वो कोई हो भी हो सकता है। उम्र के साथ हमारे व्यहार भी प्रभावित होते हैं। वाकया ताज़ा है। हम यानी मां-पिताजी और साथिन साथ में रेस्तरां में खाना खा रहे थे।
पिताजी के कुर्ते का बाजू सांभर में डूब रहा था। बाजू चढ़ा दी गई। अब वो आराम में खाना खा रहे थे। लेकिन कभी मुंह पर कभी कुर्ते पर खाने की चीजें लग और टपक रही थीं। वो आराम से खाना खा रहे थे।
जब उन्हें वाशरूम में हाथ मुंह धुला रहा था तो पिताजी का चेहरा थोड़ा पेशो पश में नजर आया। पूछा ‘‘ क्या हुआ खाना पसंद नहीं आया क्या?’’
‘‘ रेस्तरां में खाने की आदत नहीं हैं।’’
‘‘खाना कुर्ते पर और मुंह के बाहर लग गया।’’
चेहरे पर संकोच साफ देख सका।
मैंने कहा क्या हुआ।
‘‘ उनके मुंह पर लग आए खाने को अपने रूमाल से साफ किया।’’
तब एक सहज बच्चे के मानिंद वो मुंह साफ करा रहे थे। कोई विरोध नहीं। कोई प्रतिवाद नहीं।
खाना गिरा और साफ भी हो गया।
किसी दिन हम भी तो आपकी उम्र में होंगे।
तब उनके चेहरे पर एक ऐसा भाव दिखा जिसे शायद मैं शब्दों में बयां कर सकूं।
हम सब के साथ वह उम्र भी आनी है। हम भी शायद लाख रेस्तरां में जाने के अनुभव से लबरेज़ हों लेकिन संभव है हमसे भी खाना मुंह और कपड़े पर गिर जाए। तब शायद हम भी ऐसे भाव से भर जाएं।
2 comments:
Sarahniy,ye chakra yuhin chalta rahega ...uttam
बहुत सही लिखा है आपने
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