पाकिस्तान और भारत का रिश्ता तत्कालीन घटनाओं के उठा-पटक पर उतरता चढता
रहता है। हाल ही में फिर पांच भारतीय सैनिकों को मार डाला गया इससे एक बार
फिर पाकिस्तानी रवैए का मनसा का पता चला। इस तरह से एक ओर सरकार की घोषणों,
पहलकदमियों सद्इच्छाओं पर से भरोसा उठता है तो वहीं भवष्यि के रिश्ते की
नई डोर कमजोर होती दिखाई देने लगती है। सन् 1947 में यदि देश महज आज़ाद हुआ
होता और विभाजन टल जाता तो आज एक संपूर्ण भारत होता। यदि जिन्ना का हठ न
होता तो आज पकिस्तान न होता। भारत एक अविभाजित राष्ट के तौर पर दुनिया के
सामने होता। लेकिन यह सब अब निरा निरर्थक बातें हैं। क्योंकि इतिहास को
पलटा नहीं जा सकता। जो हुआ उसे उसी रूप में कबूल करना ही होगा। देश किन
शर्तों, बलिदानों और क्षत् विक्षत हालत में विभाजित हुआ यह आज इतिहास का
हिस्सा है। लेकिन इससे मुंह नहीं मोड़ा जा सकता कि जो हुआ उस राजनैतिक खेल
में आम जनता को बहुत कुछ खोना पड़ा। किस तरफ लोगों ने क्या और कितना खोया
इसका अनुमान और प्रमाण दोनों ही आज इतिहास के पन्नों में कैद हैं। जिन्हें
पलटना एक दुखद अनुभव से गुजरने सा है। जब भी विभाजन की बात उठती है तो एक
असहनीय पीड़ा दिलो दिमाग को झकझोर देती है। 1930 से लेकर 1940 तक का ऐसा
काल खंड़ है जिसमें पाकिस्तान की लालसा जिन्ना में प्रबल आकार ले रहा था।
जिन्ना को लाख समझाने की कोशिश की गई, लेकिन उनका व्यक्तित्व उन सभी
सुझावों को दरकिनार कर रहा था। अंततः भारत का विभाजन हुआ। इस विभाजन के दंश
पर हर दशक में फिल्में, उपन्यास, कहानियां, कविताएं एवं नाटक की रचनाएं
हुई। जिनमें जिन्ने लाहौर नई वेख्या ते जन्मया नई, अमृतमर आने वाला है, टेन
टू पाकिस्तान, सिक्का बदल गया, और मंटो की कहानियां प्रसिद्ध हैं। इन
कहानियों, उपन्यासों और फिल्मों से गुजरते हुआ एहसास होता है कि विभाजन के
एक दो साल पहले और बाद में दोनों ही देशों की क्या स्थिति थी। लोग किस कदर
मार काट मचा रहे थे। इसको रूपहले पर्दे पर देख कर रूह कांप जाते हैं। वहीं
कहानियों- उपन्यासों के पन्नों पर एक बार फिर से 1947 की घटनाएं नाचने लगती
हैं।
भारत में जिस तरह से पाकिस्तान को लेकर भावनाएं प्रबल हुईं उससे
ज़रा भी कम पाकिस्तान में भारत को लेकर भावनाएं नहीं गढ़ी गईं। एक ओर आज
भी पाकिस्तान भारत के जनमानस में एक शुत्र, आतंकी मुल्क के तौर पर ही छवि
बनाए हुए है। वहीं पाकिस्तान में भी भारत को लेकर कोई साकारात्मक छवि नहीं
गढ़ी गई। पाकिस्तान के स्कूली समाजशास्त्र की किताबों में आज भी भारत का
जिक्र एक ऐसे मुल्क के तौर पर मिलता है जैसा हम अपने भारत में पाकिस्तान को
लेकर पढ़ाते हैं। प्रो कृष्ण कुमार ने बड़ी ही शिद्दत से पाकिस्तान के
स्कूली पाठ्य पुस्तकों का विश्लेषण मेरा देश तुम्हारा देश किताब में किया
है। इस किताब को पढ़ते हुए महसूस होता है कि वहां आज भी समाजशास्त्र की
पाठ्यपुस्तकें 1947 में ही अटकी हुई हैं। बेगम अनिशा किदवई की किताब हो या
कमलेश्वर की कितने पाकिस्तान आज भी प्रासंगिक हैं। जिन्हें खुले मनोदशा के
साथ पढ़े जाने की आवश्यकता है।
भारत का विभाजन अनिता इंदर सिंह की
किताब जो नेशनल बुक टस्ट से छपी है इसे आज की तारीख में पढ़ते हुए मालूम
होता है कि इतिहास में हमने यानी दोनों ही मुल्कों के राजनैतिक हस्तियों,
रणनीतिकारों ने कहां कहां भूलें कीं। वह चाहे जिन्ना हों या नेहरू।
कांग्रेस पार्टी हो या मुस्लिम लींग दोनों ही ओर से कई भयानक चूकें हुईं
जिसका खामियाज़ा हमें विभाजन के तौर से भुगतना पड़ा है। अनिता इंदर सिंह
बड़ी ही तफ्सील से विभाजन के परत को खोलती और विश्लेषित करती हैं। वहीं
बलराम नंदा लिखित गांधी और उनके आलोचक जो कि सारांश प्रकाशन से प्रकाशित है
इसमें भी गांधी और भारत विभाजन, अमृतसर 1919 और विभाजन पर नरसंहार आदि लेख
बेहद सारगर्भित हैं। गांधी जी का अहिंसावादी रूख वास्तव में बंगाल, बिहार
में आग की तरह फैल रही हिंसा, नरसंहार को रोकने में सफल रही, लेकिन भारत को
विभाजित होने से बचा नहीं पाई।
आज की तारीख में विभाजन और पाकिस्तान
को एक स्वतंत्र लोकतंत्रिक देश स्वीकार करना चाहिए न कि इस रूप में स्वीकार
करना कि वह हमारा अविभाजित हिस्सा है। क्योंकि हम अभी भी अतीत मंे अटके
हुए हैं। हमें अतीत से निकल कर आज की चुनौतियों और हालात को कबूल करना
होगा। शिक्षा शास्त्र और समाजशास्त्र की आम समझ यह बताती है कि ईष्या-
द्वेष की भावनाओं को कम से कम बच्चों के दिमाग में भरने की बजाय उन्हें
स्वस्थ चिंतन और मानवीय बर्ताव सीखें। जिस देश में अभी भी स्कूली पाठ्य
पुस्तकों में विभाजन एवं इससे जुड़े व्यक्तियों के बारे में गलत तालीम दी
जा रही हो तो ऐसे में किस तरह के नागरिक पैदा होंगे इसका अनुमान लगाना कठिन
नहीं है।
पाकिस्तान में पांच साल तक जनता की चुनी सरकार अपना
कार्यकाल पूरी कर चुकी है। साथ ही उसे निर्वाचित नए राष्टपति भी मिल चुके
हैं जो सितम्बर में जरदारी के बाद कार्य भार संभालेंगे ममनून हुसैन। आशा की
जा रही है कि नवाज़ शरीफ सरकार भारत के साथ मैत्रीपूर्ण रिश्ते को आगे
बढ़ाने में सकारात्मक कदम उठाएंगे। साथ ही ममनून हुसैर जो कि आगरा में 1940
में जन्मे हैं उनसे भारत खासकर आगरे के लोगों को काफी उम्मीद बंधी है। अब
यह देखना दिलचस्प होगा कि ममनून हुसैन और शरीफ साहब क्या सचमुच भारत के साथ
सहज रिश्ता बनाने में रूचि लेते हैं या कि यह भी आम घोषणाओं की तरह महज
राजनैतिक बयान तक सीमित रह जाएगा।
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