सोची हुई बात जब सच हो जाए तो उसे क्या कहेंगे औरोबिन्दो घोष ने कहा था के हम जिस तरह के विचार हम करते हैं वो विचार कल्पना आने वाले समय में घटित होती हैं । इस लिए नकारात्मक सोच न तो अपने लिए और न ही दुसरे के लिए रखना चाहिए। क्या पता वो कब कैसे सच में साकार हो जाए। २६ की शाम मैंने इक कविता लिखी की बोहोत दिनों से कुछ हुआ नही, न बम बलास्ट हुआ न आत्महत्या हुई, किसे ने कुछ नही किया। और देखिये शाम होते न होते सच में मुंबई में इतना बड़ा आतंकी हमला हुआ।
या तो इसे आप संजोग कह ले या शब्द की शक्ति की शब्द ब्रमः होता है शब्द की शक्ति होई है।
शब्द की साधना की जाती है। इक शब्द क्या नही कर देता।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Friday, November 28, 2008
Tuesday, November 25, 2008
बोहोत दिन से कुछ हुवा नही
बोहोत दिन बीते न हसी आई,
न दोस्तों की बात पर ताजुब,
क्या कहूँ की बस तेरी याद आई।
क्या कहूँ ,
कुछ दिनों से लोगों को ,
आर्थिक मंदी के आगे ज़िन्दगी खाक करते देख,
बाज़ार पर हसी आई।
न दोस्तों की बात पर ताजुब,
क्या कहूँ की बस तेरी याद आई।
क्या कहूँ ,
कुछ दिनों से लोगों को ,
आर्थिक मंदी के आगे ज़िन्दगी खाक करते देख,
बाज़ार पर हसी आई।
Thursday, November 20, 2008
चुनाव के मौसम में
चुनाव के मौसम में अखबारों के पन्ने, टीवी पर प्रचार के भरमार हो जाती है। नेता लोग तरह तरह के करामत करते नज़र आते हैं। इन दिनों अखबारों के पन्नो पर नेता पसरे होते हैं। इससे कमसे कम अखबारों को कमी तो होत्ती ही है ।
किसी के पैर छुते तो किसी को गले लगते नज़र आते नेता जी बेसक साल भर नज़र न आयें लेकिन साहिब चुनाव आते ही नेता जी गली गली भ्रमण करने लगते है। समझा करो सर जी चुनाव का मौसम है।
किसी के पैर छुते तो किसी को गले लगते नज़र आते नेता जी बेसक साल भर नज़र न आयें लेकिन साहिब चुनाव आते ही नेता जी गली गली भ्रमण करने लगते है। समझा करो सर जी चुनाव का मौसम है।
Wednesday, November 19, 2008
प्यार क्या खतरनाक होता है
प्यार क्या सचमुच बोहत खतरनाक होता है की जो प्यार करने की गलती करता है उसे या तो गोली खानी पड़ती है या फिर रेल के निचे फेक दिया जाता है मरने के लिए। चाहे वो देश का कोई भी कोना हो कई जगह इसी तरह की घटनाये घटी हैं।
Tuesday, November 18, 2008
कुछ बातें कुछ यद्यें
जब बात निकलती है तो पुराने गुजरे समय की कई घटनाएँ खुलती चली जाती हैं। पिछले दिनों अपने पुराने दोस्त से बात हुई इनदिनों वो नेपाल में है वैसे तो वो नेपाल का ही है लेकिन काफी समय से संपर्क टूट सा गया था। चाँद तस्वीरों से झाकता वो लंबा लम्हा यका याक ताजा हो उठा। वही कदकाठी वही अंदाज बस बदला था तो समय। लंबे समय से न मिल पाने के कई मजबूरियां थीं। पर बातें तजा तरीन थीं। लगा ही नही की हम इतने समय की साडी बातें साझा नही किया।
कुछ दोस्त होते हैं जो दूर तो होते हैं मगर जब भी मिलते हैं वही गर्मी वही ज़जबत होती है। कितने खुशनसीब होते हैं वो लोग जिन्हें सचे दोस्त मिला करते हैं। दोस्ती वास्तव में निभाई जाती है। यूँ ही नही दिल लुभाता कोई।
कुछ दोस्त होते हैं जो दूर तो होते हैं मगर जब भी मिलते हैं वही गर्मी वही ज़जबत होती है। कितने खुशनसीब होते हैं वो लोग जिन्हें सचे दोस्त मिला करते हैं। दोस्ती वास्तव में निभाई जाती है। यूँ ही नही दिल लुभाता कोई।
Thursday, November 13, 2008
सच में जो रोज़ शामिल हो....
यह सच है जो आपकी ज़िन्दगी में रोज के उठा पटक , घटनावो में शामिल होता है वही दूर जा कर भी दूर नही होता। बल्कि कहना चाहिए के जो दूर रहा कर भी आपकी रोज के लाइफ में शामिल होते हैं वो भी बेहद याद आते ही हैं। कभी कभी यूँ होता है की वो दोस्त मिल जाता है रस्ते में या कहीं किसी जगह तो वही भावः नही निकलते जो कभी साथ रहते लगाव हुवा करता था। सम्भव है आप भी इस तरह के अनुभव से गुजरे हों। दरअसल होता यह है की जो लोग साथ होते हैं वो लड़ते भी हैं , प्यार भी उतना ही करते हैं। दोनों ही लगावो के रंग हैं ।
यही रंज में न बदल जाए इए का ख्याल रखना चाहिए।
यही रंज में न बदल जाए इए का ख्याल रखना चाहिए।
Wednesday, November 12, 2008
उर्दू जौर्नालिस्म रोल एंड....
उर्दू पत्रकारिता का अतीत और भविष्य पर दयाल सिंह कॉलेज में सेमिनार हुवा। इसमे उर्दू और हिन्दी के पत्रकार शामिल थे। लोगोनो की चिंता यह नही थी, के उर्दू पत्रकारिता को कैसे आज की चुनौतियों से लड़ने का औजार मिले या दिया जाए। बल्कि अमूमन वक्तावों ने केवल उर्दू ज़बान की तारीफ के पूल बांधे।
जबकि आज उर्दू पत्रकरिता को टेक्नोलॉजी बाज़ार और पाठक को समझना होगा।
जबकि आज उर्दू पत्रकरिता को टेक्नोलॉजी बाज़ार और पाठक को समझना होगा।
Tuesday, November 11, 2008
क्या कोई दुःख से चिपक कर....
क्या कोई दुःख से चिपक कर लंबे समय तक रह सकता है ? या कोई भी दुःख से लग कर जयादा समय तक चल नही सकता। एक समय का बाद दुःख भी ज़रा हल्का पड़ने लगता है। और देखते ही देखते दुःख का रंग ज़रा से सुखद बयार पा कर फुर्र होने को बैचन हो जाता है। कालिदास की एक लाइन है सुख दुःख चक्र की तरह होता है।
दोनों ऊपर और निचे होते रहते हैं।
फिर क्या कोई इस फलसफा को लाइफ में ढल पता है ? जिसने भी इस पर अमल किया उसका दुःख काल कम होता चला जाता है।
दोनों ऊपर और निचे होते रहते हैं।
फिर क्या कोई इस फलसफा को लाइफ में ढल पता है ? जिसने भी इस पर अमल किया उसका दुःख काल कम होता चला जाता है।
Thursday, November 6, 2008
बहन को गले लगाया तो....
लगा जैसे बोहोत बड़ा हो गया। बहन की आखों में आंसू थे , हाथों की पकड़ में प्यार।
अपने ही शहर में
वो अपने ही शहर में चार दिन और चार रात रुका लेकिन अपने घर नही। वो तो रुका रहा देखते हुए सपने जिससे मिलने के लिए तक़रीबन ८०० किलोमीटर का फासला तै कर आया था अपने ही शहर में। लेकिन अपने घर न ही रुका और न ही ख़बर ही थी घर वालों को की उनका बेटा शहर में है। मगर घर पर नही।
कचोट तो उसे भी हुई जब की कैसे हो की अपने घर नही गए ? कमल है कोई इतना करीब हो जाता है इक लड़की के लिए जो घर न जाए ? तब लगा की कुछ तो सच है। वास्तब में कुछ तो उसमे है की वो अपने घर न जा कर सीधे मिलने उससे चल पड़ा था।
रस्ते में क्या कुछ नही मिले सब कुछ वही रस्ते , वही दुकानें, वही सब कुछ मगर इन सब से बेखबर इक ही धुन में बढ़ता उसके घर जा पंहुचा। वो भी इंतजार में थी लेकिन उससे क्या मालूम की ज़नाब अपने घर न जा कर सीधे उससे मिलने आ धमके।
पर हुजुर यही सच है। चार दिन चार रात अपने ही शहर में रहे मगर अगनाबी की तरह। रेल गाड़ी में बैठे तो लगा पिता कह रहे हों बेटा ठीक से जाना, माँ की आखों में आसू पूछती से की क्या तू तो सब कब आता है और कब चलने का वकुत हो जाता है पता ही नही चलता....
सोच में डूबा बिता था तभी माइक पर आवाज गूंजी गाड़ी बस कुछ ही समय में आने वाली है। और रेल पर बैठ गए कब गाड़ी नदी , खेत , स्टेशन को पर करती गुजर गई तब पता चल जब मूंगफली वाला आवाज लगा रहा था टाइम पास टाइम पास।
समय के दरमियाँ वो , रातें , दिन दिन भर सोचना , आजान की आवाज से जागना सब कुछ घूम जाती थीं।
कचोट तो उसे भी हुई जब की कैसे हो की अपने घर नही गए ? कमल है कोई इतना करीब हो जाता है इक लड़की के लिए जो घर न जाए ? तब लगा की कुछ तो सच है। वास्तब में कुछ तो उसमे है की वो अपने घर न जा कर सीधे मिलने उससे चल पड़ा था।
रस्ते में क्या कुछ नही मिले सब कुछ वही रस्ते , वही दुकानें, वही सब कुछ मगर इन सब से बेखबर इक ही धुन में बढ़ता उसके घर जा पंहुचा। वो भी इंतजार में थी लेकिन उससे क्या मालूम की ज़नाब अपने घर न जा कर सीधे उससे मिलने आ धमके।
पर हुजुर यही सच है। चार दिन चार रात अपने ही शहर में रहे मगर अगनाबी की तरह। रेल गाड़ी में बैठे तो लगा पिता कह रहे हों बेटा ठीक से जाना, माँ की आखों में आसू पूछती से की क्या तू तो सब कब आता है और कब चलने का वकुत हो जाता है पता ही नही चलता....
सोच में डूबा बिता था तभी माइक पर आवाज गूंजी गाड़ी बस कुछ ही समय में आने वाली है। और रेल पर बैठ गए कब गाड़ी नदी , खेत , स्टेशन को पर करती गुजर गई तब पता चल जब मूंगफली वाला आवाज लगा रहा था टाइम पास टाइम पास।
समय के दरमियाँ वो , रातें , दिन दिन भर सोचना , आजान की आवाज से जागना सब कुछ घूम जाती थीं।
शहर के प्लात्फोर्म पर
क्या कभी अपने शहर के रेलवे स्टेशन से आपको लगाव रहा है ? क्या कभी अपने ही शहर के प्लात्फोर्म को ट्रेन से पार किया है ? नही फिर आप समझ सकते हैं, कैसा लगेगा ? अपने शहर को ट्रेन से पार करना।
आप स्टेशन पर बिना ....
आप स्टेशन पर बिना ....
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