यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Monday, August 30, 2010
हिंदी में अस्तावार्क पर हसने वाले ज्यादा हैं
इन दिनों इक अलग विवाद गरम है ख़ास कर विभूति नारायाण राय के बयान पर कितनी बिस्तर पर कितने बार शीर्षक सुझ्या है उन महिला लेखिका के लेखन पर जिन किताबों में विस्तार पर या रिश्तों के ज़िक्र हुवे हैं। जनक के दरबार में तत्व मीमांशा के लिए विद्वान अस्तावाक्र के वक्रता को देख कर हस पड़े थे। उस पर अस्तावाक्र का ज़वाब था ' महाराज ये तो अभी देह विमर्श से ऊपर ही नहीं उठ पाए हैं ये क्या तत्व मीमांशा करेंगे ? ठीक यही हाल आज हिंदी जगत में महिला लेखन के साथ हो रहा है। पुरुष लेखक महिला लेखन को देह विमर्श से ऊपर देख ही नहीं पाते। यैसे में उनकी लेखनी में कितना और किसे किस्म का कौशल है इस बात की चिंता पीछे रह जाती है।
Friday, August 20, 2010
कर्म की गति और जीवन के राह
जीवन में राह कोई भी आसन नहीं होते और न ही कठिन। राह इस बात पर निर्भर करता है कि राह पर चलने से पहले क्या हमने जच्पद्ताल की। क्या हमने अपनी तैयारी जाच की कि हम जिस रास्ते पर कदम रख रहे हैं उस पर चल पायेंगे भी या नहीं। हलाकि बोहोत कुछ राह पर चल कर ही उसकी जोखिमें मालुम हो पाती हो पाती हैं। इस लिए कई बार जोखिम उठने भी पड़ते हैं। जिसे भी जोखिम उठए है उनको सफलता के साथ कुछ हार भी मिले हैं लेकिन वो हार सफलता के आगे अदने से हो जाते हैं।
कोई खुद की विचार्शुन्यता का ठीकरा दुसरे के माथे नहीं फोड़ सकता। जो भी फोड़ता है वो अपनी जिम्मेदारी से भाग रहा है । दर्हसल हम खुद ही जोखिम नहीं उठाते। फिर ठीकरा दसरे के माथे न फोद्ये तो बेहतर। जीवन में कई बार यैसे भी पल आते ही हैं जब हमने आगे के पथ नहीं सूझते। लगता है हम आज तलक गलत ही राह पर भाग रहे थे। सारा का सारा परिश्रम जो बेकार गया। लेकिन वास्तव में हमारी समझ , सूझ और कर्म कभी विफल नहीं होते। समय के साथ वो हमारे संग हो लेते हैं।
क्या कोई इस दुनिया से भाग कर खुद या कि समाज का परिवर्तन , पलट कर पाया है ? नहीं हार कर भाग कर कोई समाधान नहीं निकाल सकते। जूझ कर ही राह धुंध से भी निकाली जा सकती है।
थक कर बैठ गए क्या भाई.....
मंजिल दूर नहीं है....
कुछ और दूर कुछ दूर,
चलना है आठो याम।
'हम को मन की शक्ति देना मन विजय करें। दूसरों के जय से पहले खुद का जय करें। '
Wednesday, August 18, 2010
नशा और स्चूली लड़के
कसुअली में भी कोई बोहोत ज्यादा बेहतर इस्थिति नहीं कही जा सकती। यहं भंग खूब चलन में है। शाम होते ही यहं के बासिन्दे शराब और देशी थर्रा में सू जाते हैं। पहाड़ों में भंग खाना और पाना बेहद ही आसन है।
अगर देश के दुसरे कोने कि बात करें तो पायेंगे कि वहा भी नशा लेने का चलन है यहं यह अलग बात है कि नशा लेना का रूप अलग हो जाएगा।
स्कूल की बात करे तो पढ़ों और खुद ही पढो। मास्टर जिस बस हाजरी लगाने तक की ज़िमादारी निभाते हैं। जो पढ़े और पढने की आदत से लाचार हैं वो खुद ही पढ़ते हैं और खेद ही समझते हैं। छात्रों को तो गुरूजी की निजी शरण में जाना पड़ता है।
Saturday, August 14, 2010
बार बार खुदी से लड़ना और थक कर....
कुछ लोग अपने आस पास इक जाल बुन कर रखते हैं। छेद कर झांक पाना आसन नहीं होता। वो लोग कभी ना नही कहते। हर बार हर मुलाकात में उम्मीद की इक झीनी रौशनी थमा देते हैं ताकि आप उनके जाल से बाहर न जा सकें। कितना बेहतर हो कि उमीद की उस किरण को समय पर बुझा दें तो कम से कम आप और कुछ कर सकें या सोच ही सकें।
Friday, August 13, 2010
आ से आम आदमी और आ से आज़ादी
आ से आम आदमी किसे तरह अपनी ज़िन्दगी बसर कर रहा है उसे देख कर अंदाजा लगा पाना ज़रा भी मुश्किल नहीं कि वह मौत को गले लगाने में पीछे नहीं मुड़ता। आम आदमी को विश्वास हो चूका है कि उसे इसी तरह कबी महँगी होती रोटी, सब्जी और आसियान की उमीद में आखों की सपने सुखा के शिकार होने हैं।
ब्लैक बेर्री और नैनो की चिंता साथ में खेल में खुद को झाड पोच कर दिखने की जीद कितने लोगों को बेघर किया गया इसका अंदाजा लगा सकते हैं। हर तरफ जल ही जल , घोटाला ही घोटाला और कल के नाम पर करोडो रूपये की....
आज़ादी और घोटाला, सुखा और बाढ़, रोटी और मॉल, एक और कूलर के बीच फासले तो नहीं मिटा पाए लेकिन हाँ आज़ादी मुबारक के सन्देश अगर्सारित करने में आज़ादी समझते हैं। आज़ादी मुबारक
Saturday, August 7, 2010
सेल के खेल में
सेल के खेल में सब कुछ गवा कर भी हम कितने खुश होते हैं। जब कि सच कुछ और ही होता है। सेल में न वापसी न बदलावों और न ही आपकी बात सुनी जाती है इक बार सामान बिक जाने के बाद दुकान पर जाएँ वही सेल्स मेनेजर व सेल्स बॉय आप की और देखता तक नहीं है। उस पर तुर्रा याह क्या बात है जब सामान खरीदने गए थे तब कि बर्ताव और बाद के बर्ताव में बोहुत अंतर आ जाता है। तब उनको सामान सेल करना था अब आपका काम अटका है।
सेल का फंदा तो बड़ा ही मौजू है , जो सामान आम दिनों में ६००, ८०० रुपे के होते हैं वही सेल में २५००, ३००० रूपये के ताग के साथ दीखते हैं। us par 50-50 % के सेल के बाद ५००, ८०० रूपये के आते है हम भी कितने खुश होते है कि सेल में खरीदारी की हैं। जब कि ज़रा दिमाग का इस्तमाल करें तो पायेंगे कि बिना सेल में और सेल के सीजन में कोई फर्क नहीं पड़ता।
सेल के नाम पर पिछले साल के सामान निकलने के ये सब नायब तरीके होते हैं।
Wednesday, August 4, 2010
कैसे कैसे बयान
दो माह पहले इक कथाकार संपादक ने धर्म ग्रंथो को मल मूत्र तक कह डाला। लेकिन मामला टूल नहीं पकड़ा सो माफ़ी का सवाल नहीं उठा। लेकिन सोचने को विवास करता है कि इन बयानों के पीछे किसे तरह की मानसिकता होती है? साफ़ तौर पर कहा जा सकता है कि यह भी इक नाम छपने और विवाद में बने रहने का स्टंट है। वर्ना इन लोगों में पाक रही साधन्त कभी कभी बाहर आ जाते हैं।
नेता और पार्टी के बीच तो इस तरह की बयान बाजी तो होती रहती है लेकिन प्रचार खत्म होते ही गले मिलने की चलन भी खूब है। वाह क्या ही बयान बाजों के बीच भाईचारा है।
Monday, August 2, 2010
नार्यनते यत्र प्रताद्यानते....
आज महिलाए किसे तरह घर , दफ्तर , ससुराल आदि जगह पिटाई खाती हैं किसी से छुपा नहीं है। आज इस वाक्य को बदल कर कुछ इस रूप में लिखना जाना चाहिय - जहाँ जहाँ नारी की पिटाई होती है वहां वहां अशांति की वस् होती है।
उस पर तुर्रा यह कि वोमेन एम्पोर्वामेंट की बात जिस शिदात से की जा रही है वह और कुछ नहीं बल्कि दिखावा है। राजनैतिक चाह और रूचि कैसी है इस और इशारा करता है। वर्ना महिला आरक्षण बिल अब तक ताल नहीं रहा होता। हर बार कुछ न कुछ पंगा लग जाता रहा है।
देश की हाल क्या बयां करें को नहीं जानत है कि हर पल लड़की , औरत की जिस क़द्र पिटाई होती है उसे हम इन्सान तो क्या इक जानवर भी कुबूल नहीं कर सकता। २१ वि सदी में हम महिल्याओं को शराब, रात घर से पार बिताते और गर्भनिरोधक गोली को हाजमोला की गोली की तरह चूसते देखा है। तो यह है न्यू , आधुनिक और अल्ट्रा मोर्डेन प्रीती वोमेन आफ डा इंडिया।
शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
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प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
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कादंबनी के अक्टूबर 2014 के अंक में समीक्षा पढ़ सकते हैं कौशलेंद्र प्रपन्न ‘नागार्जुन का रचना संसार’, ‘कविता की संवेदना’, ‘आलोचना का स्व...
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bat hai to alfaz bhi honge yahin kahin, chalo dhundh layen, gum ho gaya jo bhid me. chand hasi ki gung, kho gai, kho gai vo khil khilati saf...