Wednesday, March 18, 2015

बजट में शिक्षा पर चली कैंची


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा की गुणवत्ता में सुधार के लिए हमारा सालाना बजट और केंद्र सरकार किस नजर से देखती है इसका अंदाजा लगाना हो तो हमें इस साल के 2015-16 के बजट को देखना दिलचस्प होगा। हमें यह भी याद रखना होगा कि 1964-66 में कोठारी आयोग ने प्रारम्भिक शिक्षा की बेहतरी के लिए जितनी राशि की आवश्यकता की मांग की थी हम उसे देने में काफी पीछे हैं। कोठारी आयोग ने तब सकल घरेलु उत्पाद के 6 फीसदी शिक्षा को देने की सिफारिश की थी। लेकिन यह हम पिछले दो तीन सालों के बजट को देखें तो शिक्षा में सुधार और गुणवत्ता को ध्यान में रखते हुए हर साल बजट में बढ़ोत्तरी देखी जा सकती हैं। लेकिन 2015-16 के बजट में ऐसा क्या हुआ कि शिक्षा के मद में मिलने वाले आर्थिक राशि में इतनी बड़ी कटौती की गई। गौरतलब हो कि 1990 में जिस ‘सभी के लिए शिक्षा’ यानी ‘एजूकेशन फार आॅल’ में के लक्ष्यों में यह भी शामिल किया गया था कि 2010 फिर 2015 तक सभी के लिए शिक्षा मुहैया करा देंगे। वहीं यह भी घोषित किया गया था कि बुनियादी शिक्षा में लड़की/लड़के के अंतर को पाट सकेंगे। सभी बच्चे यानी 6-14 आयुवर्ग के बच्चे बुनियादी शिक्षा हासिल कर लेंगे। इन्हीं अंतरराष्टीय प्रतिबद्धताओं के मद्दे नजर हमने शिक्षा का अधिकार अधिनियम 2009 को पूरे देश में 1 अप्रैल 2010 को लागू किया। इसी तारीख को इसकी अंतिम तारीख भी तय की गई थी जो 31 मार्च 2015 है। ध्यान हो कि यह अंतिम तारीख भी हमसे महज पंद्रह दिन दूर है।
यदि आम बजट पर नजर डालें तो शहरी विकास, आईटी, आर्थिक बाजार आदि को खासे तवज्जो दिया गया है। लेकिन शिक्षा हमारी चिंता से कोसों दूर है। सर्व शिक्षा अभियान जिसके तहत बुनियादी स्कूल एवं बच्चों की शैक्षिक गतिविधियों को शामिल किया गया। इस मद में हर साल पैसे करोड़ों में दिए जाते थे ताकि कोई भी कार्यक्रम पैसे की कमी की वजह से न रूके। लेकिन 2015-16 के बजट पर एसएसए के मद में मिलने वाले 27,758 रुपए को घटाकर 22,000 करोड़ कर दिया गया। वहीं मिड डे मिल जिसकी वजह से देश भर में बच्चे कम से कम दोपहर के भोजन की ओर स्कूल में आए इसके वर्तमान बजट 13,215 करोड़ रुपए को घटाकर 9,236 करोड़ कर दिया गया। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि स्कूलों में इस दोपहर भोजन में क्या और किस स्तर के भोजन बच्चों को दिए गए और कितने बच्चे बीमार पड़े और कितने बच्चें हमारे बीच से उठ गए। वहीं उच्च माध्यमिक और माध्यमिक शिक्षा की गुणवत्ता को बेहतर बनाने के लिए राष्टीय माध्यमिक शिक्षा अभियान ‘रमसा’ को मिलने वाले 5,000 रुपए को भी कम कर 3,565 करोड़ रुपए कर किया गया। कुल मिल कर आम बजट में शिक्षा को मिलने वाली राशि की कटौती प्रतिशत में बात करें तो यह 17 फीसदी की कटौती बनती है।
गौरतलब है कि एक ओर सरकार और सरकारी दस्तावेज वहीं दूसरी ओर गैर सरकारी संस्थाएं स्कूलों और बच्चों के जो आंकड़े पेश कर रहे हैं उसे देखते हुए यह अंदाज लगाना जरा भी कठिन नहीं है कि सरकार की नजर में शिक्षा कितनी अहम है। सरकार तमाम विकास-यात्रा की बात करती हो लेकिन शिक्षा उसकी चिंता से बाहर है। बल्कि कहना चाहिए कि महज तरह के तरह अभियान और योजनाएं तो सरकार चला देती है लेकिन उसकी निगारनी का कोई सुनिश्चित रणनीति और मैकेनिज्म नहीं है। यदि वजह है कि एक ओर सरकारी दस्तावेज पिछले साल अगस्त में जहां 80 लाख बच्चों के स्कूल से बाहर होने की बात करती है वहीं छः माह बात यूनेस्को और यूनिसेफ की जनवरी 2015 की रिपोर्ट मानती है कि भारत में 14 लाख बच्चे स्कूल से बाहर हैं। यह आंकड़ों की उलटबासी समझी जा सकती है। हाल ही में राज्य सभा न्यूज चैनल पर टेलिकास्ट सरोकार कार्यक्रम में असर, आरटीइ फारम एवं अन्य विद्वानों से स्वीकारा कि अभी भी हमारी पहंुच स्कूलों और बच्चों से काफी दूर है। आरटीई फोरम की हालिया रिपोर्ट पर नजर डालें तो पाएंगे कि अभी भी अस्सी लाख बच्चे स्कूल से बाहर है। वहीं 5 लाख से ज्यादा प्रशिक्षित शिक्षकों के पद खाली पड़े हैं।
शिक्षा में गुणवत्ता और बच्चों तक पहंुचने वाली शिक्षा किस स्तर की है उसका जायजा लें तो असर की रिपोर्ट इस बाबत हमारी मदद करता है। असर के रिपोर्ट की मानें तो हमारे बच्चे कक्षा पांच व छः में पढ़ने वाले बच्चे न तो एक गद्यांश पढ़ सकते हैं और न पढ़े हुए टैक्स्ट को समझ सकते हैं। न केवल भाषा में बल्कि गणित और विज्ञान में भी यही हाल है। सामान्य जोड़ घटाव करने में भी हमारे बच्चे पीछे हैं। जिस देश की भविष्यनिधि ऐसी होगी उसका भविष्य कितना उज्ज्वल होगा इसका अनुमान लगाया जा सकता है।
समाज में यह धारणा मजबूती से पैठ चुकी है कि हमारे सरकारी स्कूल न इस लायक नहीं रहे कि हम अपने बच्चों को वहां भेज सकें। हमारे पास विकल्प के तौर पर निजी स्कूली ‘गुणवत्ता का सवाल न करें’ ही बचते हैं। जबकि ध्सान देने की बात है कि हमारा सरकारी स्कूलों का तंत्र और शिक्षक वर्ग जिस गुणवत्ता के हैं हम उनकी दक्षता का सही सदुपयोग नहीं कर पा रहे हैं। उस तुर्रा यह कि हम अपने सरकारी स्कूलों को निजी संस्थानों को सौंपने का मन बना चुके हैं।

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