कौशलेंद्र प्रपन्न
वर्णों की पहचान क्या पढ़ना है? या वर्णों को बोल लेना पढ़ना है? यदि गहराई से सोचें तो शायद हम इसे पढ़ना नहीं मानेंगे। यह वर्णों की पहचान व आकृतियों को देखने की आदत तो हो सकती है, लेकिन पढ़ने एवं समझने की श्रेणी में नहीं गिन सकते। अफसोस की बात है कि जब हम बच्चों की भाषायी समझ का आकलन करते हैं तब हमारा ध्यान इन्हीं कौशलों पर होता है। बच्चे किन किन शब्दों को ठीक से बोल, लिख और पढ़ लेते हैं। किन शब्दों को लिखने बोलने और पढ़ने में गलतियां कीं आदि आकलन के मुख्य बिंदु होते हैं। जबकि भाषा के कौशल व भाषायी समझ कहती है कि बच्चे की भाषायी दक्षता की परीक्षा कुछ वर्णों को रट कर सुना देने व पढ़ देने से नहीं की जा सकती। भाषा शिक्षण में बुनियादी खामियों पर नजर डालें तो यह समझना आसान हो जाएगा कि बच्चे क्यों नहीं पढ़ पाते? बच्चे इसलिए नहीं पढ़ पाते, क्योंकि उन्हें हम सबसे पहले लिखने और पढ़ने पर ज्यादा जोर देते हैं। जबकि होना यह चाहिए कि पहले ध्वनियों को सुनने की आदत उनमें विकसित करें। जब बच्चे ध्वनियों को सुनने में सक्षम हो जाएंगे तब वो उन ध्वनियों की नकल करना शुरू करेंगे और फिर बोलना शुरू करते हैं। लेकिन हमारी कोशिश और जोर लिखने पर ज्यादा होती है। इसलिए बच्चे सुनने से पहले लिखने के चक्कर में बाकी के भाषायी कौशल में पिछड़ते चले जाते हैं।
विभिन्न सरकारी और गैर सरकारी संस्थाओं की ओर से कराए गए सर्वे की रिपोर्ट पर नजर डालें तो पाएंगे कि उनका आकलन का औजार बच्चों में यह जांचना था कि बच्चा शब्दों को पढ़ पाता है या नहीं। उनका ध्यान इस बात पर था कि बच्चा लिख पाता है या नहीं? आकलन के चेक लिस्ट में शामिल यह होना चाहिए था कि बच्चा ध्वनियों को सुनकर पहचान और अंतर कर पाता है या नहीं। बच्चा चित्रों को देखकर उस पर कुछ वाक्य बोल पाता है या नहीं। आकलन के पैमाने पर हमारे सरकारी स्कूलों के बच्चे फिसलते हुए दिखाए गए। यह तो होना ही था क्योंकि इन बच्चों को जिन अध्यापकों से भाषा की तालीम मिलती है वो भी ऐसे ही स्कूलों से निकल कर आए हैं जहां भाषायी कौशल में वर्णों को पढ़ना और उन्हें लिखने के कौशल तक महदूद रखा गया।
यदि बच्चे लिखे हुए वर्ण व वाक्य नहीं पढ़ पाते तो इसमें उनकी कमी नहीं बल्कि दोष हमारा है कि हम उन्हें भाषा सीखने-सिखाने का माहौल और सही तरीके से सीखा पाने में पिछड़े हुए हैं। भाषा शिक्षण में यदि वर्ण मालाओं को रट लेने पर जोर दिया जाता है तो यह भाषा कौशल तो विकसित नहीं कर सकता बल्कि रटने की परंपरा विकसित करना है। अब सवाल यह उठता है कि वर्णों की पहचान कराया कैसे जाए। जब वर्णों की पहचान हो जाए फिर दूसरा चरण क्या हो।
वर्णों को पढ़ाने से पहले ध्वनियों की पहचान और सुनकर विभिन्न उन ध्वनियों में अंतर करने की क्षमता विकसित की जाए। मसलन इ और ई, उ और बड़ा उ, ए और ऐ की ध्वनियों में अंतर करना बच्चों को सीखाया जाए फिर हमें शब्द निर्माण और वाक्य संरचना में बहुत मेहनत नहंी करनी पड़ेगी। लेकिन हमें सीखाने की इतनी जल्दबाजी होती है कि हम चाहते हैं कि बच्चा जितना जल्द हो सके वह लिखना-बोलना और पढ़ना सीख जाए। जबकि पढ़ना एक व्यापक प्रक्रिया है जिसके लिए पूर्व तैयारी की आवश्यकता पड़ती है। दो पदों, शब्दों में क्या कहने की कोशिश की गई है इसे पढ़ने और पढ़कर समझने की समझ विकसित करना सच्चे अर्थाें में पढ़ना और समझना है। वरना हर वर्ण हर शब्द लिख देना क्या भाषायी तमीज दे सकती है? संभवतः महज शब्दों को उच्चरित कर देना भी भाषा दक्षता की एक छटा है।
पढ़ना और समझना दोनों ही दो अलग अलग कौशल और अभ्यास की मांग करते हैं। बच्चों में पढ़ने के कौशल विकसित करने के लिए नेशनल करिकुलम फ्रेमवर्क 2005 बड़ी शिद्दत से रूपरेखा प्रस्तुत करती है। इसी के आधार पर रिमझिम किताब को तैयार किया गया। इसमें भाषा शिक्षण के तौर तरीकों पर तो काम किया ही गया है साथ ही भाषा शिक्षण को प्राथमिक स्तर पर कैसे रोचक और आनंदपूर्ण बनाया जाए इस पर भी जोर देता है। यदि रिमझिम किताब को देखें तो इसमें भाषा की कक्षा को रोचक और प्रभावी बनाने के लिए विभिन्न कक्षायी गतिविधियों को शामिल किया गया। इन गतिविधियों के मार्फत शिक्षक बच्चों को बड़ी सहजता से आनंद पूर्वक भाषा शिक्षण कर सकता है। बच्चों को भी उन गतिविधियों में मजा आएगा और भाषा के विभिन्न कौशलों को हासिल भी कर सकेंगे। बच्चों में लिखे हुए शब्द और वाक्यों को पढ़ने और समझने के कौशलों को बढ़ाने के लिए जिन गतिविधियों को शामिल किया गया है यदि उनका इस्तेमाल कक्षा में किया जाए तो परिणाम सकारात्मक निकल कर आएंगे। फिर यह शिकायत जाती रहेगी कि बच्चे को पढ़ना-लिखना नहीं आता।
पढ़ने-लिखने से यह अपेक्षा करना कि बच्चा बोर्ड पर लिखे शब्दों को पढ़ कर सुना दे यह ज्यादती होगी। क्योंकि यदि बच्चा चित्र बनाकर या रेखाएं खींचकर अपने भावों को अभिव्यक्त कर रहा है तो उसे भी स्वीकारना हमें आना होगा। बच्चों की प्रकृति होती है कि वो छोटे में लिखने के नाम पर आड़ी तिरछी रेखाओं और आकृतियों से दिवारों को रंग देते हैं। वो अपने परिवेश को भी बरीकि से निरीक्षण करते हैं यही वजह है कि उनकी अभिव्यक्ति में बस, पेड़, रेल, पहाड़, चिडि़यां आदि जिंदा रहती है। हमें बस यह करना चाहिए कि हम उन्हें उनकी कलाई पर नियंत्रण करना सीखाएं। हम उन्हें कलाई,आंखों और पेंसिल के बीच सामंजस्य स्थापित करना सिखाएं। यह आरंम्भिक तैयारियां हैं जब बच्चा लिखना और पढ़ना शुरू करता है।