कौशलेंद्र प्रपन्न
जब कभी उन्हें देखता हूं कि वो अकेले में क्या सोचते होंगे? क्या उन्हें अपने बच्चो की चिंता सताती होगी या उन्हें अपने छोटे भाई, छोटी बहनें याद आती होंगी?
पिताजी दो भाई और दो बहनें के परिवार से आते हैं। मेरी ही आंखों के सामने चाचा, बुआ सब एक एक कर चले गए। फूफा भी चले गए। उनके बच्चे हैं लेकिन उनसे बीस साल से भी ज्यादा समय बह चुका मुलाकात नहीं है। सब अपनी अपनी दुनिया में हैं।
पिताजी रह गए निपट अकेले। हालांकि इनके बच्चे हैं। नाती पोते, बहु,दामाद सभी हैं। लेकिन फिर क्या कारण है कि उनकी कविताओं में एक अकेलापन, एक कमी के भाव मिलते हैं। जैसे महादेवी वर्मा की कविताओं मे एक अप्रत्यक्ष की प्रतीक्षा और पुकार साफ सुनाई देती है वैसी ही कोई आवाज मुझे पिताजी की कविताओं में सुनाई देती है। ‘‘जीवन के इस मेले में मैंने अपने सारे सौदे बेचे/ मान-प्रतिष्ठा के सारे सौदे बेचे। बच रहा एक सौद जिसे बेचने आया हूं। आंसू का मोल नहींं होता।’’
‘‘मांगते हो तुम विदा पर दें विदा कैसे तुझे हम? नेह कैसे भूल जाएं बस यही केवल सीखाना’’ ये कुछ पंक्तियां हैं जो पिताजी की दुनिया की परतें खोलती हैं। कविताएं शायद कई अनकही बातें, टीस को बयां कर देने में मददगार साबित होती हैं। कई बार देखता हूं कि पिताजी की कविताओं में कई जगह अकेलापन मिलता है। लेकिन उसकी वजहें समझ नहीं पाता।
एक दफ्ा उन्हांने कहा अच्छा तो काशी बाबू भी चले गए? उस वाक्य में कहीं एक गहरी टीस या अकेलेपन का एहसास सुनाई दिया। वैसे ही सोचता हूं कि जब पिछले साल चाचा गुजरे तो उन्हें कैसा महसूस हुआ होगा? या फिर छोटी बहन के जाने के बाद उन्हें कैसे लगा होगा। अकसर पिताजी मौन में बैठा करते हैं। यह उनकी आदत में छुटपन से देख रहा हूं। आज भी दो से तीन घंटे मौन में बैठते हैं। उस मौन में किसे याद करते होंगे? कौन उनके ध्यान में आता होगा?
कुछ जिज्ञासाएं हैं जो इन दिनों काफी मुखर हैं।
1 comment:
Yah ek achoote vishay par likha lekh hai. Kaushlendra Ji, badhayee.
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