कौशलेंद्र प्रपन्न
बाबू आप समझते नहीं हैं! किसी से गले लगने से पहले अपनी और उसकी सामाजिक वजूद तो देख लिया करो। कितने भोले हो बाबू! तुम सोचते हो कितने सफ्फाक दिल से किसी से गले लगते हो। लेकिन उसके लिए यह चाटूकारिता होगी। तुम तो खुले दिल और मन से तपाक से मिल लेते हो गले। वो उसे तुम्हारी कमजोरी मानते हैं बाबू।
तुम्हारी आवभगत उन्हें लगता है तुम छुपा से रहे हो। तुमने उन्होंने सार्वजनिक तौर पर गले क्यों लगाया? क्यों तुमने हंसते हुए उनसे हाथ मिलाया? सब कुछ देखा जा रहा है। देखा जा रहा है कि कैसे तुमने उन्हें विश किया? कैसे तुमने उनसे हाथ मिलाया? बाबू बड़े ही भोले हो।
समझा करो तुम ठहरे मजूर वो रहे हजूर। अंतर तो अंतर होता है। वो हैं तुम्हारे बॉस। तुम ठहरे उनके रिपोटी। यह अंतर यह फासले तुम्हें याद रखने थे। याद तो यह भी रखना था कि आख़िरकर वो हेड ऑफिस से आया करते हैं। तुमने क्या सोचा? उन्होंने एक दो बार हंस कर बात क्या ली, तुमने तो उन्हें अपना दोस्त मान बैठे। जबकि वो दोस्त नहीं। भूलों मत कि जो अंतर बने हैं वो अभी भी कहीं न कहीं मन के किसी कोने में जज्ब हैं। वो भी इस मनोदशा से बाहर नहीं आ पाए हैं।
क्या मजेदार तर्क है गले मिलो मगर अकेले में। अकेले में गले लग सकते हो। सार्वजनिकतौर पर गले न मिला करो। बाबू भोले मत रहो। कभी भी सिर कलम की जा सकती है। तुमने जो सहज ही गले लगाया उसका ख़मियाज़ा भुगतना होगा तुम्हें।
1 comment:
Sahi kaha ha...vyaktitv ki parakh ki jarurat ha
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