क्या कभी शहर से गुजरते हुवे शहर की सडको पर लगे होर्डिंग्स पर नज़र डाली है ? नही तो कभी डालें आपको शहर के बदलते मिजाज़ का पता चलेगा। रेस्तरा, होटल से लेकर शहर में होने वाले जलसा , आन्दोलन सब की ख़बर शहर में प्रवेश करते ही मेल जाती है।
यह एक ऐसा मंच है जहां आप उपेक्षित शिक्षा, बच्चे और शिक्षा को केंद्र में देख-पढ़ सकते हैं। अपनी राय बेधड़ यहां साझा कर सकते हैं। बेहिचक, बेधड़क।
Sunday, August 24, 2008
Thursday, August 21, 2008
जब खेल में मैडल आया है
सरकार की तरफ़ से तोफा देने का सिलसिला निकल पड़ा है। मगर कोई जमीनी हकुकित नही जान पता की किस हालात में हमारे खिलाड़ी अभ्यास करते हैं। किन बुनादी ज़रूरत के बगैर वो ख़ुद को तैयार करते है।
बेहतर तो ये होता की शुरू से सरकार प्रतिभशाली युवा को बढावा देना होगा।
फिलहाल सरकार सर्वाशिशाका अभिवन को कारगर बनने के लिए विद्यालय में खेल को तवज्जो दिने का मन बनाया है।
बेहतर तो ये होता की शुरू से सरकार प्रतिभशाली युवा को बढावा देना होगा।
फिलहाल सरकार सर्वाशिशाका अभिवन को कारगर बनने के लिए विद्यालय में खेल को तवज्जो दिने का मन बनाया है।
Tuesday, August 5, 2008
अर्जुन की गांडीव
कभी सोचता हूँ,
अर्जुन की गांडीव जब पेड़ पर तंगी गई होगी ,
तब कैसे अपनी अन्दर के अर्जुन का समझए होंगे ,
तीर तो चलने को तैयार पर गांडीव ही नही ,
कलम तो पास में हो पर ,
लिखने पर पावंदी लगी हो तो ...
विचार यूँ ही पड़ पर फलते होंगे ,
आज कल कई हैं जिनके विचार की पोटली पड़ पर ही रहा करती है।
.........
बाहर की आवाज़ से तंग आ कर ,
अक्सर अन्दर के कमरे में चला जाता हूँ ,
पर वहां भी माँ के घुटने से उठी आह बजने लगती है,
पिताजी की आखें कहने लगती हैं ढेर से सवाल ,
या फिर कालेज की दोस्त की हँसी गूंजने लगती है॥
तंग आकर बैठ जाता हूँ -
देखने टीवी पर वहां संसद के हंगामे सुनाये जाते हैं ।
परेशां पहले की तस्वीर देखने लगता हूँ ,
सोचा अतीत की फोटो में तोडी देर रह लूँ ,
मगर उन तस्वीरों में मेरे भरे काले बाल सर दिखे ,
जैसे ही अपने उचाट होते सर पर सोचता हूँ ,
तभी काम वाली बेल बजा देती है ,
मैं सोचता ही रह जाता हूँ ,
आवाज कमरे में भी शांत न हो सका।
अर्जुन की गांडीव जब पेड़ पर तंगी गई होगी ,
तब कैसे अपनी अन्दर के अर्जुन का समझए होंगे ,
तीर तो चलने को तैयार पर गांडीव ही नही ,
कलम तो पास में हो पर ,
लिखने पर पावंदी लगी हो तो ...
विचार यूँ ही पड़ पर फलते होंगे ,
आज कल कई हैं जिनके विचार की पोटली पड़ पर ही रहा करती है।
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बाहर की आवाज़ से तंग आ कर ,
अक्सर अन्दर के कमरे में चला जाता हूँ ,
पर वहां भी माँ के घुटने से उठी आह बजने लगती है,
पिताजी की आखें कहने लगती हैं ढेर से सवाल ,
या फिर कालेज की दोस्त की हँसी गूंजने लगती है॥
तंग आकर बैठ जाता हूँ -
देखने टीवी पर वहां संसद के हंगामे सुनाये जाते हैं ।
परेशां पहले की तस्वीर देखने लगता हूँ ,
सोचा अतीत की फोटो में तोडी देर रह लूँ ,
मगर उन तस्वीरों में मेरे भरे काले बाल सर दिखे ,
जैसे ही अपने उचाट होते सर पर सोचता हूँ ,
तभी काम वाली बेल बजा देती है ,
मैं सोचता ही रह जाता हूँ ,
आवाज कमरे में भी शांत न हो सका।
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शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र
कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...
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प्राथमिक स्तर पर जिन चुनौतियों से शिक्षक दो चार होते हैं वे न केवल भाषायी छटाओं, बरतने और व्याकरणिक कोटियों की होती हैं बल्कि भाषा को ब...
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bat hai to alfaz bhi honge yahin kahin, chalo dhundh layen, gum ho gaya jo bhid me. chand hasi ki gung, kho gai, kho gai vo khil khilati saf...