कौशलेंद्र प्रपन्न
सुनना उसपर भी किसी और की बात, कहानी, घटनाएं अपने आप में बेहद चुनौतिपूर्ण है। डिजिटल युग में जहां हर चीज तेजी से बदलती और सरकाई जाती है ऐसे में सुनना और सुनाना बेहद दिलचस्प और मानिख़ेज़ है। एक घटना से सुनने के कौशल और सुनाने वाले की दक्षता को स्पष्ट करना चाहता हूं। पिछले दिनों बच्चों ‘‘ विभिन्न आयु वर्ग के जिसमें छह साल से लेकर 16 साल तक’’ को कहानी की कार्यशाला में कहानी सुनाना, कहना, लिखना और पढ़ना आदि पर तीन दिन की बिताने थे। मेरे लिए भी यह चुनौतिपूर्ण इस रूप में था कि उस कार्यशाला में विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों को कैसे समान और रूचिपूर्ण, आनंदप्रद एहसासों से गुज़ारा जाए और उन्हें ये तीन दिन ज़ाया सा न लगे। सत्र की शुरुआत एक कहानी से की। कहानी क्या था इस संसार की रचना को विषय बनाया। कैसे गैलेक्सी, यूनिवर्स की रचना हुई। इसमें हमने 13.7 मिलियन वर्ष पीछे ले जाकर सृजन और निर्माण की रोचक जानकारी तो देना था ही साथ ही एहसास से भरना था कि हम आज जहां हैं उस पृथ्वी को बनने में कितने वर्ष की यात्राएं करनी पड़ी। कहानी में बच्चों का प्रवेश हो चुका था। मेरी आवाज़ और शब्दों, वाक्यों के माध्यम से बच्चे बंधते चले गए थे। शायद ही कोई बच्चा ऐसा रहा होगा जो इस यात्रा में पीछे रह गया हो। जब कहानी खत्म हुई तो सभी बच्चों से प्रक्रियाएं और अपने अनुभव साझा करने के लिए कहा गया। बच्चों ने स्पष्टतौर पर स्वीकार किया कि बहुत मज़ा आया। वापस आने की इच्छा नहीं हो रही थी। जैसे जैसे आप पृथ्वी पर लेकर आए। विश्व से एशिया पर आए, फिर भारत पर। भारत के बाद राज्य पर और राज्य से शहर पर फिर राजेंद्र नगर स्थित इस कक्ष तक लेकर आए। तो हमने अनुमान लगा लिया था कि अब आप इस जगह पर आने वाले हैं। इस कहानी को सुनते हुए बच्चों ने कल्पनाएं करना, अनुमान लगाना, कथा की भाषा, कथा का कथ्य, विभिन्न विषयों का समायोजन जिसमें गणित, इतिहास, विज्ञान, खगोल विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान आदि सब शामिल थे। छह साला बच्ची ने कहा ‘‘ इसमें गणित के अंक भी थे।’’ ‘‘ऐसा लगा ही नहीं कि हम जमीन पर हैं। जब आपने आंखें बंद कराईं तो लगा कुछ गेम कराने वाले हैं। लेकिन आवाज़ की जादू ऐसी थी कि उसके मोह में बंधते चले गए।’’ ग्यारहवीं में पढ़ने वाली दूसरी बच्ची ने कहा।
बातचीत का सिलसिला ज़ारी रहा ‘‘ यह कहानी क्यों पसंद आई?’’ इस सवाल का जवाब बच्चों ने दिया कि इसमें रोचक जानकारी थी, कहानी सुनने का आनंद था। आपकी आवाज़ बेहद प्रभावी थी। हम लोग डूब कर सुन रहे थे। अगला सवाल कुछ यूं पूछा ‘‘आप लोगों की नज़र में एक कहानी में क्या क्या होनी चाहिए जिसे पर देखना, सुनना चाहेंगे?’’ इसपर अन्य बच्चों ने बारी बारी से कहा ‘‘ कहानी में रोचकता हो, कहने वाला व्यक्ति रूचि ले। कहानी में इतिहास भी हो, समाज शास्त्र भी हो। विज्ञान भी हो और अच्छी कहानी हो जाती है।’’ ‘‘हमें कहीं भी इस कहानी को सुनते हुए भाषा कठिन और शब्द मुश्किल नहीं लगे।’’
तीन दिन कैसे गुज़र गए पता ही नहीं चला। अंतिम दिन दो तीन बच्चों और बच्चियों ने कहा ‘‘कार्यशाला में सबसे खराब जो रहा हो वो कहना चाहता हूं’’ यह कहना था आर्यन का। सबकी नज़र उसकी ओर चली गई। उसने कहा ‘‘सर का आज अंतिम दिन है। आज के बाद इनसे मुलाकात नहीं होगी। इनकी कहानी और कहानी कहने की शैली को आज के बाद नहीं सुन सकेंगे।’’ लगभग अन्य बच्चों का भी यही कहना था। लेकिन प्रियदर्शनी ने स्वीकार किया कि उन्हें भी चिंता थी कि तीन दिन कहानी पर बोर हो जाएंगे। पहले भी कई सर आए और बोर कर के चले गए। इस बार भी तीन दिन बोर होने वाले हैं। लेकिन पहले ही दिन, पहले ही एक घंटे में हमें अंदाज़ हो गया कि हम बोर नहीं होंगे।’’
यह एक कार्यशालायी तजर्बा था जिससे हम आगे सुनने के कौशल कैसे कहने के कौशल पर ख़ासा निर्भर है इसे समझने की कोशिश करें। सुनने का धैर्य न तो बच्चों में शेष है और बड़ों में। हम मान कर चलते हैं कि कहने वाला बोर करने वाला है। जो भी कहने वाला है वो अपनी कहानी, अपनी बातें सुनाकर समय काटेगा। यह मानना भी एकबारगी ग़लत भी नहीं है। क्योंकि सुनाने वाले कई बार यही किया करते हैं ऐसे अनुभव हम सब की ज़िंदगी में आए ही होंगे। हमारे ही बीच में ऐसे भी कहने वाले होते हैं जिन्हें सुनने के लिए लालायित रहते हैं। ऐसे व्यक्ति कई बार हमें प्राथमिक कक्षाओं में बतौर शिक्षिका/शिक्षक मिले होंगे जिन्हें जी चाहता था ये बोलते जाएं और हम बस सुनते रहें। ऐसे ही वक्ताओं, कथा कहने वाले कविता सुनाने वाले हमारी ज़िंदगी में शामिल हो जाते हैं। लेकिन जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं वैसे वैसे इस प्रकार के लोग कम होते चले जाते हैं। हालांकि प्राथमिक स्तर पर हमारे अधिकांश शिक्षक पढ़ाने आते हैं। शायद पढ़ाने की क्रिया में पढ़ने और सुनने के आनंद की हत्या करते रहते हैं। वो पाठ्यक्रम पूरा कराने के दबाव में ‘‘सुनने का आनंद’’ पीछे धकेलते जाते हैं। हमारी प्रारम्भिक सुनने की प्रक्रिया में सुनने के आनंद कहीं छूट जाते हैं यदि कुछ रह जाता है तो बस सुनकर याद रखने, रटने, परीक्षा में सुने हुए शब्दों के अर्थ बताने आदि कार्यां में बीतता रहा है तो ऐसे में हमारे बच्चे सुनने के कौशल में एक बात गांठ बांध कर सुनने की कोशिश करते हैं कि इस कहानी, कविता में कौन कौन से कठिन शब्द आए हैं, उनके विपरीतार्थक शब्द, समानार्थक शब्द, वाक्य आदि में प्रयोग कैसे करेंगे? आदि संभावित सवालों की जाल में खो जाते हैं। ऐसे में हमारा बच्चा सुनने के कौशल में सिर्फ कुछ शब्दों, कहां कहां किसने कौन से शब्द, संवाद बोले हैं उन्हें याद रखने में उलझ जाते हैं।
बताने और सुनाने में एक बुनियादी अंतर को समझ लें तो आगे की यात्रा आसान और आनंदपूर्ण हो सकती है। जब हम कक्षा-कक्ष में या फिर आम ज़िंदगी में किसी को कुछ बता रहे होंते हैं तब हम शायद कोई सूचना, कोई घटना या फिर अपनी बातों में तथ्यों को शामिल कर रहे होते हैं। हमारी अपेक्षा तो होती है कि जिसे बता रहे हैं उसे सुने। उसे सुनकर कितना भागीदार हो या फिर उसपर किस प्रकार का एक्शन ले इसकी अपेक्षा शायद नहीं रहती। लेकिन जब हम किसी को कुछ सुना रहे होते हैं तो हमारी अपेक्षा सुनने वाले से होती है कि वह सुनकर अपनी राय भी दे। सुनने में दिलचस्पी भी ले और हूंकारी भी भरे। हूंकारी भरना वैसे तो कहानी में ज़्यादा होती है। इससे हमें पल पल हर पग पग पर प्रतिक्रियाएं और सुनने वाले की मनःस्थिति के बारे में जानकारी मिल रही होती है। जब हम कक्षा-कक्ष में सुना रहे होते हैं तब यह जानना बेहद ज़रूरी हो जाता है कि सुनने वाले बच्चे उसे समझ भी रहे हैं या नहीं। यहां सुनने के साथ ही समझना एक अपेक्षा जुड़ जाता है। यदि बच्चा सुनकर अर्थ नहीं समझ पा रहा है, संदर्भ की समझ नहीं बन पा रही है तो शायद यह सुनना मुकम्म्ल नहीं माना जाएगा। इसलिए सुनाने वाले यानी कहने वाले को अपनी कहन पर काम करने अभ्यास करने की आवश्यकता पडे़गी। कहन में जो जितना चुस्त और दक्ष होगा उसकी सुनाने की प्रक्रिया उतनी ही सहज और सारगर्भित होगी ऐसा मान कर चल सकते हैं। सुनाने के दौरान हम किस प्रकार की भाषा, कथ्य, परिवेश आदि की रचना कर रहे हैं यह भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। क्योंकि सुनना अपने आप में श्रमसाध्य कामों में से एक है। कोई क्यों किसी की सुने? क्यों सुनाने वाला सुनाना चाहता है? आदि के पीछे के मकसद स्पष्ट नहीं होंगे तो वह कहने और सुनने की आम प्रक्रिया तो हो सकती है वह समझ कर सुनने की प्रक्रिया का हिस्सा बनने से वंचित हो जाएगी।
यदि किसी कक्षा की परिकल्पना करें तो हमारा शिक्षक जिस तरीके व शैली में बच्चों को कहानी, कविता, विज्ञान, गणित या समाज विज्ञान की बातें, अवधारणाएं सुना रहा है किस कदर उसकी भाषा और अपेक्षा स्पष्ट नहीं तो ऐसी स्थिति में बच्चे नहीं सुनते। बल्कि बस सुनने का ढोंग कर रहे होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम बड़े भी कई बार सुनने का स्वांग कर रहे होते हैं। सुनते नहीं हैं। जब पूछा जाता है ‘‘ सुन रहे हैं? मैं क्या कह रहा हूं?’’ ‘‘ क्या आप बता सकते हैं मैं किस पर चर्चा कर रहा था?’’ इन वाक्यों से हमारी तंद्रा टूटती है। हम कह देते हैं, शॉरी सुन नहीं पाया। हम क्यों नहीं सुन पाए या बच्चा क्यों नहीं सुन सका? इसके दो जवाब हो सकते हैं, पहला- हम सुनना नहीं चाहते थे। हमारी अंतर दुनिया में बड़ी हलचल मची हुई थी। इसलिए सुन नहीं पाए। बच्चा यदि भूखा है, असुरक्षित है, पीड़ित है तो वह सुन नहीं पाएगा। दूसरी स्थिति सुनाने वाला यानी कहने वाला यदि पुरानी और आदतन बोर की शैली में कह रहा है तब वैसी स्थिति में हमारी सुनने की इच्छा मर जाती है। तब बोलने वाले के शब्द/ध्वनियां भर हमारे कानों से टकराया करती हैं।
सुनने से गहरा जुड़ा है पढ़ने की लालसा। जब हमारा बच्चा कोई कहानी, कोई कविता आदि सुनता है तब उसमें उसे पढ़ने की जिज्ञासा पैदा होती है। बच्चा सुनने के बाद उस कहानी को पढ़ कर आनंद उठाना चाहता है। लेकिन उसके पढ़ने के रास्ते में वर्णमालाएं, अक्षर ज्ञान, शब्दों की प्रकृति आदि बाधा बनती हैं। बच्चा शब्दों और वाक्यों की पहचान से संघर्ष कर बाहर निकलता है तब उसे पढ़े उसे शब्दों और वाक्यों में निहित कहानी के मर्म को समझने के दूसरे स्तर पर संघर्ष करना पड़ता है। हमें बच्चों को पढ़ने की सीढ़ी पर चलाने से पूर्व सुनने की कला में प्रवीणता मुहैया करानी पड़ेगी तब पढ़ने की प्रक्रिया सुगम और सहज हो सकती है।
हमारा बच्चा अक्षर ज्ञान से लेकर, वर्णमालाओं के चक्रव्यूह को तोड़ते तोड़ते पांचवीं कक्षा पार कर जाता है। जैसे जैसे अगली कक्षाओं में जाता है यह वर्ण, अक्षर, वाक्य उसे डराने लगते हैं। वह या तो भाषा एवं साहित्य पढ़ने से मुंह मोड़ चुका होता है। और हम एक भविष्य के साहित्य प्रेमी व साहित्य के छात्र पाने से वंचित रह जाते हैं। बच्चे तो साहित्य से दूर हो ही जाते हैं यह तो एक हानि होती ही है साथ ही हमारा साहित्य महज बड़ों की रूचि और विलास की वस्तु बन कर सीमित हो जाती है। ऐसे में बच्चां को साहित्य से दूर होना कहीं न कहीं बच्चों में पढ़ने, सुनने, बोलने की क्षमता को कमतर करती है। वहीं बच्चों में भाषायी साक्षारता को भी कम करती है। बच्चे वर्ण आदि तो फिर भी पहचान लेते हैं किन्तु जब पढ़ या सुनकर समझने का जायजा लेते हैं तब हमारा बच्चा पिछड़ जाता है।