साहित्य की अच्छी और बेहतर समझ विकसित करने के लिए हमें साहित्य की भी शिक्षा पर विचार करना होगा। साहित्य की शिक्षा को महज कक्षाओं में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों और पाठ्यपुस्तकीय कविता, कहानी, उपन्यास से निजात दिलाना होगा। साहित्य की सलीके से तालीम की आवश्यकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि साहित्य की विधिवत् शिक्षण-प्रशिक्षण की रूपरेखा तैयार करने होंगे। साहित्य की तमाम विधाओं में महज लेखन को साहित्य की शिक्षा का नाम नहीं दे सकते। कविता,कहानी, उपन्यास को पढ़ने और समझ कौशल विकास के लिए हमें विभिन्न कार्यशालाओं की मदद लेनी पड़ेगी। यहां विमर्श का मुद्दा यह है कि जिस तरह से बीए व एम ए की कक्षाओं में साहित्य की समझ विकसित की जाती है वह पर्याप्त नहीं माना जा सकता। कविता व कहानी लिखना और साहित्य की शिक्षा दो अलग अलग चीजें हैं। पाठ्क्रमों में साहित्य को पढ़ना और स्वतंत्र रूप से समीक्षीय दृष्टि से रचना को पढ़ना दो बातें हैं। एक पर्चा पास करने की दृष्टि से पढ़ी जाती है और दूसरा अपनी समझ विकसित करने और आलोचकीय नजरिया पैदा करने की लिहाज से रचना को पढ़ी जाती है। अमूमन देखा यही गया है कि पारंपरिक पाठ्यक्रमों में रचनाओं की व्याख्याएं एक खास सीमा में बंधी रह जाती हैं। कबीर, सूरदास, तुलसी को बीए व एम ए के पाठ्यक्रम में पढ़ना और बाद में समीक्षा की नजर से पढ़ने में खासे अंतर पाया जाता है। दरअसल साहित्य को पढ़ने की तालीम ही नहीं दी जाती। यदि कुछ दी जाती है तो वह है परीक्षा पास कैसे करें। आज भी साहित्य में अधिकांश ऐसे विद्यार्थियेां की कमी नहीं है जो साहित्य के पर्चे देने के बाद भूल जाते हैं कि उन्होंने कौन कौन सी किताबंे व रचनाएं पढ़ीं।
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Tuesday, July 28, 2015
साहित्य की शिक्षा
साहित्य की अच्छी और बेहतर समझ विकसित करने के लिए हमें साहित्य की भी शिक्षा पर विचार करना होगा। साहित्य की शिक्षा को महज कक्षाओं में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों और पाठ्यपुस्तकीय कविता, कहानी, उपन्यास से निजात दिलाना होगा। साहित्य की सलीके से तालीम की आवश्यकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि साहित्य की विधिवत् शिक्षण-प्रशिक्षण की रूपरेखा तैयार करने होंगे। साहित्य की तमाम विधाओं में महज लेखन को साहित्य की शिक्षा का नाम नहीं दे सकते। कविता,कहानी, उपन्यास को पढ़ने और समझ कौशल विकास के लिए हमें विभिन्न कार्यशालाओं की मदद लेनी पड़ेगी। यहां विमर्श का मुद्दा यह है कि जिस तरह से बीए व एम ए की कक्षाओं में साहित्य की समझ विकसित की जाती है वह पर्याप्त नहीं माना जा सकता। कविता व कहानी लिखना और साहित्य की शिक्षा दो अलग अलग चीजें हैं। पाठ्क्रमों में साहित्य को पढ़ना और स्वतंत्र रूप से समीक्षीय दृष्टि से रचना को पढ़ना दो बातें हैं। एक पर्चा पास करने की दृष्टि से पढ़ी जाती है और दूसरा अपनी समझ विकसित करने और आलोचकीय नजरिया पैदा करने की लिहाज से रचना को पढ़ी जाती है। अमूमन देखा यही गया है कि पारंपरिक पाठ्यक्रमों में रचनाओं की व्याख्याएं एक खास सीमा में बंधी रह जाती हैं। कबीर, सूरदास, तुलसी को बीए व एम ए के पाठ्यक्रम में पढ़ना और बाद में समीक्षा की नजर से पढ़ने में खासे अंतर पाया जाता है। दरअसल साहित्य को पढ़ने की तालीम ही नहीं दी जाती। यदि कुछ दी जाती है तो वह है परीक्षा पास कैसे करें। आज भी साहित्य में अधिकांश ऐसे विद्यार्थियेां की कमी नहीं है जो साहित्य के पर्चे देने के बाद भूल जाते हैं कि उन्होंने कौन कौन सी किताबंे व रचनाएं पढ़ीं।
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