Wednesday, October 30, 2013

लालित्य ललित की काव्य-भूमिः प्यार, भूख, नदी,लड़की और गांव का ख़त

लालित्य ललित के काव्य संसार
प्रिय लेखक लालित्य ललित के काव्य संसार में झांकने, ठहर कर देखने और आनंद लेने का मौका मिला। वास्तव में एक व्यंग्यकार जब कविता कर्म में रत होता है तब उसकी लेखनी में मूल स्वर व्यंग्य के तो होते ही हैं साथ ही उसमें काव्य-रस का भी प्रवाह होता है। यह एक व्यंग्यकार से कवि की भूमिका में अंगीकृत लालित्य ललित पर एक नजर आगामी वृहत्तर रूप में प्रकाशन घराने से छपने वाली पुस्तक व पत्रिका में भी पढ़ी जा सकेगी।

-कौशलेन्द्र प्रपन्न
‘गद्यः कविनाम निकषं वदंति’ बहुत प्रसिद्ध संस्कृत का सूत्र वाक्य है यानी कवियों के लिए गद्य एक निकष के समान होता है। दूसरे शब्दों में, गद्य की रचना काव्य से कहीं ज्यादा चुनौती भरा माना गया है। गद्य की साधना और फिर काव्य सृजन में प्रवृत्त होना दोनों ही प्रकारांतर से साहित्य की दो धारी तलवार पर चलने जैसा है। कई साहित्यकार पहले कवि कर्म में प्रवृत्त हुए फिर गद्य में उनका स्थानांतरण हुआ। काव्य रचना अपने आप में एक कठोर शब्द साधना से जरा भी कम नहीं है। लालित्य ललित वह नाम हैं जिन्होंने दोनों ही विधाओं में खुद को साधा और तपाया है। इसलिए इनका काव्य-संसार विविध आयामों के द्वार खोलते हैं। हिन्दी काव्य इतिहास पर नजर डालें तो छंद-बद्ध और छंद- मुक्त काव्य सृजन की लंबी परंपरा रही है। आगे चल कर काव्य में कई धाराएं एवं उपधाराएं देखी जा सकती हैं। बतौर लालित्य ललित ‘एक सच्ची कविता का राग-द्वेष से कोई नाता नहीं, चाहे किसी भी खेमे की कविता हो। किसी का लहू हो। आज वह लहू चाहिए जो वक्त पड़ने पर देश की रक्षा, मां की इज़्ज़त, बहन की लाज बचा सके। किन्तु जो चीज तमाम धाराओं में गुम्फित रही हैं वह है आम व्यक्ति, समाज, प्रकृति की छटपटाहटों को व्यक्त करना। यही निदर्शन हमें ललित की काव्य रचनाओं में प्रचूर मात्रा में मिलती हैं। मूलतः व्यंग्यकार ललित की रचनाओं में एक टीस, एक वेदना और साथ ही समाज की बजबजाती संवेदनाओं पर प्रहार करती इनकी कविताओं की प्राण वायु हैं। जब एक व्यंग्यकार कवि हृद होता है तब काव्य में एक अलग हुंकार सुनाई देती है। यही अनुगूंज ललित की कविताओं में प्रतिध्वनित होती हैं। व्यापक काव्य भूमि पर काव्य प्राचीर कर्मी ललित कभी लड़कियों के विविध रूपों, लावण्यताओं, प्रारूपों, आकर्षणों को अपनी कविता में जगह देते हैं वहीं परिवार-समाज की धूरी हमारे वृद्ध वृक्ष की उपेक्षा की ओर भी ध्यानाकृष्ट करते हैं। काव्य में प्रकृति तो है ही। उसकी बुनावट बाह्य और आंतर दोनों ही धरातलों पर देखी-सुनी जा सकती है।
आज के दौर में जहां रिश्तें महज सूत्रों में बनते बिगड़ते हैं। जहां हर रिश्ता कुछ न कुछ वजह और स्वार्थ से बुने जाते हैं ऐसे समय में कवि सावधान तो करता ही है साथ ही सुझाव भी देता है-‘जिन्हें तुम चाहते हो/ और सच्चे मन की मुराद/हमेशा पूरी होती है/अगर किसी को भी चाहो/ तो निष्कपट चाहो/पूरी शिद्दत से चाहो।’ यह चाहना महज किसी को प्रेम पत्र लिखने से कहीं ज्यादा मुश्किल है। लेकिन इसे भी ललित के यहां फलित देख सकते हैं। इंसान की ख़्वाहीशें बहुत होती हैं। वह बड़ा आदमी बनना चाहता है, लेकिन एक अदद पूर्ण इंसान बनने की इच्छा सांसारिक भाग-दौड़ में कहीं पीछे छूटती चली जाती हैं। उस ओर इंशारा देखिए-‘ छोटे-छोटे चक्करों में लगा है/छोटा आदमी/और बड़ा आदमी/बड़े-बड़े चक्करों मंे रमा है। इसी कविता की अन्य पंक्तियों के सहारे आगे बढ़ंें तो पाएंगे कि सुर्खियों में भी नहीं आता/केवल चंद पंक्तियां/अज्ञात युवती को/अज्ञात गाड़ी/सवार ने कुचला/मौके से गाड़ी चालक फरार। इन पंक्तियों को पढ़ते हुए महसूस करना कठिन नहीं कि जिस तरह की सहजता और सरलता वाक्यों में है उससे कहीं अधिक गंभीरता उसमें बज़्ब भावनाओं में हैं जिसे कवि प्रेषित करना चाहता है।
तकनीक पर सवार समाज के सामने सबसे बड़ी और कठिन चुनौती यह है कि वह अपनी संवेदना और सामाजिक प्रतिबद्धता किस प्रभावशाली माध्यम में करता है। जब पाठकों का संसार नित नए माध्यमों में ढलेगा तो ऐसे में साहित्कार की लेखनी भी कीपैड में तब्दील होगी ही। यदि ऐसा नहीं करता तो वह एक व्यापक जन-पाठकों तक पहुंचने से महरूम हो जाएगा। लेकिन ललित ने इस नए माध्यम को भी साधा है और कवि के सामाजिक दरकार को भी निभा रहा है। सोशल मीडिया के नए अवतार को नकारा नहीं जा सकता। जिसमें फेसबुक, ट्वीटर जैसे माध्यमों में अपनी बात रखना भी एक कला है। जिसे ललित रोज-दिन बखूबी निभाते हैं। फेस बुक पर रोज एक नई भाव-भूमि की कविता परोसना इन्हें खूब आता है। यहां भी इन्हें पाठकों कमी नहीं है। पाठक न केवल इनकी कविताएं पढ़ते हैं, बल्कि उसपर अपनी टिप्पणियां भी देते हैं। इसका अर्थ यह हुआ कि जो लोग यह स्यापा करते हैं कि पाठक अब नहीं रहे। पाठकों की कमी हो गई है आदि यह यहां बेईमानी लगने लगता है। पाठकों को कम समय में ,कम भटके यदि उचित, सार्थक कविता व रचनाएं मिलें तो उसे जरूर पढ़ता है। इस दृष्टि से ललित की फेसबुकीए कविताओं का संसार भी सराहनीय है। काव्य संग्रह आने में महिनों और साल लगते हैं। यह किसी से छुपा नहीं है। तो क्या कवि की कविताओं से पाठक अज्ञात रहे। नहीं यह अज्ञातवास ललित रोज तोड़ते हैं और फेसबुक पर इनकी कविताओं को पढ़ा जा सकता है। ललित की इन दिनों की फेसबुकीए कविताएं एक खास अंदाज और रूख की ओर इशारा करती हैं। वह बुढ़ा, अस्पताल, लड़की,किसिम किसिम के लोग आदि ऐसी कविताएं हैं जिन्हें पढ़ते वक्त एक चलती फिरती कहानी, घटनाओं से रू ब रू होने जैसा है।
दीवार पर टंगी तस्वीर, गांव का खत शहर के नाम, इंतजार करता घर, यानी जीवन सीख लिया और तलाशते लोग लालित्य ललित की काव्य दुनिया में प्रवेश के द्वार हैं। जिसे काव्य-संग्रह भी कहा जाता है। इन काव्य-संग्रहों में वैविध्यता कई दृष्टिकोणों से है। कहीं खतूत हैं गांव के नाम तो कहीं दीवारों पर टंगे लोग हैं। जहां पत्राचार अब पुराने जमाने की बात सी लगती है। लेकिन कवि यहां भी खत लिखने-भेजने की आदत से बाज़ नहीं आता। आज भी कुछ लोग हैं जो तमाम तकनीक के आ जाने के बावजूद ख़त की महत्ता को भूल नहीं पाएं हैं। एक बानगी देखें खत की शक्ल में कविता-
उस दिन डाकिया
बारिश में
ले आया था तुम्हारे प्यारी चिट्ठी
                           उसमें गांव की सुगंध
                           मेरे और तुम्हारे हाथों की गर्माहट से
मेरे भीतर ज्वालामुखी फूट पड़ा था
सच! बहुत सारी बातें लिख छोड़ी थीं तुमने -
״समय से काम पर जाना
ठीक वक्त पर ख़ाना खाना
और सबसे जरूरी शहरी सांपिनों से दूर रहना
कितना ख़याल रखती हो मेरा
या कहूं कि अपना।
जमुना देवी
काली मंदिर के पास
चमारों की गली
गांव और पोस्ट आॅफिस-ढ़ूंढसा
जिला-अलीगढ़
उत्तर प्रदेश।

और इस कविता का अंत भी पत्राचार की शैली में अंत में पता के साथ होता है। ऐसे में ललित भी शामिल हैं। सच पूछें तो यह कवि का सहज उदगार आज की तारीख में ज्यादा मायने रखती है इसे कई संदर्भों में देखे-पढ़े जाने की आवश्यकता है। सड़क पर कूड़ा बिनते बच्चों की ओर किसका ध्यान जाता है। कौन इनकी भावनाओं को अपना मानता है? ऐसे दौर में ललित की कविता अनाथ गौरतलब है-
भोर होते ही
ठंड से सिकुड़
झोपड़ी से बाहर आ गया
चंदू।
चल पड़ा आजीविका की ओर
गली-गली
पड़े कूड़े के ढेर में
ढ़ूंढने लगा
पाॅलिथीन की थैलियों को
अधजली तीलियों को।
तमाम अच्छी कविताओं में कुछ ऐसी कविताएं भी मिलेंगी जो हमें अंदर झांकने, ठहर कर सोचने पर विवश करती हैं। ऐसी ही कविता 6 दिसम्बर 1992 और निगम बोध हैं। निगम बोध वास्तव में बोध कराता है कि अंततः हम कहां पहुंचने वाले हैं-
यहां का रास्ता
दुनिया का वास्ता
अकेला आया था
गया अकेला है
रोये-धोए कुछ दिन
दुनिया की रफ्तार
पकड़ न सकी समय को
निष्ठुर प्राणी
मौसम हावी
पूरक है इस समाज के।
कवि की व्यापक दृष्टि और विभिन्न भाव-भूमि की कविताएं उसे सर्वजनीन बनाती हैं। इधर की कविताओं में जिस तरह से सामाजिक दरकारों, हाशिए के लोगों को दरकिनार किया गया है यह दर्शाता है कि कवि अपने समष्टि-निष्ठा से पल्ला झाड़ रहा है। लेकिन इस निकष पर जब हम ललित की कविताओं का पड़ताल करते हैं तब एक सात्विक तोष होता है कि नहीं अभी भी कुछ कलमें हैं जो डक्यूमेंटेशन में लगी हुई हैं। ‘इंतजार करता घर’ अंठावन कविताओं का यह घर धौलाधार, हिमाचल की लड़कियों की दर्शन तो कराता ही है साथ ही कवि चिंता इससे कहीं आगे तक जाती है। इसकी बानगी देखी जा सकती है।
कितना अच्छा होता
यदि लोग गरीब न होते
औरतें शरीर न बेचतीं
बच्चों का बचपन संग होता
नलों में पानी रहता
सड़कों पर भय न होता
पुलिस भी ‘रक्षक‘ होती
मास्टर भी ‘गुरु‘ होते
कोई अनाथ महसूस न करता
गलियों में गर्भपात न होता।
देखने में यह कविता बेशक छोटी काया की है लेकिन इसकी चिंता इसकी काया से बाहर झांकती नजर आती है जो कहीं लंबी है। विमला कविता दो वजहों से खास बन पड़ी है जिसमें आज की शिक्षा व्यवस्था जिस तरह से कुछ ही इलाकों, शहरों, गांवों में पांव धर पाया है साथ ही गांव में किस कदर शहर की गंदी आदतें पहुंच चुकी हैं इस पर गांव की विमला कविता बेहतरीन है।
गांव में नही आती बिजली
नहीं मिलती शिक्षा
नहीं पहुंचते अध्यापक
नहीं पहुचती समय से पगार
पर समय से पहुंच जाती हैं
कच्ची शराब की थैलियां बेहिसाब
गुटखों की सौगात
तंबाकू के बोरे
पूरा गांव नशे में है
औरते़़ं ठगी-सी खड़ी हंै़
विमला व्यक्तिवाचक संज्ञा से बाहर निकल कर समूह चेतना बन चुकी है। जिसे ललित अपने किरदार से जरिए बातें पहुंचाने की कोशिश करते हैं। बाल मजदूरी और बाल शोषण आज पूरी दुनिया के लिए गहरे चिंता का विषय है। हजारों नहीं बल्कि लाखों बच्चे स्कूल, शिक्षा, स्वास्थ्य, सुरक्षा आदि न मिलने की वजह से जलालत की जिंदगी बसर करने पर मजबूर हैं। सरकारें आती हैं और कई मनमोहक घोषणाओं की चिंगारी जला कर चली जाती हैं। लेकिन हमारे समाज का बच्चा जो काम पर लगा है वह काम पर ही जाता है। घर की आर्थिक स्थिति उसे पढ़ने-लिखने नहीं देती। क्योंकि बच्चे न तो वोट बैंक हैं और न नागरिक ऐसे में उनकी ंिचंता करता ही कौन है। यह अलग बात है कि 1989 में संयुक्त राष्ट अमेरिका में एक सम्मेलन हुआ जिसे यूएनसीआरसी 89 कहा जाता है जिसमें विश्व के तकरीबन 120 देशों ने दस्तखत किए थे कि अपने यहां बच्चों को शिक्षा, सुरक्षा, भोजन आदि देंगे। लेकिन हकीकत है कि अभी भी भारत में 7 करोड़ से भी ज्यादा बच्चे स्कूल से बाहर हैं। 80 लाख से अधिक बच्चे कुपोषित हैं। ऐसे लाखों बच्चों के बचपन पर नजर डालती कविता ‘बाल मजदूर बने नवनिहाल’ को संजीदगी भरी अभिव्यक्ति ही कहना होगा।
 15 साल के दर्जनभर बच्चे
जिनके कपड़े फटे हुए हैं
अंगुलियों पर कई जगह पट्टी
बंँधी है
काम में लगे हैं
दे रहे हैं बर्तनों को
एक आकार
इस तरह की फैक्टरियां कई
कई इलाकों में कर रहे हैं काम
बचपन की उम्र
फैक्टरी में गर्द
जवानी के कोठे में
और बुढ़ापा आने से पहले ही
बिरजू, सूरज, कन्हैया ने
अपनी जि़न्दगी से
धो लिया बचपन
वे नहीें जानते
बचपन के गीत

इंटरनेट ने सच में हमारे आगे एक आाभासीय दुनिया रची है। जिसमें आज सब कुछ होता है। बल्कि कहना चाहिए किया जा सकता है। एक थका पिता दुल्हा देख सकता है, एक जवान बेटी अपने लिए पति तलाश सकती है, बेरोजगार नौकरी, कुछ मनमैले ‘चित्र’ लेकिन लिखे हुए शब्द को मिटा नहीं सकते। नेट के समानांतर एक और दुनिया जीती है इस ओर इशारा करती कविता ई- किताब हमारे सामने एक और दुनिया खोलती है-
भले ही इंटरनेट
कितना जादू चला ले
किताब का कुछ भी बिगाड़ नहीं पाएगा
छतों पर टंग जाए कितनी
डिश ऐंटीना
बनारस का घाट
अयोध्या के राम
इलाहाबाद का संगम
आगरा का ताज
लोग जाएंगे, आएंगे
गंगा में डुबकी लगाएंगे
गंगा की डुबकी
इंटरनेट पर थोड़े ही लगेगी।
लड़कियों को देखने, समझने और स्वीकारने के कई स्तर हो सकते हैं। बल्कि हमारे समाज में हैं भी। लड़कियों की दुनिया लड़कों की दुनिया से बिल्कुल भिन्न होती है। उनकी दिनचर्या भी अलग होती है। घर-परिवार के कामों में इतनी उलझी कि अपने लिए उनके पास समय नहीं होता। छोटे भाई को तो स्कूल छोड़ने जाती हैं लेकिन खुद स्कूल का मुंह नहीं देख पातीं। हमारे इसी समाज में लड़कियों के विभिन्न स्वरूप हैं। अलग-अलग चेहरे हैं जिसे ललित ने ‘यानी जीना सीख लिया’ में दर्ज किया है।
शीशे को खटखटाती
कटोरे को झुलाती
बारह-तेरह साल की लड़की
बदन पर फटी कमीज पहने
गुंजल बालों को फिराती
दांतों में बड़बड़ाती है-
बाबू जी! भूखी हूं
एक रुपया दे दो।
एक तरफ यह लड़की है तो दूसरी ओर सज धज कर बस में सवार लड़की व कामकाजी महिलाएं हैं जो पूरी ठसक के साथ अपनी जिंदगी अपने तई जी रही हैं। लड़कियों की विभिन्न छवियां देखनी हों तो यहां देखी जा सकती हैं।
सलवार-कमीज में लिपटी लड़की
जींस-टी शर्ट में कसी लड़की
गोरी लड़की काली लड़की
घुंघराले बालों के संग लड़की
मुस्कराती हुई लड़की
जानती है कि उसे मर्दों को
कैसे नचाना है
मर्द हैं कि....
अंगुलियांे पर नाचते है
प्यार एक ऐसा विषय पर व बिंदु पर जिस पर मजाल है किसी कवि, लेखक, कलाकार की लेखनी ना चली हो। अमूमन हर लेखक अपनी लेखनी से प्यार को परिभाषित करता आया है। ललित की कविताएं भी प्यार को छूती हैं। सहलाती हैं और एक साथ प्यार पर कई कडि़यों में  लिखा ले जाती हैं। एक नजर डालें
प्यार
छिपा हो कहीं भी
फूटकर बहेगा
अतःस्थल से
जिस तरह दीये से
रोशनी बहती है
और नहला देती है पूरे कमरे को
हां! उसी तरह
बिल्कुल वैसे ही
जिस तरह
बाजे से निकली मधुर ध्वनि
फैल जाती है दूर तक।
कई अलग अलग विषयों पर लिखी छोटी छोटी कविताओं को ललित ने विविध शीर्षक में पीरोया है। जिसमें गांव, नेता, विश्वास, तलाश, स्वागत, बच्चा, सोया नहीं आदमी आदि शीर्षकों में जल्दी में पढ़ी जाने वाली कविताओं को जगह दी है। जिसे एक सांस में एक ही समय में पढ़ी जा सकती हैं।
एक बानगी यह भी देखने योग्य है-
रोते बच्चों को मैं
चुप करा लेता हूं
बड़ों को मना लेता हूं
पर तुमको
मना न पाया
कहीें कोई कमी थी
सोचता हूं हैरान होता हूं।
और अंत में ललित यह निष्कर्ष निकालते हैं-
कोरे सपने में
जीना पसंद नहीं
लिखना सीख लिया
क ख ग घ।
पढ़ना सीख लिया
म से मेरा
ह से हिन्दुस्तान
यानी जीना सीख लिया।

एक कवि-कथाकार, लेखक से समाज एवं पाठकों को क्या अपेक्षाएं होती हैं? इस पर विमर्श करना और अपने लिए चुनौती स्वीकारना यह एक लेखक-कवि के लिए अहम होता है। पाठक एवं समाज की उम्मींदें इस वर्ग से यह होती हैं कि ये लोग अपनी लेखनी, शब्दों के माध्यम से कम से कम क्रांति न सही एक मुकम्मल राह जरूर दिखाएं। यूं तो विश्व में लिखे हुए साहित्य के बदौलत कं्रातियां भी हुईं हैं। समाज में बदलाव भी सफल हुए हैं। लेकिन इसके लिए जिस भाव-भूमि की दरकार होती है उसे भी नजरअंदाज नहीं कर सकते। यदि कवि की कर्म भूमि व भाव-जगत में होने वाली हलचलों पर नजर दौड़ाएं तो पाएंगे कि समाज में होने वाली सुगबुगाहटों के साथ ही थरथराती जनचेतना भी दस्तावेजित होती हैं। यह दस्तावेजीकरण हर कलमकर्मी करता है। उस लिहाज से देखें तो अपने समय की बेचैनी, क्रंदन और करवटों के साथ ही बदलते भाव-संवेगों को कवि बड़ी ही बारीकि से पकड़ता है। ललित की कविताओं का वितान व्यापक और विस्तृत है। इन्होंने समाज की चिंताओं को तो व्यक्त की हैं साथ ही शाश्वत सवाल जीवन क्या है? प्यार तेरे रूप क्या हैं? बुढ़ापा जिसने बुद्ध को बुद्ध बनाया, सवाल भी ललित को बेचैन करती हैं। अवकाश प्राप्ति के बाद की जिंदगी, अस्पताल की बैंच पर बैठा बीमार आदमी कैसे उम्र की ढलान पर लुढकता चला जाता है जिसकी वेदना भी कई कविताओं में रूप बदल कर ही सही किन्तु साफ सुनाई देती हैं।
झणिकाओं की रचना में भी ललित ने हाथ आजमाए हैं जो प्रीतिकर हैं। इस आंगन में विविधताएं हैं। किसिम किसिम के जीवन रंगों की छटाएं यहां देखी जा सकती हैं। जहां प्रेम कई रूपों, रंगों और भंगिमाओं में खूब फबा है। वहीं लड़कियां जो सड़क, बस, घर, गांव शहर हर जगह हैं उनकी अपनी ही जिंदगी है जिसे ललित ने अलग-अलग आयामों से देखने-समझने की कोशिश की है।  
हर कविता में एक कहानी जी रही होती है। हर कविता एक कथा कहती है। वैसे ही ललित की कविताएं भी अपने समय की कहानी कहती है। उस कहानी का दानव हमारे समाज का धत्ता बताता है। लेकिन कविता अपने तई इस दानव का प्रतिकार भी करती है। ऐसे प्रतिकार के स्वर ललित की कविताओं में सहज देखी-सुनी जा सकती हैं। प्रकृति की घटना कई बार ललित को झंकझोरती हैं। अंदर तक आलोढित करती प्रकृति विछोह की एक बानगी यह भी है-
कांटे को भी
दुख होता है
फूल के टूटने पर
पŸिायां रोती हैं
जड़े कंपकंपाती हैं।
इस कंपन की प्रतिध्वनि हमें मानवीय स्तर पर टूटन पर भी सुनाई देती है। जब व्यक्ति एकांत में स्वगत संवाद करता है। और निरा निपट अकेला महसूस करता है। तब कवि की लेखन और भी मुखर हो उठती है।
बोलते-बोलते
मैं चुप हो जाता हूं जब
लगता है धरा भी चुप हो गई
शान्ति का वास हो गया
मोटर-गाडि़यों का शोर
थम-सा गया
चहचहाट रुक गई
और मातम भी
भागीदार सा लगता है
कुहासे की किरण-सा
पतझड़ की ऋतु-सा
मन की मैल-सा
धुलकर कवच बनना।
दरअसल ललित हमारे बीच से ही संवाद के सूत्र भी ढंूढ़ लाते हैं ताकि बीच में अटकी बातचीत आगे बढ़ाई जा सके। इस उपक्रम में सड़क जैसी निर्जीव काया को भी मरहम मलने की वकालत करते ललित सड़क की पूरी काया को भी मानवत् आकार दे देते हैं। जिस तरह सड़कें कहीं नहीं जातीं। केवल उस पर चलने वाला पहुंचता है। कुछ बीच राह में ही ठहर जाते हैं या गंतव्य तक पहुंचने से पहले ही काल-कवलित हो जाते हैं। इस पर सड़कों के प्रति संवेदनशीलता लाजवाब है-
 सच हमारी जि़न्दगी में
सड़कांे का कितना महत्व है
और आज आदमी भी
तब्दील होता जा रहा है सड़क में
हो गए हैं ज़ख्म
खून रिस रहा है
पर
क्या करें ?
सड़कों पर कोई नहीं लगाता
मरहम-पट्टी
कोई नही आता
दुख-सुख प्रकट करने
अरे! सड़क तो
एक बेटी है, मां है
जो हदों का पार कर
बनाती है जीवन भर नक और रास्ता।
सचपूछा जाए तो ललित जी की कविताओं का एक अपना व्याकरण और अपना ही मानचित्र है जिसमें विविधताएं जीवन पाती हैं। जहां तक भाषाई संरचना और वाक् वैशिष्ठ्यता की बात है तो सहज और कई जगहों पर आम फहम की भाषा वाकई ध्यानाकृष्ट करती हैं। अमूमन भाषा की दृष्टि से कहीं कोई बाधा नहीं हैं। किन्तु यदि कवि खुद को विषयों को लेकर अपने आप को समेटकर आगे बढ़ता तो पाठकों को राहत मिलती। विषय वैविध्यता की वजह से कई बार पाठक कवि की संवेदना के सागर में डूबने सा लगता है। लेकिन संतोष यह जरूर है कि तकनीक के टेरा बाइट के युग में भी रोज दिन फेसबुक पर कविता लिखना और पाठकों को बांधे रखना एक चुनौती है तो इस चुनौती को भी ललित ने सहर्ष स्वीकारा है।
कौशलेंद्र प्रपन्न

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