Tuesday, March 24, 2015

अपने शहर को पीठ पर लादे हुए


अपने शहर से अब भी पीछा नहीं छूटा,
न छूटा था तब
जब छोटे थे
जब शहर की चैहद्दी को नाप लेते थे साइकिल से,
पिताजी के संग टहल आते थे सोन।
शहर के मिज़ाज से परिचय था शायद पुराना,
जहां भी जाता रात होते न होते लौट आता था अपने शहर
मामी कहा भी करतीं
का रखल है तुम्हरे शहर में?
है कोई कचहरी
है तुम्हरा शहर जिला?
का है तोहर शहर में?
एक कारखाना हुआ करता था तेरे शहर के बीचो बीच
अब तो उसकी चिमनी भी उदास मंुह उठाए खड़ी है।
बचपन का वह शहर
थाना चैक पर हरी ताजी सब्जियों,फलों का शहर,
माॅल, चकाचक बाजारों से दूर मेरा शहर
दो नदियों की गोद में लेटा मेरा शहर
छूटता नहीं
कि जैसे कोई बच्चा नहीं छोड़ता मां का अचरा
कि जैसे नहीं छूटता बचपन की लड़ाई के बाद मिलान।
शहर को लादे लादे यहां तक चला गया
और कितना दूर लेकर जा सकूंगा अपने शहर को
पीठ भी जख़्मों से भरा है
सांसें भी उखड़ सी रही हैं
फिर भी कुछ है मेरे शहर में
जो नहीं छूटता छोड़ने के बाद भी।
झाबर मल गली की लस्सी,
कचैरी गली की मिठाई,
कुछ भी नहीं छूटा अब तलक,
बसा है जेहन में अइनी काट का बांध,
और छठ में सुबह सुबर बालू पर दौड़,
भइया के साथ छुट्टियों में सोन में नहाना,
सोन तो गोया
दौड़ता ही रहता है जब तब।
कहते हैं इसी शहर में ठहरे थे बंकिम चंद,
लिखा था कुछ अंश उपन्यास का,
हां वही शहर जो अब रोता है दिन के उजाले में
रात बहाता है आंसू अपनी बेहाली पर,
न रोजगार है,
न कारखाना,
फिर भी न जाने क्यूं बसा है शहर कहीं गहरे कील की तरह।






No comments:

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...