साहित्य की अच्छी और बेहतर समझ विकसित करने के लिए हमें साहित्य की भी शिक्षा पर विचार करना होगा। साहित्य की शिक्षा को महज कक्षाओं में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों और पाठ्यपुस्तकीय कविता, कहानी, उपन्यास से निजात दिलाना होगा। साहित्य की सलीके से तालीम की आवश्यकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि साहित्य की विधिवत् शिक्षण-प्रशिक्षण की रूपरेखा तैयार करने होंगे। साहित्य की तमाम विधाओं में महज लेखन को साहित्य की शिक्षा का नाम नहीं दे सकते। कविता,कहानी, उपन्यास को पढ़ने और समझ कौशल विकास के लिए हमें विभिन्न कार्यशालाओं की मदद लेनी पड़ेगी। यहां विमर्श का मुद्दा यह है कि जिस तरह से बीए व एम ए की कक्षाओं में साहित्य की समझ विकसित की जाती है वह पर्याप्त नहीं माना जा सकता। कविता व कहानी लिखना और साहित्य की शिक्षा दो अलग अलग चीजें हैं। पाठ्क्रमों में साहित्य को पढ़ना और स्वतंत्र रूप से समीक्षीय दृष्टि से रचना को पढ़ना दो बातें हैं। एक पर्चा पास करने की दृष्टि से पढ़ी जाती है और दूसरा अपनी समझ विकसित करने और आलोचकीय नजरिया पैदा करने की लिहाज से रचना को पढ़ी जाती है। अमूमन देखा यही गया है कि पारंपरिक पाठ्यक्रमों में रचनाओं की व्याख्याएं एक खास सीमा में बंधी रह जाती हैं। कबीर, सूरदास, तुलसी को बीए व एम ए के पाठ्यक्रम में पढ़ना और बाद में समीक्षा की नजर से पढ़ने में खासे अंतर पाया जाता है। दरअसल साहित्य को पढ़ने की तालीम ही नहीं दी जाती। यदि कुछ दी जाती है तो वह है परीक्षा पास कैसे करें। आज भी साहित्य में अधिकांश ऐसे विद्यार्थियेां की कमी नहीं है जो साहित्य के पर्चे देने के बाद भूल जाते हैं कि उन्होंने कौन कौन सी किताबंे व रचनाएं पढ़ीं।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Tuesday, July 28, 2015
साहित्य की शिक्षा
साहित्य की अच्छी और बेहतर समझ विकसित करने के लिए हमें साहित्य की भी शिक्षा पर विचार करना होगा। साहित्य की शिक्षा को महज कक्षाओं में पढ़ाए जाने वाले पाठ्यक्रमों और पाठ्यपुस्तकीय कविता, कहानी, उपन्यास से निजात दिलाना होगा। साहित्य की सलीके से तालीम की आवश्यकता है। इसका अर्थ यह हुआ कि साहित्य की विधिवत् शिक्षण-प्रशिक्षण की रूपरेखा तैयार करने होंगे। साहित्य की तमाम विधाओं में महज लेखन को साहित्य की शिक्षा का नाम नहीं दे सकते। कविता,कहानी, उपन्यास को पढ़ने और समझ कौशल विकास के लिए हमें विभिन्न कार्यशालाओं की मदद लेनी पड़ेगी। यहां विमर्श का मुद्दा यह है कि जिस तरह से बीए व एम ए की कक्षाओं में साहित्य की समझ विकसित की जाती है वह पर्याप्त नहीं माना जा सकता। कविता व कहानी लिखना और साहित्य की शिक्षा दो अलग अलग चीजें हैं। पाठ्क्रमों में साहित्य को पढ़ना और स्वतंत्र रूप से समीक्षीय दृष्टि से रचना को पढ़ना दो बातें हैं। एक पर्चा पास करने की दृष्टि से पढ़ी जाती है और दूसरा अपनी समझ विकसित करने और आलोचकीय नजरिया पैदा करने की लिहाज से रचना को पढ़ी जाती है। अमूमन देखा यही गया है कि पारंपरिक पाठ्यक्रमों में रचनाओं की व्याख्याएं एक खास सीमा में बंधी रह जाती हैं। कबीर, सूरदास, तुलसी को बीए व एम ए के पाठ्यक्रम में पढ़ना और बाद में समीक्षा की नजर से पढ़ने में खासे अंतर पाया जाता है। दरअसल साहित्य को पढ़ने की तालीम ही नहीं दी जाती। यदि कुछ दी जाती है तो वह है परीक्षा पास कैसे करें। आज भी साहित्य में अधिकांश ऐसे विद्यार्थियेां की कमी नहीं है जो साहित्य के पर्चे देने के बाद भूल जाते हैं कि उन्होंने कौन कौन सी किताबंे व रचनाएं पढ़ीं।
Friday, July 24, 2015
नदी को कहना बहती रहे
रास्ते ज़रा खराब होंगे
लेकिन कहना उसे
बहती रहे।
बहना ही तो बचना है
बचना है तो बहना है
ठहर गई किसी दिन तो
तो क्या
मर ही तो जाएगी।
सेा कहना उससे बहती रहे
चाहे रास्ते में किसी भी तरह की बाधा आए
न रूके
न झुके
बिना उफ्फ किए
आगे ही जाए
कहना उसे
कोई है जो कर रहा है इंतजार
नदी तुम बहती रहना
ताउम्र यूं ही
बेखौफ।
Monday, July 13, 2015
सरकारी स्कूलों में ताले लटकने का दौर
कौशलेंद्र प्रपन्न
राज्य सरकार जिस रफ्तार और तर्कों के आधार पर सरकारी स्कूलों को बंद कर चुकी है या ताला लगाने का एलान कर चुकी है उसे देखते हुए उम्मीद की जा सकती है कि आने वाले दिनों में हमारे देश में सरकारी स्कूल हाशिए पर नजर आएंगी। हाल ही में छत्तीसगढ़ सरकार ने 3000 सरकारी स्कूलों को बंद करने का फरमान जारी किया है। गौरतलब है कि छत्तीसगढ से पहले राजस्थान, उडि़या, महाराष्ट आदि राज्यों में भी सरकारी स्कूलों में ताले लगाए जा चुके हैं। छत्तीसगढ़ राज्य सरकार ने इसे तर्कपूर्ण कार्यवाई बताया है। एजूकेशन डेवलप्मेंट इंडेक्स में इस राज्य को 28 वें स्थान पर रखा गया है। सरकार के तर्क शास्त्र पर गौर करें तो सरकार की नजर में इन स्कूलों में बच्चों की तदाद बहुत कम थी, कोई दूसरा स्कूल चल रहा है, शिक्षकों की कमी, इमारत जैसे दूसरे कारण भी गिनाए गए हैं। जिन इलाकों में सरकारी स्कूल में ताले लगे हैं वे आदिवासी बहुल इलाका माना जाता है। इनमें नारायणपुर, बस्तर, दंतेवाड़ा जैसे क्षेत्र हैं जो जंगल,पहाड़ और दूसरी भौगालिक बाधाओं से घिरी हैं।
पिछले साल राजस्थान, महाराष्ट, उडि़सा, उत्तराखंड़ आदि राज्यों में भी स्कूल बंद हो चुके हैं। नेशनल कोईलिएशन फाॅर एजूकेशन की रिपोर्ट के अनुसार राजस्थान में 17,129, गुजरात में 13,450, कर्नाटक में 12,000, आंध्र प्रदेश में 5,503, उडि़सा में 5000, तेलंगाना में 4000, मध्य प्रदेश में 35,00, उत्तराखंड़ में 12,000 स्कूल बंद हो चुके हैं। तुर्रा यह कि उत्तराखंड़ के जिन स्कूलों को बंद किए गए उनमें से कुछ स्कूलों के कमान एक निजी संस्था के हाथों सौंपे जाने की बात हो रही है। वह संस्था इन सरकारी स्कूलों को अपने टीचर के मार्फत शिक्षण का कार्य संपन्न कराएगी।
सरकारी स्कूलों को बंद करने के पीेछे के तर्क शास्त्र को देखें तो निराशा होती है। तर्क यह दिया जा रहा है कि हमारे पास शिक्षकों की कमी है। हमारी सरकारी स्कूलों की इमारतें माकूल नहीं हैं। स्कूलों में बच्चों की कमी है आदि। यदि इन तर्कों पर विचार करें तो पाएंगे कि इनमें से कोई भी तर्क ऐसे नहीं हैं जो सरकार की सद्इच्छा की ओर इशारा करते हों। दरअसल सरकार शिक्षा के अधिकार अधिनियम 2009 के तहत प्रतिबद्ध तो है कि वो सभी बच्चों को अनिवार्य शिक्षा मुहैया कराए लेकिन जिस तरह के संकेत मिल रहे हैं उससे ऐसा लगता है कि दो विरोधी स्थापनाएं चल रही हैं। उत्तराखंड़ में तो कुछ स्कूलों को बंद कर दिया गया लेकिन कुछ स्कूलों को निजी संस्थानों के हाथों सौंप कर सरकार अपनी जिम्मेदारी से मुक्त हो गई।
यदि किसी भी राज्य में शिक्षकों की कमी है तो आरटीई के अनुसार प्रशिक्षित शिक्षकों की नियुक्ति कर इस कमी से निपटा जा सकता है। लेकिन अभी भी विभिन्न राज्यों में हजारों और लाखों की संख्या में पद रिक्त हैं। कुछ साल पहले बिहार, उत्तर प्रदेश में बीए एमए और बीएलएड आदि डिग्रीधारी प्रतिभागियों को बतौर शिक्षक नियुक्त किया गया था। अफसोस की बात है कि सीटीईटी एवं अन्य डिग्रियां फर्जी पाई गईं। फर्जी डिग्री की वजह से हाल ही में बिहार में 1400 शिक्षकों ने इस्तीफा दे दिया। भवन की हालत ठीक नहीं होने के तर्क के पीछे भी कोई खास दम नजर नहीं आता। यदि भवन कमजोर है तो उन्हें दुरुस्त किया जा सकता है। इन तर्कांे को आधार बना कर स्कूल ही बंद कर देना सीधे सीेधे राज्य सरकार की मनसा को प्रकट करता है।
स्कूलों को बंद करना व बंद होना एक तरह से उस ओर इशारा करता है कि वह दिन दूर नहीं जब केंद्र और राज्य सरकार अपनी शिक्षा प्रदान करने की जिम्मेदारी से हाथ पीछे खींच ले। जबकि शिक्षा का मौलिक अधिकार भारतीय संविधान की धारा 21 में शामिल है। वहीं शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 देश के भी 6-14 आयु वर्ग के बच्चों को बुनियादी शिक्षा का अधिकार प्रदान करता है। समाज का एक बड़ा तबका सरकारी स्कूलों पर ही निर्भर है। उनपर पास स्कूल चुनाव का विकल्प नहीं है। ऐसे में हमारे समाज का एक बड़ा गरीब वर्ग विकास और शिक्षा की मुख्यधारा से कट जाएगा।
कितनी विचित्र बात लगती है कि एक ओर हमारा देश डिजिटल इंडिया का सपना देख रहा है और दूसरी ओर गरीब बच्चों के पहंुच से सरकारी स्कूलों को छीना जा रहा है। सरकारी स्कूलों को सुधारने की बजाए उन्हें बंद करना व निजी हाथों में सौंपना कोई सकारात्मक विकल्प नहीं हो सकता। होना तो यह चाहिए कि सरकारी शिक्षा तंत्र यानी विद्यालय संजाल को सुदृढ किया जाए। इसके लिए विश्व बैक से हमें आर्थिक मदद भी मिलते रहे हैं। इतना ही नहीं बल्कि सर्वशिक्षा अभियान के तहत भारत को हर साल करोड़ों रुपए मिले हैं। भारत ने 1990 में एजूकेशन फार आॅल यानी ‘सब के लिए शिक्षा’ के दस्तावेज पर दस्खत किया था। उस दस्तवेज के अनुसार सन 2000 तक सभी बच्चों को शिक्षा मुहैया करा देना था। लेकिन ग्लोबन मोनिटरिंग रिपोर्ट के अनुसार अभी भी 80 हजार बच्चे स्कूल से बाहर हैं। जीएमआर ईएफए ने 2015 के 31 मार्च तक के वैश्विक समय सीमा को बढ़ाने की मांग को स्वीकारते हुए अब 2030 तक किए जाने की बात चल रही है।
दो विरोधाभासी सपनों में हमारा देश सांस ले रहा है। एक ओर डिजिटल इंडिया के सपने आंखों में ठूसे जा रहे हैं वहीं दूसरी गरीब बच्चों से सरकारी स्कूल दूर किए जा रहे हैं। कल्पना कर सकते हैं कि उस डिजिटल इंडिया में कौन वासी हांेगे। लाखों गरीब बच्चे निश्चित ही उस विकसित समाज का हिस्स नहीं बनने वाले हैं। ठीक वैसे ही जैसे छत्तीसगढ़ के आदिवासी समाज से 3000 स्कूल छीन लिए गए। हम नहीं चाहते कि आदिवासी व अन्य बच्चे शिक्षा हासिल कर विकसित समाज में सवाल न पूछने लगंे इसलिए उनसे शिक्षा के अवसर ही छीनने की कोशिश हो रही है।
Friday, July 10, 2015
भाषा नीति बनाने की चिंता
भाषा की मरने की ख़बरें दुनिया के तमाम कोनों से आ रही हैं। जो भी भाषा से जुड़ा है उसे भाषा के मरने की आहट सुनाई देती होगी। लेकिन उन्हें बिल्कुल इससे कोई फर्क नहीं पड़ता होगा जो महज भाषा की रोटी खाते होंगे। भाषा जिंदा रहे या मरे उन्हें हर साल विदेश भ्रमण का मौका मिलता रहे। भाषा के परिवार में हिन्दी एक सदस्या है। इसकी स्थिति को बहुत अच्छी नहीं मानी जा सकती। यदि हम भाषा के वृहत्तर परिवार की बात करें तो आज की तारीख में विश्व की कई भाषाएं या तो मर चुकी हैं या मरने की कगार पर खड़ी हैं। उसे बचाने की चिंता सरकारी प्रयासों पर छोड़ दिया गया है। अफसोस तो तब होता है जब हम सरकारी दस्तावेजों और आयोगों में भी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं को एक ख़ास किस्म की नीति के तहत होते बर्ताव को देखते हैं। इस दृष्टि से विमर्श करें तो 1963 की राजभाषा अधिनियम भाषा के साथ होने वाले दोयम दर्जंे के व्यवहार की परते खोलती हैं। आजादी से पहले और उसके बाद भी हिन्दी और अन्य भारतीय भाषाओं के साथ उपेक्षापूर्ण बर्ताव ही किया गया है। आश्चर्य हो सकता है कि आजादी के बाद कई सारे आयोग और समितियों का गठन किया गया। शिक्षा की बेहतरी के लिए भी आजादी पूर्व से लेकर आजादी के पश्चात भी आयोग और नीतियां बनाई गईं। उन आयोगों और नीतियों में भाषा के नाम पर त्रिभाषा सूत्र तो पकड़ा दिया गया लेकिन कभी भी स्वतंत्र रूप से भाषा आयोग का गठन हुआ हो इसका ध्यान नहीं आता। यह एक कैसी विचित्र बात है कि देश के समग्र विकास की डफली बजाने वालों को कभी भी भाषा आयोग व भाषा नीति बनाने की चिंता ही नहीं सताई। यदि सरकारी पहलकदमी पर नजर डालें तो हमारे पास 1963 की राजभाषा अधिनियम ही है जिसमें सच पूछा जाए तो न केवल हिन्दी के साथ बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं के साथ भी गंदा मजाक सा ही किया गया है। लेकिन इस सच और अतीतीय यथार्थ को हम नहीं बदल सकते। हां हम जो कर सकते हैं वह यही हो सकता है कि अभी भी हमारे पास समय है यदि हम चाहते हैं कि हिन्दी एवं अन्य भारतीय भाषाओं को बचा लें तो उसके लिए सरकारी के साथ ही हमारी सांस्थानिक और व्यक्तिगत प्रयास भी अपेक्षित है।
Wednesday, July 8, 2015
स्कूल में पढ़ाई नहीं
स्कूल में बच्चे नहीं आते, मास्टर जी पढ़ाते नहीं हैं। स्कूल में पढ़ाई नहीं होती। इस तरह के आरोप अक्सर लगाए जाते हैं। कहा तो यह भी जाता है कि सरकारी स्कूलों में कामचोर और गैर जिम्मेदाराना लोग आते हैं। उन्हें पढ़ाने नहीं आता। बच्चों को कुछ नहीं बनाना तो सरकारी स्कूल में भेज दो आदि।
ज्बकि हकीकत यह है कि आज भी सरकारी स्कूलों मंे खासे पढ़े लिखे टीचर हैं। उनमें पढ़ाने का जज्बा भी है। लेकिन सबसे बड़ी समस्या यह है कि कई स्कूलों में बच्चे ही नहीं हैं। जहां बच्चे हैं वहां पूरे टीचर नहीं हैं।
सचपूछा जाए तो सरकारी स्कूल कुछ सालों के बाद शायद इतिहास का हिस्सा हो जाए। हम बताया करेंगे कि इस तरह के सरकारी स्कूल हुआ करते थे। इस तंत्र को बचाना जरूरी है।
Friday, July 3, 2015
फर्जी डिग्री वाले मास्टर जी
कौशलेंद्र प्रपन्न
‘कमला बाबू कभी टीचर नहीं बनना चाहते थे। न ही उनके खानदान में कोई टीचर हुआ। परिवार के सभी सदस्य लाल बत्ती की लालसा में बुढ़ा गए। उम्र के ढलान पर कोई बैंक पीओ की परीक्षा पास कर बैंक में लगा तो कोई रेलवे मंे नौकरी कर रहा है। कमला बाबू भी शुरू से ही मास्टर जाति से ही चिढ़ते थे। लेकिन भाग्य का खेल देखिए कि अंत में मास्टरी करनी पड़ी। उम्र निकली जा रही थी सो उनके अपने जमाने में गांव जेवार में प्रसिद्ध पिताश्री ने राय दी कि कहीं से बी.एड की डिग्री मिल जाए तो तेरा बेड़ा पार हो जाएगा। मेरा क्या है आज हैं कल चले जाएंगे। लेकिन तेरी में पूरी जिंदगी पड़ी है। ...और देखते ही देखते फस्ट डिविजन की बी एड की डिग्री कमला बाबू के हाथ में आ गई और गांधी मैदान में जाकर धक्का मुक्की कर नौकरी भी अपने गांव के पास वाले उच्च विद्यालय में पा ली।’
उक्त पंक्तियां किसी कहानी या उपन्यास की हो सकती है। रोचक भी लगेंगी जब आप इस कहानी को पढ़ेंगे। लेकिन वास्तव में यह कहानी की पंक्तियां नहीं हैं। यह जमीनी तल्ख हकीकत बयां करती सच्चाइयंा हैं। बिहार राज्य में अब 1400 स्कूली शिक्षकों ने स्वतः ही नौकरी से इस्तीफा दे दिया है। लेकिन आप चैंके नहीं। उन्होंने प्रसन्नता व स्वेच्छा से नहीं किया है। बल्कि उच्च न्यायालय का आदेशों का पालन किया है इन 1400 शिक्षकों ने। उच्च न्यायालय का आदेश आया था कि जिन भी शिक्षक के पास फर्जी डिग्री है वे स्वयं से इस्तीफा दे दें वरना पकड़े जाने पर आर्थिक दंड़ भुगतना पड़ सकता है। उच्च न्यायालय के इस आदेश के बाद इस्तीफा देने वालों की संख्या और भी बढ़ सकती है। बिहार शिक्षा विभाग के प्रधान सचिव आर के महाजन ने स्वीकारा है कि हमें उम्मीद है अभी और इस्तीफे होंगे। यह संख्या हजारों में हो सकती है। गौरतबल है कि बिहार में प्राथमिक शिक्षकों की संख्या तकरीबन 3.5 लाख है। उच्च न्यायालय ने आठ जुलाई तक का समय दिया है कि जिनके पास भी फर्जी डिग्री है वे स्वतः ही इस्तीफा दे दें।
याद हो कि नितीश कुमार ने 2010 में खुलेतौर पर गांधी मैदान में शिक्षकों को नियुक्ति पत्र बांटे थे जिनके पास भी बीए एम ए एव ंबी एड की डिग्री थी वे सब शिक्षक बन गए थे। सरकारी आंकड़ों के में दर्ज हो गया कि बिहार में शिक्षकों के पद भर लिए गए। क्योंकि आरटीई के अनुसार शिक्षकःछात्र अनुपात 25ः1 और 35ः1 का रखा गया है। वहीं गुणवत्तापूर्ण शिक्षा मुहैया कराने के लिए पर्याप्त शिक्षकों की आवश्यकता थी। इस कमी को बिहार सरकार ने इस तरह से पूरा किया। जबकि आरटीई में यह भी प्रावधान है कि शिक्षक प्रशिक्षित होंगे। लेकिन हालिया बिहार राज्य से आ रही खबरें बताती हैं कि अधिकांश शिक्षकों के पास टीईटी के प्रमाण पत्र तक फर्जी हैं। टीईटी पास के प्रमाणपत्रों में दर्ज अंकों में भी झोल पाया गया है। माना जा रहा है कि टीईटी के प्रमाण पत्रधारियों में कई तो ऐसे हैं जिन्होंने दो दो जिलों से हासिल किए हैं। खबर के अनुसार पटना प्रमंडल में 75 से 76 नियोजित शिक्षकों के टीईटी प्रमाण पत्र कई जिलों से मिले हैं। पचीस से तीस टीईटी प्रमाण पत्र के सीरियल नंबर में काफी अंतर पाया गया है।
गौरतलब हो कि जम्मू के उच्च न्यायालय में न्यायाधीश ने एक शिक्षक को गाय पर लेख लिखने को कहा था लेकिन शिक्षक जब नहीं लिख पाया तब न्यायाधीश ने आदेश दिया था कि इस तरह की शिक्षा की मिठाई की दुकानें बंद होनी चाहिए। कुछ कुछ ऐसा ही मंजर बिहार की इस घटना में दिखाई देती है। बल्कि न केवल बिहार,उत्तर प्रदेश एवं अन्य राज्यों में भी कड़ाई की जाए तो हकीकत सामने आने मंे देरी नहीं लगेगी। इस तथ्य से कोई कैसे इंकार कर सकता है कि यदि सरकारी स्कूलों में पढ़ने वाले बच्चे सामान्य हिन्दी के वाक्य, शब्द, एवं गणित में सक्षम नहीं हो रहे हैं तो इसके पीछे कहीं न कहीं शिक्षक भी शक के घेरे में आता है। यह कहना सरलीकरण नहीं होगा कि आज शिक्षण पेशे में वही लोग आते हैं जिनके लिए बाकी सारे रास्ते बंद हो जाते हैं। पहली इच्छा व चुनाव बहुत कम शिक्षकों का होता है।
एक मौजू सवाल यह उठता है कि जब शिक्षण कर्म ने आपको नहीं चुना। आपने जब अंत में ही सही यदि शिक्षण को पेशे के तौर पर चुन लिया तो इस कर्म और पेशे का धर्म तो निभाना बनता है। जब शिक्षक खुद धोखाधड़ी से डिग्रियां हासिल कर जीवन में कम से कम शिक्षक बन रहा है वह बच्चों को किस तरह के मूल्य और आदर्श का पाठ पढ़ा पाएगा। कहते हैं बच्चे सबसे ज्यादा अपने शिक्षक/शिक्षिकाओं का अपना आदर्श ही नहीं मानते बल्कि अपने शिक्षक के करीब भी होते हैं। जब बच्चों को मालूम चलेगा कि उनके शिक्षक के पास फर्जी डिग्री थी और उन्होंने इसलिए नौकरी छोड़ दी तो बच्चों और समाज में किस तरह की छवि और संदेश जाएगा। हालांकि फर्जीवाड़ा न केवल शिक्षक कर रहे हैं बल्कि अन्य नौकरियों में भी फर्जी डिग्री की अनुगंूज सुनाई देती रहती है। यानी समस्या का जड़ कहीं और है। उस जड़ को समाप्त करने की बजाए तने और पत्तियों को काटने छांटने से समस्या का हल तात्कालिक तो हो सकता है स्थाई नहीं।
अध्यापक भी इसी समाज का हिस्सा है। इस नाते उसमें भी सामाजिक चालाकियां, धूर्तता आदि आनी स्वभाविक है। जब हमने बीएलएड, बी एड किए हुए शिक्षकों की योग्यता पर सवाल खड़ा किया और उन्हें एक नए किस्म की छलनी से छानने की बात पूरे देश में मानव संसाधन मंत्रालय ने शुरू किया तब तमाम नागर समाज मौन साध कर बैठ गए। सबने शामिल बजा बजाया कि हां हां सही है ठीक है मास्टर हमारे नालायक हैं। उन्हें कुछ नहीं आता। इनको एक और परीक्षा से गुजारा जाए। जो पास हुआ वो पार हुआ। जो पास नहीं हुआ उसने जुगाड़ लगाया। जबकि एक बार संदेह करने से पहले शिक्षक-प्रशिक्षण संस्थानों की चाल-ढाल पर भी नजर डालना लाजमी था कि क्या इन पूर्व शिक्षक प्रशिक्षण कोर्स में इस लायक बनाया जाता है कि वो कक्षा-कक्ष में पढ़ा सकें। क्या उन्हें स्वयं गुणवत्तापूर्ण शिक्षण-प्रशिक्षण मिल पाए जिसकी उम्मीद नागर समाज करती है। यह एक प्रश्न यह भी उठता है कि जिस गैर जिम्मेदाराना तरीके से बी एड की डिग्रियां चबेने की तरह बांटी गईं व बांटी जा रही हैं ऐसे में हम कितनी गंभीरता की उम्मीउद कर सकते हैं। क्या यह किसी से छूपी बात है कि इसी समाज में साठ से अस्सी हजार में बी एड में नामांकन से लेकर बिना क्लास में पढ़ाए सीधे परीक्षा में बैठने की प्रक्रिया पूरी कर ली जाती है। उन्हें सत्तर और अस्सी प्रतिशत अंक भी आ जाते हैं लेकिन जब वे कक्षा में जाते हैं तब उनके वे अंक साथ नहीं देते। साथ देती है तो सिर्फ उनकी समझ और पूर्व ज्ञान जो कभी उन्होंने पढ़ा और गुना हो तो।
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