शास्त्र पुस्तक के पहले
पाठ में मिलता है। ‘‘भारतीय स्कूली शिक्षा के संदर्भ में सामाजिक विज्ञान के विमर्श की
शिक्षा शास्त्रीय विवेचना’’ पाठ में विज्ञान की किताबों में किस
तरह सन् 2000, 2002 में पाठ्यपुस्तकों एवं पाठ्यचर्याओं को एक विशेष विचारधारा ने अपनी
वैचारिक विस्तार के लिए किताबों को औजार के तौर पर इस्तमाल किया इसकी झांकी
सप्रमाण मिलती है। बतौर इसी पाठ से एक और उदाहरण प्रस्तुत है - ‘‘समाज
विज्ञान के पाठ्यक्रम सन् 1988 से सन् 2001 के पाठ्यक्रम
का मिलान करने पर यह साफ हो जाता है कि पाठ्यपुस्तकों की यह दुर्दशा महज संयोग,
असावधानी
तथा गैरजानकारी का परिणाम नहीं है बल्कि सन् 2002 का पाठ्यक्रम
सैद्धांतिकतौर पर ही इस बात को मान्यता नहीं देगा कि विद्यार्थी, समाजविज्ञान
को समाजशास्त्रीय पद्धति से पढ़ सके।’’
हम राजनीति को शिक्षा से अलगाकर शिक्षा
की प्रकृति को समझने का दावा कर सकते हैं। सर्वांगीण शैक्षिक समझ की वकालत तभी
संभव है जब हम शिक्षा की सामाजिक,राजनीति, परिवेशीय एवं
आर्थिक भूगोल को अपनी नजरों से गुजारें और उन तमाम पहलकदमियों,हलचलों
को समझने का प्रयास करें जिसे हम इतिहास के हिस्से डाल देते हैं। शैक्षिक जगत का
भूगोल भी रोजदिन न सही किन्तु गतिमान तो है ही। परिवर्तन की प्रक्रिया यहां भी
घटित हो रही है। शैक्षिक भौगोलिक जमीन भी तेजी से खिसक रही है लेकिन क्योंकि हम
गति में हैं इसलिए उन परिवर्तनों से नवाकिफ हैं। जिनका परिणाम आज नहीं बल्कि दस
बीस साल बाद हमारी पीढ़ी को भुगतनी होगी। तक्सीम के तकरीबन सत्तर साल बाद भी शिक्षा
का चरित्र संदिग्ध ही रहा है। शिक्षा किसके लिए, किसके द्वारा,
किसको
दिया जा रहा है इस गुत्थी को सुलझाने में हम असफल रहे हैं।
शैक्षिक वैश्विकरण,उदारीकरण,
नव
उदावाद, बाजारीकरण के दौर में हमें शिक्षा की प्रकृति को समझना बेहद जरूरी
है। न केवल शैक्षिक इतिहास बल्कि शिक्षा-समाज, शैक्षिक-राजनीति,
शैक्षिक
आर्थिकी को भी समझने का प्रयास करना होगा तभी हम वर्तमान की शैक्षिक चरित्र और
प्रकृति को कोसने की बजाए शिक्षा से जुड़े उन तमाम घटकों को सुधारने की बात करेंगे
जिन्होंने शिक्षा को गढ़ने में अहम भूमिका निभाई है। दूसरे शब्दों में कहें तो
शिक्षा के इतिहास, समाज, चरित्र, वैश्विक बुनावट को समझना होगा।
शिक्षा के नाम पर और ज्ञान का शिक्षा
शास्त्र पुस्तकों का स्वागत होना चाहिए क्योंकि इन दो किताबों में लेखकद्वय
राघवेंद्र प्रपन्न और ऋतु बाला ने बड़़ी ही शिद्दत से शिक्षा के वर्तमान, इतिहास
एवं समाज से टकराने और खरोंच मारने की कोशिश करते हैं।
शिक्षा की मुख्यधारा में किस तरह से
शैक्षिक चरित्र निर्धारित करने वाले नीतिकारों और राजनीतिकों ने शैक्षिक विमर्श और
पाठ्यपुस्तकों से वंचितों, दलितों,अनुचित जाति और
जनजातियों को हाशिए पर रखा इस अंधेरे कोने की ओर ऋतु बाला द्वारा लिखित आलेख पाठ ‘‘स्कूली
पाठ्यपुस्तकों में दलित-वंचित वर्ग की छवि’’ में विस्तार से चर्चा मिलती है कि किस
प्रकार हमारे पाठ्यपुस्तकों में दलितों, वंचित वर्गों को पढ़ाया जाता है और उससे
बच्चों में किस प्रकार की छवियां बनती हैं। लेखिका ने देश के चार राज्यों बिहार,
राजस्थान,
हरियाणा
और दिल्ली के हिन्दी की किताबों में वर्णित वंचितों और अनुसूचित जाति और जनजातियां
की छवियां को उभारने वाले चित्रों का विश्लेषण किया है जो आंखें खोलने वाला अध्ययन
है। बतौर लेखिका- ‘‘ चार राज्यों की 16 पाठ्यपुस्तकों का अध्ययन इस निष्कर्ष
पर पहुंचाता है कि अनुसूचित जनजाति का एक भी महिला अथवा पुरुष पात्र ऐसा नहीं है
जिसकी चर्चा समूह तथा जनजाति विशेष से हटकर एक व्यक्तित्व के रूप में की गई है।
जबकि आदिवासी समाज में कई ऐसे ऐतिहासिक चरित्र हुए हैं जो चर्चित भी रहे हैं तथा
आज भी जीवंत हैं मसलन- अकेले बिहार के रांची जिले में 1789 से 1920-21 तक तकरीबन छः
चर्चित विद्रोह हुए हैं। परंतु इनका जिक्र तक अध्ययन में शामिल बिहार की
पाठ्यपुस्तकों में नहीं मिलता।’’ ऋतु
बाला इसी पाठ में आगे लिखती हैं कि चार राज्यों की 16 पाठ्यपुस्तकों ;
कक्षा
6 से 8 हिन्दी विषयद्ध के 2268
पृष्ठों में अनुसूचित जाति तथा अनुसूचित जनजाति की कुल हिस्सेदारी 71
पृष्ठों की पायी गई। एक और ध्यान खींचने वाले तथ्य की ओर खींचती हुई ऋतुबाला लिखती
हैं कि इन चार राज्यों की हिन्दी की सोलह पाठ्यपुस्तकों में अंबेडकर के कुल तीन
चित्र हैं। जिसमें इन्हें वकील की पोशाक
में दिखाया गया हैं कोई बिंब, चिह्न प्रतीक व वाक्यांश ऐसा नहीं है
जो बतला सके कि ये अनुसूचित जाति से संबंधित हैं। ऋतुबाला एप्पल की स्थापना को कोट
करते हुए लिखती हैं कि महिलाओं तथा अल्पसंख्यकों की विश्वदृष्टि क्या है इसकी कोई
ठोस विवेचना किए बगैर ही पाठ्यपुस्तकों में महिलाआें और अल्पसंख्यकों के योगदान को
सीमित कर दिया जाता है। लेखिका बड़ी ही शिद्दत से अल्पसंख्यकों, अनुसूचित
जनजातियों आदि की छवियों की पड़ताल इस पाठ में करती हैं। उन्होंने अपने ही अध्ययन
के हवाले से हम नागर समाज का ध्यान उस तथ्य की ओर भी खींचा हैं कि हमारी
पाठ्यपुस्तकें ही हद तक इन वंचितों के हित और सकारात्मक छवि निर्माण में मददगार
साबित होती हैं या फिर छवि भंजक की भूमिका निभाती हैं।
राघवेंद्र प्रपन्न ‘‘भाषा
की शिक्षा शास्त्रीय मीमांसा’’ पाठ में विस्तार से चर्चा करते हैं कि किस प्रकार 1988, 2000 और
2005 की भाषायी विमर्श और स्थापनाओं में बुनियादी अंतर देखने को मिलता
है। इससे हमें भाषायी शिक्षा के शैक्षिक दर्शन की झलक मिलती है। जहां एक ओर 1988 की
भाषायी शिक्षा की नीति लगभग एक धरातल पर नजर आती है वहीं 2000 की
भाषायी स्थापना में बुनियादी फांक नजर आता है। मसलन 2000 की पाठ्यचर्या
स्पष्ट मानती है ‘‘ प्राथमिक स्तर के प्रथम दो वर्षों में बच्चों को सुनना,बोलना,पढ़ना
और लिखना और सेचने जैसे मूल कौशलों को विकसित करने में मदद करनी होगी।उच्चारण के
निर्धारित मानकों के अनुसार मानकीकरण की प्रकिया पर भी विशेष ध्यान देना होगा।’’
वहीं
लेखक 2005 की पाठ्यचर्या के हवाले से कहते हैं ‘‘ कक्षा 3 के बाद मौखिक
और लिखित माध्यमों को उच्च स्तरीय संवाद कौशल और आलोचनात्मक चिंतन के विकास के
प्रयास हों।’’ राघवेंद्र प्रपन्न इसी पाठ में अन्य लेखकीय विचारों और भाषायी
मान्यताओं को भी संदर्भित करते हैं। जेम्स ब्रिटेन की पंक्तियां उद्धृत करते हुए
लिखते हैं-‘‘ आरम्भिक वर्षों में बोलने, प्रतिक्रिया करने,विविध
तरीकों से अभिव्यक्त करने के मौके भाषा विकास के लिए महत्वपूर्ण बुनियादी आधार है
न कि मानकीकृत भाषा के अनुसार वर्तनी एवं भाषा सुधार।’’ इस तरह से लेखक विभिन्न भाषासमालोचकों
भाषाविद्ों के हवाले से विभिन्न पाठ्यचर्याओं में भाषायी दृष्टि और शिक्षा
स्थापनों के अंतरों को रेखांकित करने का प्रयास करता है। विभिन्न हिन्दी के
पाठ्यपुस्तकों की शिक्षा शास्त्र एवं हकीकतों की ओर ध्यान दिलाते हुए उदाहरणों
सहित इस तथ्य की स्थापना करता है कि भाषायी शिक्षा घंटी बदलू तर्ज पर हो रही हैं।
वहीं ऋतु बाला अपनी सुदीर्घ पाठ ‘‘भारतीय
शिक्षा-अधिगम प्रक्रिया में संपूर्ण सामाजिक-सांस्कृतिक संदर्भ का महत्व’’ में
विस्तार से बच्चों की सीखने की प्रक्रिया की चर्चा करती हैं। इस संदर्भ में भारतीय
परिवेश की चर्चा तो करती हैं ही हैं। साथ ही विदेशी िंचंतकों को भी बेहतर तरीके से
संदर्भगत कोट करती हैं मसलन वाडगाट्स्की के उपागम को रेखांकित करते हुए लिखती हैं
कि ‘‘बच्चा जिन सामाजिक परिस्थितियों में विकसित होता है वह न केवल जटिल
मनोवैज्ञानिक प्रक्रियाओं की विषयवस्तु बल्कि उसके तंत्र पर भी अपना चिह्न
अनिवार्य रूप से छोड़ता है।’’
अब हम दूसरी किताब शिक्षा के नाम पर
नजर डालें तो पाएंगे कि लेखकद्वय ऋतुबाल और राघवेंद्र प्रपन्न ने शिक्षा जगत में
घटने वाली घटनाओं को केंद्र में लाते हैं। समय समय पर शिक्षा में कब और किस तरह की
करवटें घटी हैं इसकी सुगबुगाहटों को इस किताब में सुना जा सकता है। शिक्षा के नाम
पर किताब में तकरीबन चालीस निबंधों को शामिल किया गया है। इन निबंधों को समय समय
पर विभिन्न शैक्षिक परिघटनाओं पर सामयिक टिप्पणियों के तौर पर की गई हैं जिसे
किताब के रूप में लाने से पहले पुनर्पाठ के तौर पर प्रस्तुत किया गया है। इन लेखों
को विभिन्न अखबारों की प्रकृति को ध्यान में रखते हुए लिखी गई हैं। इसलिए स्थान और
समय को ध्यान में रखते हुए कायिकतौर पर छोटे आकार में देखे जा सकते हैं। लेकिन
आकार में छोटा होने का अर्थ यह नहीं हैं कि कहीं भी किसी कोण से कमतर हों। हालांकि
लेखकद्वय की पहली पुस्तक ज्ञान का शिक्षण शास्त्र ज्ञान निर्माण और शैक्षिक
अकादमिक विमर्शों को शामिल करने की वजह से पाठों की लंबाई विस्तार की दृष्टि से
पाठकों को ठहर कर पढ़ना होगा। लेकिन शिक्षा के नाम पर किताब में स्वतंत्र रूप से
लिखे गए लेखों को अलग अलग कर भी पढ़ सकते हैं। ऋतु बाला अपनं लेख तुम्हारा तो हो
जाएगा में लिखती हैं कि किस तरह से समाज में लडकियों उसमें भी अनुसूचित जाति के
होने के नाते आरक्षण के व्यंग्यबाण सुनने होते हैं। इसके पीछे की मानसिकता क्ी
परतें खोलते हुए लिखती हैं कि शिक्षण संस्थाएं अपने सामाजिक सरोकारों के लिहाज से
विकास के हाशिए पर खडे लोगों के लिए न्यूनतम संवेदना विकसित करने में असफल रही
हैं। ऋतु बाला पाठ्यपुस्तकों कें अंबेडकर में लिखती हैं कि किस प्रकार हमारे
पाठ्यपुस्तकों में अंबेडकर की छवि को उकेरी गई हैं।
वहीं राघवेंद्र प्रपन्न का लेख शिक्षक
और छात्र का रिश्ता एक अप्रत्यक्ष शैक्षिक सत्ता की ओर पाठकों का ध्यान खींचते
हैं। जब बच्चा कहता है कि फिर आपको पता ही
क्या हैं ? इस पर शिक्षकीय सत्ता बाहर आता है कि तुम मेरा अकादमिक रिकार्ड जानते
हो? मैंने कहां कहां से पढ़ाई की? किस तरह से शिक्षक हमेशा अपनी सत्ता
बच्चों से अलग रखने का प्रयास करता है और जब कोई छात्र इस सत्ता पर सवाल उठता है
तब शिक्षक बौखला उठता हैं।
इस भारतीयता से अनजान पाठ में
राघवेंद्र प्रपन्न लिखते हैं कि किस प्रकार हिन्दी के नागार्जुन, त्रिलोचन
जैसे लेखक स्कूली शिक्षण से बाहर हैं। शिक्षकों को यदि कोई चिंता होती है तो बस
पाठ को पूरा कराना है। नागार्जुन के देहांत पर सुबह की सभा में कैसे सभी मौन हैं
और उन कवि से अपरिचित हैं शिक्षक समाज इस ओर ठहर कर लेखक विचार करते हैं। साथ ही
किस तरह की भारतीयता का परिचय हमारा पाठ्यपुस्तक करा रहा है। इसकी झलक भी हमें
मिलती हैं।
पूर्वग्रहों के पाठ में ऋतु बाला
दलितों, वंचितों के समाज को कैसे पाठ्यपुस्तकों से सोची समझी रणनीति के तहत
बाहर किया गया है इस तरफ एक समझ का झरोखा खोलती हैं। विभिन्न हिन्दी के
पाठ्यपुस्तकों में कितना प्रतिशत स्थान दलितों, वंचितां को मिला
हैं इस ओर पाठकों को अध्ययन की प्राप्ति से रू ब रू होने का मौका मिलता हैं।
शिक्षा के नाम पर पुस्तक में हालांकि
प्रथम लेखिका ऋतु बाला और दूसरे स्थान पर राघवेंद्र प्रपन्न का नाम है। लेकिन
लेखों के अनुपात पर नजर डालें तो एक विषमता यहां भी दिखाई देती है। जहां राघवेंद्र
प्रपन्न के लेखो की संख्या 29 के आस पास है वहीं ऋतु बाला जी के
लेखों की संख्या बीस से भी कम हैं। क्या ऐसा सोच समझ कर किया गया या फिर अनजाने
में ऐसा हुआ लेकिन यह बात अखरती है कि इस किताब की प्रथम लेखिका ऋतुबाला जी के ही
लेखों की संख्सा कम हैं। हालांकि संख्या से ज्यादा गुणवत्ता की बात की जाए तो इनके
लेख कई दूसरे लेखों पर भारी दिखाई देते हैं।
जहां तक किताब की भाषा और शैली की बात
करें तो यथा नाम तथा भाषा कहना उचित लगता हैं। क्योंकि शिक्षा के दार्शनिक और
सामाजिक चरित्र की विवेचना काव्य भाषा में नहीं हो सकती। पाठकों को इसके लिए
भाषायी तौर पर भी खुद को तैयार करना होगा। इतना ही नहीं बल्कि शिक्षा की गहरी समझ
पाने के लिए विभिन्न दस्तावेजों, किताबों, उदाहरणों को
समझने के लिए समय भी निकाल कर पढ़ना होगा। भाषा गंभीर और सामान्य से हटकर भी
मिलेंगी। खासकर जब ज्ञान का शिक्षणशास्त्र पुस्तक से गुजरेंगे। वहीं शिक्षा के नाम
पर किताब की भाषा और वाक्य विन्यास साधारण और अखबारी हैं। वहीं ज्ञान का शिक्षण
शास्त्र की भाषा पूरी तरह से अकादमिक हिन्दी मानी जाएगी।
और अंत में शिक्षा के नाम पर और ज्ञान
का शिक्षण शास्त्र दोनों ही किताबें अपनी अपनी प्रकृति के अनुसार अलहदा हैं। दोनों
के केंटेंट और प्रस्तुति भी भिन्न हैं। लेकिन शिक्षा में दिलचस्पी रखने वालों के
लिए यह दो किताबें शिक्षा की दुनिया में प्रवेश द्वार के तौर पर काम आ सकने की
क्षमता रखती हैं।
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