कौशलेंद्र प्रपन्न
मेट्रो में सुबह का समय। सीट पर खचाखच भीड़। लेकिन सीट मिल गई। मैं अपनी किताब 100 संपादकीय 1978 से 2016 तक द हिदू पढ़ने लगा। मेरे पास बैठी लड़की और उसके दोस्त आपस में बात कर रहे थे। मैं सुनना भी नहीं चाह रहा था। लेकिन कुछ पंक्तियां कोनों से टकरा रही थीं।
‘‘यार! सुबह तीन बजे से जगी हूं। नींद नहीं आ रही थी। मम्मी बार बार कह रही थी पढ़े ले।’’
‘‘नींद गहरी आ रही थी।’’ ‘‘कल रात से सिर में बहुत दर्द हो रहा है।’’
आपसी बातें और तेज होने लगीं। बीच बीच में मैं नज़रे उठा कर उन्हें देखता तो ‘‘शॉरी अंकल’’
‘‘अंकल डिस्टब हो रहे हैं।’’
‘‘मैंने कहा कोई बात नहीं। कहां पढ़ती हैं? क्या कर रही हैं?’’
वे बच्चे इंटिरियर डिजाइनिंग का कोर्स महारानी बाग से कर रहे हैं। आज उनका पेपर डिजाइनिंग का था। सिद्धांत और प्रैक्टिल दोनों।
मैंने बातचीत का सिलसिला जारी रखा। क्यों डर लग रहा है।कितनी पढ़ाई हुई आदि।
मैंने बस उनके डर को हल्का करने के मकसद से कहा कि जब परीक्षा में प्रश्न पत्र आए तो पहले सवालों को पढ़ने और उसकी भाषा को समझने की कोशिश करना कि क्या पूछा जा रहा है।उसके अनुसार अपनी पढ़ाई को इस्तमाल करना। मॉल्स गए हो, शोरूम में जाते हो, वहां देखा होगा इंटिरियर डिजाइनिंग कैसी होती है।उन्हें एक बार ध्यान से याद करना। काफी हद तक तुम्हारे सवालां के जवाब निकलने शुरू हो जाएंगे। आदि
बातचीत में उन्हें परीक्षा के डर से बाहर निकालना था। उन्हें परीक्षा की प्रकृति और चरित्र पर बात कर उनके मन को हल्का करना था। मैंने उन्हें कहा कि परीक्षा क्या जांचना चाहती है।परीक्षा में हम क्या मूल्यांकन करना चाहते हैं?आदि उद्देश्य स्पष्ट हों तो परीक्षा डराती नहीं।
बातचीत में मालूम ही नहीं चला कि कब कशमीरी गेट आ गया।लेकिन जाते जाते बच्चों ने जो स्माइल दी और कहा, ‘‘ अंकल जी आपने आज हमारा दिन बना दिया’’हम से कोई इस तरह परीक्षा पर बात ही नहीं करता। हर कोई डराते हैं।
मुझे लगता हैअपने बच्चों से परीक्षा और शिक्षा के मायने पर रूक कर बात करनी चाहिए। संभव हैहम बच्चों को डिप्रेशन और तनाव से बाहर निकाल सकें।
1 comment:
Post a Comment