Tuesday, January 31, 2017

लेखक गढ़ने की परंपरा का अंत


महेश दर्पण जी से मुलाकात एक अंश
प्रसिद्ध कथाकार महेश दर्पण जी के साथ औपचारिक और अनौपचारिक बातचीत का अवसर मिला। कहानी बुनने,लिखने, कहने सुनाने को लेकर काफी गंभीर और लंबी हुई। संस्मरण के दौर भी चले जिसमें उन्होंने साझा किया कि जैनेंद्र जी ने जिस उपन्यास को अधूरा छोड़ा दिया था जिसे पूरा करने के लिए उन पर दबाव बन रहे थे अंत में महेश जी ने गणेश की भूमिका स्वीकार की और उस उपन्यास को सुन कर लिखा। उपन्यास कोई और नहीं बल्कि दशार्क था।
महेश जी ने कहानी से लेकर संपादकों की दुनिया भी साझा की कि कभी राजेंद्र माथुर, रघुवीर सहाय, अज्ञेय प्रियदर्शन जैसे संपादक भी हुए जिन्होंने लेखक बनाए। बल्कि लेखकों की कॉपी को मांज खंघाल कर तैयार किया। प्रियदर्शन जी की चर्चा जब चली तो जनसत्ता कैसे छूट सकता था। उस समय की बातें भी हुईं। प्रियदर्शन जी किस शिद्दत से कॉपियां ठीक करते थे और लेखक से बात कर उसकी कमियां भी बताया करते थे और इस प्रकार से लेखक गढ़े जाते थे जो अब यह परंपरा खत्म हो गई।  

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