Saturday, August 24, 2019

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र



कौशलेंद्र प्रपन्न
‘‘इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी कार्यशाला में पढ़ाने वाले घंटे का तीन तीन हज़ार लेकर चुटकूलों के सहारे या फिर अपनी अपनी कहानी सुनाकर चले जाते हैं। हमारा समय भी ख़राब होता है।’’
‘‘आपने बार बार कहामेरे बच्चे, हमारे बच्चे क्या सीखेंगे? मेरे बच्चों को क्या मिल रहा है स्कूलों में?’ मुझे ये बहुत अच्छा लगा। अच्छा लगा इसलिए मैं यह शब्द और आपका संबोधन अपने साथ लेकर जा रहा हूं। मैं स्कूल का इंचार्ज भी हूं सो अपने शिक्षकों के साथ यह अनुभव साझा करूंगा।’’
ऐसी अभिव्यक्तियों की पंक्तियां और भी हैं जिन्हें लिखने लगूं तो एक अन्य लेख की ओर मुंड़ना पड़ेगा। सो इन पंक्तियों के निहितार्थां की चर्चा करना अपेक्षित होगा। जब बीस पच्चीस साल शिक्षण करने बाद कोई शिक्षक स्वीकारे कि आज तो उसे पढ़ाने या कार्यशाला में मज़ा नहीं आया तो यह सवाल हमारी शिक्षण-प्रशिक्षण शैली पर भी उठता है। पढ़ने-पढ़ाने की ख़्वाहिश रखने वाले इस पेशे में कम नहीं हैं किन्तु उनकी ऊर्जा और प्रतिबद्धता को सही तरीके से इस्तमाल नहीं किया गया। यह ह़कीकत है कि जिस लचर तरीके से सरकारी शिक्षकों की प्रशिक्षण कार्यशालाएं आयोजित होती हैं उसमें निराशा ज्यादा पैदा होती है। जो समर्थ और सक्षम शिक्षक हैं वे बेमन से आते हैं और जब कार्यशाला में उन्हें कुछ नया या चुनौतिपूर्ण नई तालीम नहीं मिलती तब वे बेहद हताश और निराश होते हैं। हम यदि शिक्षकों की निराशा और हताशा को कम नहीं कर पाए तो कम से कम उन्हें ऐसा माहौल देने में सहयोग करें कि वे अपनी क्षमता और कौशल का प्रयोग अपनी कक्षा में कर सकें। 
देखा जाए तो हर शिक्षक की अपनी कहानी होती है। इस कहानी में कई सारे पात्र होते हैं। मानें या मानें हम पूरी जिं़दगी में जितने लोगों से नहीं मिल पाते एक शिक्षक अपनी आधी जिं़दगी में उतने जीवन से भरे बच्चों से रू रू होता है। एक प्राथमिक कक्षा को पढ़ाने वाला शिक्षक कक्षा एक में जिन बच्चों को पढ़ाना शुरू करता है उन्हें पांचवीं कक्षा तक ले जाता है। कक्षा छठीं की ओर प्रेरित कर हमारा शिक्षक बेशक उन हज़ारों बच्चों के चेहरे भूल जाए। नाम बेशक याद रहे लेकिन एक बच्चा ताउम्र अपने शिक्षक की विशेषताओं, उसकी कमियों, उसकी खीझों, बात करने के अंदाज़ आदि को याद रखता है। अनमुन लगाएं, आप सुबह सुबह कक्षा में प्रवेश करते हैं और आपके स्वागत में चालीस, पच्चास चेहरे और 100 आंखें इंतज़ार कर रहीं हैं यही तो वे पात्र हैं शिक्षकों की कहानी के जिन्हें शिक्षक अपने तई गढ़ता, मांजता और पुनर्नवा करता है। इस प्रक्रिया में कई बार हारता है, टूटता है, टूटकर जुड़ता है। एक शिक्षक की दुनिया में इन पात्रों की बड़ी भूमिका है। जिस प्रकार से बच्चों की दुनिया में शिक्षकों की भूमिका होती है उसी प्रकार शिक्षकों की दुनिया में बच्चों की भी भूमिका अहम मानी जाती है। यह अत्यधिक महत्वपूर्ण है कि शिक्षक बच्चों की दुनिया को कैसे आकार देता है। कई बार बच्चे कैसे शिक्षकों को भी गढ़ते हैं इन्हें जानना हो तो महाश्वेता देवी के उपन्यास ‘‘मा साब’’ को पढ़ा जाना चाहिए। या फिर नागार्जुन की कविता दुखहर मास्टर को बांचें तो एक ऐसी शिक्षक की छवि बनती है जिसने अपने जीवन में मारने, डाटने के अलावा बच्चों को गढ़ने में कोई ख़ास भूमिका नहीं निभाई। वहीं अरूण कमल की कविता ‘‘मुक्ति’’ पठनीय है। एक ऐसे मास्टर और पिता की चर्चा करते हैं जिसने अपने बच्चे को पढ़ाने में कोई ख़ास वक़्त नहीं दिया। वह मास्टर पिता ट्यूशन पढ़ाने में अपने समय का बड़ा हिस्सा लगाता है। अवकास प्राप्त करने के बाद मास्टर पिता को एहसास होता है कि उन्होंने अपने बेटे को तो देखा ही नहीं। सुबह स्कूल चले जाते और रात जब बेटा सो जाता तब पिता-मास्टर घर लौटते। बतौर मुक्ति कविता की पंक्तियां पठनीय हैं- ‘‘दोष मेरा ही था, मैंने कभी पूछा नहीं, कैसे हो तुम, जानता भी नहीं था क्या पढ़ते हो तुम, और आज जब अचानक देखा मैंने, तुम कुछ नहीं जानते, मेरा लड़का कुछ भी नहीं जानता।’’ अरुण कमल प्रतिनिधि कविताएं, पेज-36, राजकमल प्रकाशन। आज के समय की ऐसी सच्चाई नज़र की गई है जिसे शिद्दत से पढ़ा जाना चाहिए। शिक्षकों की दुनिया को समझने में कई बार साहित्य की विधाएं- कहानी, कविता, उपन्यास,नाटक या फिर संस्मरण आदि काफी मदद करती हैं। हालांकि सच्चाई यह भी है कि ऐसे हज़ारों शिक्षक अभी भी मौजूद हैं जो लगातार अपनी समझ, सौदर्यबोध, जीवनानुभव से बच्चों को प्रकारांतर से मदद करने में ज़रा भी गुरेज़ नहीं करते।

Monday, August 12, 2019

न पढ़ा पाने की शिक्षकीय छटपटाहट


कौशलेंद्र प्रपन्न
हमारे शिक्षक पढ़ाने पर ज़ोर देते हैं। ये अपनी कक्षा में पढ़ाने  भी चाहते हैं। फिर क्या वजह है कि हमारे शिक्षक न पढ़ा पाने की कसक लिए घूमा करते हैं। स्कूल की कक्षाएं पढ़ाने की सामग्रियों से भरी हुई हैं। अब कक्षाओं और स्कूलों में सीसीटीवी इंस्टॉल किए जा रहे हैं। यह एक नया नया और ताज़ा तरीन गतिविधियां दिल्ली के सरकारी स्कूलों में तेजी से पांव पसारती नज़र आ रही हैं। बेशक अकादमिक धड़ों ने इन कैमरों के लगाने को लेकर विरोध किया हो, किन्तु, क्योंकि निज़ाम का फरामान है तो उसे पूरे भी किए जाएंगे। दावा तो यह भी किया गया है कि बच्चों की गतिविधियों, उपस्थिति, कक्षा-कक्षा की तमाम जानकारियां भी अभिभावक पा और देख सकेंगे। इसमें इतनी सी राहत दी गई है कि अभिभावकों को पूरी तो नहीं किन्तु कुछ कुछ फुटेज मुहैया कराई जाएंगी। बच्चे तो बच्चे, शिक्षकों के मन में भी सीसीटीवी कैमरों को लेकर एक भय और आशंका की रेखाएं देखी और सुनी जा सकती हैं। हालांकि सूचना संचार तकनीक के प्रयोग करने से किसी को भी गुरेज़ नहीं हो सकता। आईसीटी ने निश्चित ही हमारी रोज़मर्रें की जिं़दगी को प्रभावित किया है। उसमें शिक्षा अलग नहीं मानी जा सकती। पुरानी काली गड्ढ़ों, बदरंग बोर्ड तो बदले जा चुके हैं। जहां अभी भी नहीं बदले हैं वहां आने वाले दिनों, वर्षां में बदल दी जाएंगी। सरकारी स्कूलों की कक्षाओं में जाने  का मौका मिले तो सफेद बोर्ड, स्मार्ट बोर्ड, रंगीन दीवारें, पंखों पर चित्रकारी, दर ओ दीवारें बच्चों को अपनी ओर लुभावानी बनाई जा चुकी हैं या आने वाले समय में बन जाएंगी ऐसी उम्मीद की जा सकती है। जबकि हक़ीकत यह भी है दिल्ली की नज़रों से अन्य राज्यों की सरकारी स्कूलों को न तो देखना उचित होगा और न ही देखा जाना चाहिए। दिल्ली के सरकारी स्कूलों को देखकर कुछ कुछ भ्रम हो सकता है। क्योंकि इन स्कूलों को ख़ासतौर पर तैयार किया जा रहा है लेकिन सच्चाई तो यह भी है कि इसी दिल्ली में नगर निगम के स्कूलों में उक्त सुविधाएं अभी भी सपने ही हैं। क्या शौचालय और क्या पीने का पानी। टोटी है पर पानी नहीं। वो भी किसी एनजीओ ने एक बार लगा दिया दुबारा उसकी सफाई नहीं हो सकी और ताले लगे हैं। आईसीटी लैब है, लेकिन टीचर की कमी है। जब सामान्य शिक्षकों के पद खाली हैं तो ऐसे में आईसीटी कुछ कुछ सुस्वादु व्यंजन सा लगता है। जबकि राष्ट्रीय शिक्षा नीति के मसौदे को देखें तो एक पूरा का पूरा अध्याय आईसीटी पर केंद्रीत है। लेकिन हक़ीकतन कक्षाओं की स्थिति इससे उलट है। देश के अन्य राज्यों में सरकारी स्कूलों में सामान्य कक्षा-कक्ष, अध्यापक आदि की कमी है। ऐसे में हमारा प्रशिक्षित शिक्षक कैसे अपने बच्चों को सम्यकतौर पर सीखने-सिखाने की सकारात्मक प्रक्रिया को अंज़ाम दे सकेगा।
यकीनन शिक्षक, शिक्षा और बच्चों के मध्य वह कड़ी है जो कमजोर हो, अप्रशिक्षित हो, अपने प्रोफेशन से  निराश हो तो वह परोक्षत-अपरोक्षतः शिक्षा-बच्चों के स्वास्थ्य के लिए ठीक नहीं है। मई, जून जुलाई और अगस्त माह में लगभग 150 प्राथमिक शिक्षकों और 100 प्रधानाचार्यों आदि से कार्यशाला में मुलाकात और संवाद को आधार बनाते हुए कहने की कोशिश कर सकता हूं कि इनमें से अधिकांश प्रतिभागियों के पास फोन में वाट्यऐप पर राष्ट्रीय शिक्षा नीति का मसौदे 2019 उनके अधिकारियों, मित्रों ने साझा किए थे। लेकिन क्योंकि यह दस्तावेज़ हिन्दी में 650 पेज और अंग्रेजी में 450 पेज की हैं जिसे देखने-पढ़ने के लिए धैर्य और समय की आवश्यकता है। इनमें से अधिकांश प्रतिभागियों ने कबूला की ऐसा कुछ मैसेज आया तो है, लेकिन देख और पढ़ नहीं पाए हैं। इनलोगों ने यह तो स्वीकारा था कि इससे हमारी शिक्षा व्यवस्था पर प्रभाव पड़ेगा। हमें अपनी बात रखनी चाहिए आदि। लेकिन यह आंकड़ा मेरे पास नहीं है कि उनमें से कितनों ने अपनी सिफारिशें मंत्रालय को भेज पाए। हालांकि नागर समाज में इस बाबत सर्वे कराए जाएं तो स्थितियां और स्पष्ट हो सकेंगी। लेकिन एक शिक्षक, शिक्षा-शिक्षण के पेशे से जुड़ा कर्मी अपनी राय नहीं रखता या रख पाता तो यह चिंताजनक है। हमारे शिक्षक यह तो चाहते हैं कि पाठ्यपुस्तकों में बदलाव हो, शिक्षा नीतियों में परिवर्तन ज़रूरी है आदि आदि। लेकिन स्वयं लिखकर सक्षम मंच तक अपनी बात रखने से चूक क्यों जाते हैं? वो क्या वजहें हैं शिक्षक अपने शैक्षणिक समाज में घट रही राजनीतिक और नीतिगत निर्णयों में हिस्सा नहीं ले पाते? पहली वज़ह तो यही कि उनका अटूट विश्वास होता है कि उनकी कौन सुनेगा? वो यदि अपनी बात रखते भी हैं तो क्या उन्हें शामिल किया जाएगा? हालांकि एनसीईआरटी जैसी संस्थाएं शिक्षकों को अपनी समितियों में भाग लेने, अपनी रचनात्मक क्षमता और कौशल के योगदान के लिए आमंत्रित करती रहती हैं। सबसे अड़चन और दिक्कत वाली स्थिति तब आती है जब मालूम होता है स्कूल के बाद या स्कूल के ऐत्तर समय और श्रम देने होंगे। तब विभिन्न किस्स की व्यस्तताएं याद आने लगती हैं। बच्चा छोटा है, भौगोलिक दूरी, स्कूल के बाद समय न दे पाने आदि कारण सामने आती हैं। उसपर तुर्रा आरोप लगाना कि शिक्षकों की कोई नहीं सुनता। हालांकि जब तक सक्षम और कुशल शिक्षक पूरी मजबूती और सतर्क सही मंच पर अपनी बात नहीं रखेंगे तब तक बहानों का तो कोई अंत नहीं है, लेकिन नीतियां समितियों में समुचित हस्तक्षेप करना मुश्किल होगा।
वास्तव में शिक्षकों के पास शिक्षण के अलावा बहुत से ऐसे स्कूली काम होते हैं जिन्हें करने ही होते हैं। इनमें जनगणना, बाल गणना, बैंक में बच्चों के खाते खुलवाना आदि। इसके साथ ही साथ विभागीय अन्य कामों  की कोई सूची नहीं बनाई जा सकती जिन्हें भी शिक्षकों को देने होते हैं। हालांकि सीधे सीधे शिक्षकों से नहीं मांगे जाते बल्कि स्कूल के हेड यानी प्रधानाचार्य को देने होते हैं। वह काम विकेंद्रीत कर शिक्षकों में बांट दिए जाते हैं। मसलन डाइस की रिपोर्ट तैयार करने में शिक्षकों की भूमिका को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। इस साल का हाल बताना विषयांतर न होगा। यह अनुभव प्रधानाचार्य की कार्यशाला के दौरान हुआ। जून के दूसरे हप्ते में तकरीबन उन प्रधानाचार्यों को कारण बताओ नोटिस भेजी गई कि क्यों नहीं अब तक स्कूली आंकड़ भेजे गए? प्रधानाचार्य कार्यशाला में थे। शिक्षकों की छुट्टियां चल रही थीं आंकड़े कौन दे? इसे भी समझना होगा। समय पर आंकड़ों की मांग की जाती तो संभव है स्कूलों की छुट्टियां होने से पूर्व प्रधानाचार्य इसे प्रबंधित कर पाते। लेकिन सूचनाओं और आंकड़ों की मांग की पूरी कड़ी होती है। इसे समझना होगा। स्कूल निरीक्षक, प्रधानाचार्य और फिर स्कूली शिक्षक। यदि पहले पायदान पर देरी हुई या भूलवश सूचना प्रसारित होने में लापरवाही हुई तो उसका असर अंतिम परिणाम पर पड़ना स्वभाविक है। फंदे का कसाव कहीं न कहीं  शिक्षक को महसूस होता है।
दीगर बात है कि उच्च न्यायालय ने अपने आदेश में स्पष्ट कहा है कि शिक्षकों से अतिमहत्वपूर्ण कार्यों को  छोड़कर गैर शैक्षणिक कार्य न कराए जाएं। लेकिन इस आदेश के बावजूद भी यह गैर शैक्षणिक कार्यों का सिलसिला बतौर जारी है। हाल में संपन्न लोक सभा चुनाव के दौरान मत पेटी हासिल करने और जमा करने  के दौरान शिक्षकों को किस प्रकार की बदइंतजामी का सामना करना पड़ा और कितने दिन वे शिक्षक स्कूलों में  अपनी सेवा नहीं दे सके तो आंखें खुल जाएंगी। जो लोग चुनावी ड्युटी पर तैनात थे वो लोग तेरह मई की मध्य रात्रि यानी तकरीबन 3.30 बजे से मतदान केंद्र पहुंचने शुरू कर चुके थे। इससे पूर्व की शाम व रात देर से मतदान केंद्र से इंतजाम करने के बाद लौटे थे। शाम छह बजे मतदान संपन्न होने के बाद मतपेटी जमा करा कर घर लौटने में शिक्षकों को सुबह के 3 और चार भी बजे। न खाने का इंतजाम और सुरक्षा की व्यवस्था। ऐसे माहौल में शिक्षक बेहद निराश हुए। शिक्षकों ने तो तुलना भी की कि पिछले सालों से ज्यादा बदइंतजामी इस बार थी। चुनावी ड्यूटी का तो यह आलम दिल्ली में था जिसमें शिक्षक झोंक दिए गए थे। वहीं बैकों में बच्चों के खाते खुलवाने, बैंक एकाउंट से आधार नंबर जोड़ने के काम में भी शिक्षकों का अच्छा ख़ासा रचनात्मक समय जाया होता है।
कभी जाएं तो देखेंगे कि सुबह के 7.45 से लेकर 12.30 बजे तक में एक बड़ा हिस्सा फेस पहचान उपस्थिति मशीन के सामने बच्चों को खड़ा कराने, उपस्थिति दर्ज़ कराने, मीड डे मिल बांटने में चला जाता है। हालांकि बच्चे पढ़ने आएं थे, लेकिन क्या उन्हें वो समय पढ़ने के लिए मयस्सर हो पाता है जो इन कामों के बाद शिक्षकों के पास बच जाते हैं। वैसे शिक्षक अभी भी फारिक होकर कक्षा में पढ़ा ही रहे होंगे यदि ऐसा सोच रहे हैं तो ठहरिए! बीच बीच में शिक्षा विभागीय अन्य आंकड़ों की मांगें भी कभी भी हो सकती हैं जिसे प्रधानाचार्य/शिक्षकों को अभी के अभी चाहिए के तर्ज़ पर भेजने होते हैं। ऐसे में शिक्षक जिस शिद्दत से पढ़ाने में रमा है उसे किसी और के हाथ सौंप कर या खाली छोड़कर दफ्तरी आंकड़ों के जुटान में लगना होता है। इन सब के बावजू़द ऐसे हज़ारों शिक्षक हैं जो पढ़ाना अपना पहला और प्राथमिक कर्तव्य समझते  और मानते हैं। उनकी कक्षाएं जाकर देखें तो पाएंगे कि इन शिक्षकों  की कक्षाएं और बच्चे किस स्तर पर सीख रहे हैं। इनके बच्चों की लर्निंग आउटकम भी कम नहीं होते। लेकिन अफ्सोस कि ऐसे शिक्षक अपनी ऊर्जा और रचनात्मकता के साथ स्वयं ही जूझ रहे होते हैं। उन्हें ही किसी भी कीमत पर अपनी पेशेगत पहचान बरकरार रखने और अस्तित्व के खतरे से लड़ना होता है।

Thursday, August 8, 2019

पिताजी के जाने के बाद याद आती हैं उनकी उपस्थिति


कौशलेंद्र प्रपन्न
हर जगह उनके होने का एहसास ताज़ा रहती हैं। जहां जहां जैसे  वो चलते थे। चलते नहीं बल्कि पांव घसीटकर चलते थे, वह पदचाप सुनाई देती है। सुनाई तो उनके खखारने की भी आती है जहां वो दिन में कई दफा मुंह धोया करते थे। मुंह धोते धोते आंखों में पानी के छींटे भी मारा करते। वो छींटे अब भी जेहन पर टंगी हैं।
कहां कहां नहीं हैं पिताजी। उन किताबों के पन्नों में जज्ब हैं जिन्हें वो पलटा करते थे। अख़बारों को पूरी तरह से पढ़ाकरते थे। उनके पढ़ने के बाद अख़बार कुछ ऐसा हो जाता जैसे पुराने कपड़े। एक एक तह को  उघार कर पढ़ा करते थे। अंग्रेजी के हों या हिन्दी के जिस दिन अख़बार हाथ नहीं लगते उस दिन लड़ भी जाते थे।
वॉक पर जाना उन्हें  बेहद प्रिये था। जिस दिन वॉक पर नहीं जाते बच्चों से मचलने लगते। उम्र कोई बाधा नहीं थी। आंखें भी दुरुस्त हैं। कान थोड़ा साथ नहीं देता। एक कान से सिर्फ 35 फीसदी ही सुना करते हैं। इसलिए मशीन का प्रयोग करते हैं। मशीन लगाने प्रयोग करने के पीछे की अलग ही कहानी है। मशीन लगाने से दूर भाग रहे थे। कहते हैं मशीन प्रयोग करूंगा तो मेरे कान और खराब हो जाएंगे। यह शायद तकनीक का डर है जो शायद किसी से सुनकर बैठ गया। लेकिन बहुत कोशिश करने के बाद कान में मशीन का प्रयोग करने लगे हैं। अच्छा सुनते हैं। वैसे मां बताती हैं जो सुनना चाहते हैं वो यूं ही सुन लेते हैं। जो नहीं सुनना चाहते वो नहीं  सुनते।
वैसे कोई ज्यादा उम्र नहीं है। कहने को 88 साल के हैं। लेकिन घूमने-फिरने में आनंद आता है। किन्तु मॉल जाना, लोगों से ज्यादा बातें  करना उन्हें  न तब पसंद था और न अब। जब जवान थे तब भी उन्हें किताबें पढ़ना और लिखना ज्यादा प्रिये था। और वही शौक आज तलक बरकरार है।
एक कविता लिखने  बैठते हैं तो उसे एक एक माह और उससे भी ज्यादा वक़्त लिया करते हैं। पूछने पर बताते हैं लय नहीं मिल रहा है। कई  बार मितला और मिसरा मिलाने में काफी वक़्त लगाते हैं। लेकिन कविता तैयार होती है तब मुझे ही तलाशते हैं सुनाने के लिए। सुनना बबुआ। बबुआ कहते हैं मुझे। और मुझे उनकी कविता को गाना बेहद रूचता है। कई कविताओं का गायन किया है। जो सुनने वालों को मोह लेती है। उनकी कविताओं को  एक किताब की शक्ल देने की कोशिश की। जिसमें  1952 से लेकर अब तक की कविताओं को शामिल किया। पाहुन नाम दिया था मैंने। जब उनके हाथ में किताब आई तो आंखों में लोर भर गए थे जो अब तक याद है। मैंने पूछा कैसे लग रहा है? उन्होंने कहा कुछ भी नहीं। बस एक टक देखते रहे। मुझे मेरे सवालों का उत्तर मिल गया था।
अब कुछ कुछ भूलने  लगे हैं। लेकिन अपना चश्मा, अपनी कलम, अपनी किताब नहीं भूलते। अपना वह झोला भी नहीं भूलते जिसमें ये सामान रखा करते हैं।

Tuesday, July 16, 2019

भाषायी चुनाव और सरकारी मनसा



कौशलेंद्र प्रपन्न
मैथिली के महान महाकवि विद्यापति की पंक्ति ज़रा देखें और समझें ‘‘हम नहि आजु रहब अहि आंगन जं बुढ होइत जमाय, गे माई। एक त बैरी भेल बिध बिधाता दोसर धिया केर बाप। तेसरे बैरी भेल नारद बाभन। जे बुढ आनल जमाय। गे माइ।’’ विद्यापति की काव्य संपदा से जो बेहद सहज और सरल भाषा एवं भाव प्रवण कविता है। उसे यहां उदाहरण के तौर पर रखा है। हमारा हिन्दी का शिक्षक अनुमान लगाकर शायद इसे बच्चों को समझा पाए। विद्यापति ही नहीं बल्कि नागार्जुन की मैथिली कविताएं भी ठेठ भाषा बोली के शब्दों से अटी हुई हैं ऐसे में भावानुवाद एवं बच्चों को समझाने की विशेष दक्षता की मांग हो जाती है। हमारे पास मैथिली भाषा के प्रवीण शिक्षकों की आवश्यकता पड़ेगी। हमारे स्कूली शिक्षकों को यदि हिन्दी की पाठ्यपुस्तकों में भोजपुरी के शब्द कहानियों में मिलते हैं तां उन्हें उसके अर्थ समझने में बड़ी मुश्किल आती है मसलन ‘‘केरा के पता आइल की ना’’ ‘‘अइसर जाड पहिले कबहु ना देखनि’’ यदि समग्रता में देखें में मैथिली भाषा में कई समर्थ कवि और उपन्यासकार भी हुए हैं। यह अलग विमर्श का मुद्दा है कि भाषा के चुनाव और सीखने-सिखाने की प्रक्रिया में राजनीति का हस्तक्षेप प्रकारांतर से भाषायी विमर्श और भाषा के शिक्षण शास्त्र को नजरअंदाज करना है। एक ओर जहां नई शिक्षा नीति प्रारूप और पूर्व की शिक्षा नीतियां, समितियां मानती और सिफारिश करती हैं कि बच्चों को बहुभाषी परिवेश प्रदान करना है। स्कूल इस प्रक्रिया में एक अहम भूमिका में माना गया है। स्कूल में जिस भाषा को तवज्जो दी जाती है वही भाषा बच्चों के लिए स्वीकार्य और महज सी मान ली गई है। अमूमन पाया जाता है कि बच्चों को स्कूली और घर की भाषा के बीच के द््वंद््व में डोलना पड़ता है। हालांकि जहां एक ओर नीतियां मातृभाषा, स्थानीय भाषा, क्षेत्र विशेष की भाषा को शिक्षा का माध्यम मानती हैं वहीं दूसरी ओर इससे भी मुंह नहीं फेर सकते कि सरकार व सत्तासीन ताकतें भाषा के चुनाव में अपने हित और स्वार्थ को तरजीह देती हैं। यही उदाहरण दिल्ली सरकार ने पेश किए हैं। हाल ही में घोषित बयान को देखें और समझने की कोशिश करें तो एक बात स्पष्ट होगी कि दिल्ली में मैथिली को स्कूलों में पढ़ाए जाने का निर्णय अकादमिक विमर्श से नहीं निकला है, बल्कि आगामी चुनाव के मद््दे नजर एक ख़ास वर्ग, राज्य और भाषा-भाषी के समर्थन और वोट अपनी ओर करने का प्रयास है।
त्रिभाषा सूत्र को ताख पर रखकर मैथिली व भोजपुरी को राजनीतिक प्रश्रय देना सीधे सीधे त्रिभाषा सूत्र को हाशिए पर धकेलना भी है। यदि भोजपुरी व मैथिली को स्कूलों में पढ़ाने के प्रति सरकार संजीदा है तो क्यों नहीं यह सरकार गढ़वाली, कोंकणी, अवधी मालवी, मारवाडी, मेवाती मलयाली आदि भाषाओं को भी स्कूलों में पढ़ाने के प्रति सजग है? कम से कम दिल्ली से सटे राज्यों राजस्थान, हरियाणा, पंजाब, उत्तर प्रदेश में ब्रज आदि के क्षेत्र विशेष की भाषा को स्कूलों में शामिल करने की योजना बना रही है। जबकि बच्चों और अभिभावकों की संख्या पर नजर डालें तो इन्हीं राज्यों से बच्चे दिल्ली के सरकारी स्कूलों में पढ़ रहे हैं। बिहार प्रांत से भी अभिभावक दिल्ली में हैं किन्तु सिर्फ बिहार की मैथिली को ही क्यों राज्याश्रय प्रदान किया जाए। उस पर तुर्रा यह कि भोजपुरी को संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल करने के लिए केंद्र सरकार से सिफारिश करने की मनसा भी दिल्ली सरकार प्रकट कर चुकी है।
यह कहीं न कहीं राजनीति लाभ से प्रेरित कदम ही माना जाएगा। इसमें अकादमिक, भाषाविदों, शिक्षाशास्त्र के जानकारों से राय नहीं ली गई होगी। यदि इस कदम को उठाने से पूर्व शैक्षिक मंथन किए गए होते तो शायद महज मैथिली व भोजपुरी को ही यह तवज्जो नहीं मिलता, बल्कि अन्य भारतीय भाषाओं को भी चिंतन की परिधि में रखा जाता। त्रिभाषा सूत्र हो या फिर भाषा पर अविभिन्न समितियों की सिफारिशों पर विचार किया जाता तो ऐसी गलती नहीं होती। कोठारी आयोग की सिफारिशें भी इस ओर इशारा करती हैं कि मातृभाषा, क्षेत्र की भाषा एवं एक भारतीय भाषा का अध्ययन-अध्यापन किया जाए। बच्चों को स्कूली स्तर पर भारतीय भाषाओं से परिचय कराना मुख्य स्थापनाओं में से एक है। जब भारतीय भाषाओं के संरक्षण और संवर्द्धन की सिफारिश की गई तो इसमें यह संदेश निहित है कि राज्य की भाषा के साथ ही बच्चे की मातृभाषा एवं एक भारतीय भाषा का चुनाव बच्चे को प्रदान किया जाए। यहां दिल्ली सरकार को विचार करने होंगे कि क्या वो पूर्व और वर्तमान की शिक्षा नीतियों की सिफारिशों और निर्देशों को नजरअंदाज कर एक नई शुरुआत करना चाहती है?
हालांकि गांधी जी ने वर्धा में शिक्षामंत्रियों के सम्मेलन में कहा था कि प्राथमिक स्तर पर शिक्षा का माध्यम मातृभाषा हो। उस वक़्त गांधी जी के इस अनुमोदन का समर्थन जाकिन हुसैन ने भी की थी। लेकिन राजनीति ताकतें इसे अमल में लाने से रोक पाने में सफल रहीं। भाषा सीखने-सिखाने को लेकर समय समय पर राजनीति हस्तक्षेपों का एक लंबा इतिहास रहा है। भाषायी संघर्ष और भाषायी द््वंद््व से बच्चों के साथ ही बड़ों को भी जूझना पड़ता है। एक बच्चे की नज़र से देखें और सोचें तो पाएंगे कि एक बच्चा जिसकी घर की भाषा और स्कूली भाषा के बीच एक फांक है तो ऐसे में वह किसी भी भाषा के साथ न्याय नहीं कर पाता। एक ओर भाषायी भूगोल में विस्तार हो रहा है वहीं बच्चा ऐसी भाषा का चुनाव करना चाहता है जिस भाषा का बाजार हो और बाजार में रोजगार हो। एक ओर हिन्दी की पाठ््य पुस्तकें समय पर बच्चो को उपलब्ध नहीं हो पातीं ऐसे में क्या सरकार मैथिली भाषा में तमाम विषयों के पाठ््यक्रम, पाठ््यचर्या और पाठ््यपुस्तक निर्माण को समय पर पूरी कर पाएगी। इस प्रकार के सवाल बल्कि चुनौतियां इसका पूर्वानुमान लगा कर हमें रणनीति और रोडमैप बनाने की आवश्यकता पड़ेगी। साथ ही यदि मैथिली को आठवीं से 12 वीं कक्षा में पढ़ाने की योजना है। क्या हमारे पास मैथिली भाषा के प्रशिक्षित शिक्षक हैं जो सीखने-सिखाने में दक्ष हैं। जमीनी हक़ीकत को नज़रअंदाज़ नहीं कर सकते। यदि भाषायी सर्वेक्षण को आधार बनाया जाता तो यह कदम वैद्धय माना जाता किन्तु इस मसले में सिर्फ हड़बड़ाहट दिखाई देती है। कैसे आनन फानन में एक भाषा विशेष के वर्ग को अपने पक्ष में किया जाए। हालांकि हम लोग अभी भी पुरानी भाषायी सर्वे से ही काम चला रहे हैं। वह सर्वेक्षण देश की विभिन्न भाषाओं पर आधारित है। अकेले दिल्ली की बात की जाए तो हमारे पास प्रमाणिक और वैद्धय आंकड़े शायद नहीं हैं जिसके आधार पर कह सकें कि दिल्ली के स्कूलों में इतने प्रतिशत बच्चे फलां भाषा बोलते और पढ़ते-समझते हैं। यदि हमारे पास प्रमाणित और वैज्ञानिक भाषायी सर्वे के आधार ही नहीं हैं तो ऐसे में एक विशेष भाषा को कैसे स्कूली पाठ्यक्रमों का हिस्सा बनाने की घोषणा कर सकते हैं। समझने की बात तो यह भी है कि क्या शिक्षा विभाग इस नई पहल के लिए तैयार है? क्या उसकी तैयारी है कि वह मैथिली भाषा में शिक्षक, किताबें, पाठ्यक्रम आदि बच्चों को मुहैया करा पाएंगी। हमारे पास प्रशिक्षित शिक्षकों की बेहद कमी है। मंथन इस पर भी करना होगा कि क्या हमारे पास मैथिली के शिक्षकों को तैयार करने के लिए सेवापूर्व शिक्षक प्रशिक्षण क्षमता और दक्षता है जिन्हें हम बतौर मैथिली भाषा के शिक्षक के तौर पर नियुक्त कर सकें। हमें मैथिली व भोजपुरी व अन्य भारतीय भाषाओं को स्कूलों में लागू करने से पूर्व शिक्षक-प्रशिक्षण, पाठ्यक्रम, पाठ्यपुस्तक आदि निर्माण की प्रक्रिया को दुरुस्त करने होंगे। वरना अन्य घोषणाओं के तर्ज पर यह भी महज घोषणा से आगे नहीं जा सकेगी। नई नियुक्तियों में डीएसएसबी पहले ही उच्च न्यायालय से फटकार खा चुकी है कि शिक्षकों की नियुक्तियों में क्यां समिति समय पर अपना काम पूरी नहीं कर पाती है। तो क्या ऐसे में मैथिली शिक्षकों की भर्ती सरकार सुनिश्चित करती है। क्या यह रेकी की गई है कि दिल्ली के सरकारी स्कूलों में कितने बच्चे हैं जिनकी मातृभाषा मैथिली है? यदि उन बच्चों की घर की भाषा तो मैथिली है तो क्या कितनों बच्चों की ओर से यह मांग आई कि उन्हें मैथिली भाषा में पढ़ाई चाहिए? यदि आंकड़े हैं तो सरकार को यह भी स्पष्ट करना और सामने रखने चाहिए कि इतने प्रतिशत बच्चे मैथिली भाषी हैं और उनकी मांग है कि उन्हें मैथिली भाषा में पढ़ाई जाए। एक बारगी महसूस होता है कि या यह सिर्फ अनुमान प्रमाण पर आधारित अवधारणा है कि हमें मैथिली भाषा भी स्कूलों में पढ़ाना चाहिए। ऐसे में भारत के अन्य राज्यों से भी सवाल उठा सकते हैं कि क्यों न उनके राज्य की भाषा को भी स्कूलों में शामिल की जाए?
चुनाव पूर्व सरकारें और राजनीति संगठन घोषणाएं किया करते हैं क्या यह भी महज राजनीति घोषणा भर है या फिर इसे लॉच करने से पूर्व होम वर्क भी किए गए हैं। यदि सिर्फ एक ख़ास प्रांत के ख़ास लोगों को लुभाने के लिए सरकार ने यह घोषणा की है तो हमें इस पर भाषायी एवं अकादमिक हस्तक्षेप करने होंगे। एक भी प्रकार से उस विशेष भाषायी समुदाय को सपने बेचना ही है जिन्हें एक आस बंध जाएगी कि अब तो हम दिल्ली में भी स्कूलों में पढ़े-पढ़ाए जाने लगे। हमें आश्वासन मिले हैं कि इन्हें संविधान में शामिल करने के लिए वकालत की जाएगी आदि।



Wednesday, June 19, 2019

सुनने का कौशल और आनंद



कौशलेंद्र प्रपन्न

सुनना उसपर भी किसी और की बात, कहानी, घटनाएं अपने आप में बेहद चुनौतिपूर्ण है। डिजिटल युग में जहां हर चीज तेजी से बदलती और सरकाई जाती है ऐसे में सुनना और सुनाना बेहद दिलचस्प और मानिख़ेज़ है। एक घटना से सुनने के कौशल और सुनाने वाले की दक्षता को स्पष्ट करना चाहता हूं। पिछले दिनों बच्चों ‘‘ विभिन्न आयु वर्ग के जिसमें छह साल से लेकर 16 साल तक’’ को कहानी की कार्यशाला में कहानी सुनाना, कहना, लिखना और पढ़ना आदि पर तीन दिन की बिताने थे। मेरे लिए भी यह चुनौतिपूर्ण इस रूप में था कि उस कार्यशाला में विभिन्न आयु वर्ग के बच्चों को कैसे समान और रूचिपूर्ण, आनंदप्रद एहसासों से गुज़ारा जाए और उन्हें ये तीन दिन ज़ाया सा न लगे। सत्र की शुरुआत एक कहानी से की। कहानी क्या था इस संसार की रचना को विषय बनाया। कैसे गैलेक्सी, यूनिवर्स की रचना हुई। इसमें हमने 13.7 मिलियन वर्ष पीछे ले जाकर सृजन और निर्माण की रोचक जानकारी तो देना था ही साथ ही एहसास से भरना था कि हम आज जहां हैं उस पृथ्वी को बनने में कितने वर्ष की यात्राएं करनी पड़ी। कहानी में बच्चों का प्रवेश हो चुका था। मेरी आवाज़ और शब्दों, वाक्यों के माध्यम से बच्चे बंधते चले गए थे। शायद ही कोई बच्चा ऐसा रहा होगा जो इस यात्रा में पीछे रह गया हो। जब कहानी खत्म हुई तो सभी बच्चों से प्रक्रियाएं और अपने अनुभव साझा करने के लिए कहा गया। बच्चों ने स्पष्टतौर पर स्वीकार किया कि बहुत मज़ा आया। वापस आने की इच्छा नहीं हो रही थी। जैसे जैसे आप पृथ्वी पर लेकर आए। विश्व से एशिया पर आए, फिर भारत पर। भारत के बाद राज्य पर और राज्य से शहर पर फिर राजेंद्र नगर स्थित इस कक्ष तक लेकर आए। तो हमने अनुमान लगा लिया था कि अब आप इस जगह पर आने वाले हैं। इस कहानी को सुनते हुए बच्चों ने कल्पनाएं करना, अनुमान लगाना, कथा की भाषा, कथा का कथ्य, विभिन्न विषयों का समायोजन जिसमें गणित, इतिहास, विज्ञान, खगोल विज्ञान, अंतरिक्ष विज्ञान आदि सब शामिल थे। छह साला बच्ची ने कहा ‘‘ इसमें गणित के अंक भी थे।’’ ‘‘ऐसा लगा ही नहीं कि हम जमीन पर हैं। जब आपने आंखें बंद कराईं तो लगा कुछ गेम कराने वाले हैं। लेकिन आवाज़ की जादू ऐसी थी कि उसके मोह में बंधते चले गए।’’ ग्यारहवीं में पढ़ने वाली दूसरी बच्ची ने कहा।
बातचीत का सिलसिला ज़ारी रहा ‘‘ यह कहानी क्यों पसंद आई?’’ इस सवाल का जवाब बच्चों ने दिया कि इसमें रोचक जानकारी थी, कहानी सुनने का आनंद था। आपकी आवाज़ बेहद प्रभावी थी। हम लोग डूब कर सुन रहे थे। अगला सवाल कुछ यूं पूछा ‘‘आप लोगों की नज़र में एक कहानी में क्या क्या होनी चाहिए जिसे पर देखना, सुनना चाहेंगे?’’ इसपर अन्य बच्चों ने बारी बारी से कहा ‘‘ कहानी में रोचकता हो, कहने वाला व्यक्ति रूचि ले। कहानी में इतिहास भी हो, समाज शास्त्र भी हो। विज्ञान भी हो और अच्छी कहानी हो जाती है।’’ ‘‘हमें कहीं भी इस कहानी को सुनते हुए भाषा कठिन और शब्द मुश्किल नहीं लगे।’’
तीन दिन कैसे गुज़र गए पता ही नहीं चला। अंतिम दिन दो तीन बच्चों और बच्चियों ने कहा ‘‘कार्यशाला में सबसे खराब जो रहा हो वो कहना चाहता हूं’’ यह कहना था आर्यन का। सबकी नज़र उसकी ओर चली गई। उसने कहा ‘‘सर का आज अंतिम दिन है। आज के बाद इनसे मुलाकात नहीं होगी। इनकी कहानी और कहानी कहने की शैली को आज के बाद नहीं सुन सकेंगे।’’ लगभग अन्य बच्चों का भी यही कहना था। लेकिन प्रियदर्शनी ने स्वीकार किया कि उन्हें भी चिंता थी कि तीन दिन कहानी पर बोर हो जाएंगे। पहले भी कई सर आए और बोर कर के चले गए। इस बार भी तीन दिन बोर होने वाले हैं। लेकिन पहले ही दिन, पहले ही एक घंटे में हमें अंदाज़ हो गया कि हम बोर नहीं होंगे।’’
यह एक कार्यशालायी तजर्बा था जिससे हम आगे सुनने के कौशल कैसे कहने के कौशल पर ख़ासा निर्भर है इसे समझने की कोशिश करें। सुनने का धैर्य न तो बच्चों में शेष है और बड़ों में। हम मान कर चलते हैं कि कहने वाला बोर करने वाला है। जो भी कहने वाला है वो अपनी कहानी, अपनी बातें सुनाकर समय काटेगा। यह मानना भी एकबारगी ग़लत भी नहीं है। क्योंकि सुनाने वाले कई बार यही किया करते हैं ऐसे अनुभव हम सब की ज़िंदगी में आए ही होंगे। हमारे ही बीच में ऐसे भी कहने वाले होते हैं जिन्हें सुनने के लिए लालायित रहते हैं। ऐसे व्यक्ति कई बार हमें प्राथमिक कक्षाओं में बतौर शिक्षिका/शिक्षक मिले होंगे जिन्हें जी चाहता था ये बोलते जाएं और हम बस सुनते रहें। ऐसे ही वक्ताओं, कथा कहने वाले कविता सुनाने वाले हमारी ज़िंदगी में शामिल हो जाते हैं। लेकिन जैसे जैसे बड़े होते जाते हैं वैसे वैसे इस प्रकार के लोग कम होते चले जाते हैं। हालांकि प्राथमिक स्तर पर हमारे अधिकांश शिक्षक पढ़ाने आते हैं। शायद पढ़ाने की क्रिया में पढ़ने और सुनने के आनंद की हत्या करते रहते हैं। वो पाठ्यक्रम पूरा कराने के दबाव में ‘‘सुनने का आनंद’’ पीछे धकेलते जाते हैं। हमारी प्रारम्भिक सुनने की प्रक्रिया में सुनने के आनंद कहीं छूट जाते हैं यदि कुछ रह जाता है तो बस सुनकर याद रखने, रटने, परीक्षा में सुने हुए शब्दों के अर्थ बताने आदि कार्यां में बीतता रहा है तो ऐसे में हमारे बच्चे सुनने के कौशल में एक बात गांठ बांध कर सुनने की कोशिश करते हैं कि इस कहानी, कविता में कौन कौन से कठिन शब्द आए हैं, उनके विपरीतार्थक शब्द, समानार्थक शब्द, वाक्य आदि में प्रयोग कैसे करेंगे? आदि संभावित सवालों की जाल में खो जाते हैं। ऐसे में हमारा बच्चा सुनने के कौशल में सिर्फ कुछ शब्दों, कहां कहां किसने कौन से शब्द, संवाद बोले हैं उन्हें याद रखने में उलझ जाते हैं।
बताने और सुनाने में एक बुनियादी अंतर को समझ लें तो आगे की यात्रा आसान और आनंदपूर्ण हो सकती है। जब हम कक्षा-कक्ष में या फिर आम ज़िंदगी में किसी को कुछ बता रहे होंते हैं तब हम शायद कोई सूचना, कोई घटना या फिर अपनी बातों में तथ्यों को शामिल कर रहे होते हैं। हमारी अपेक्षा तो होती है कि जिसे बता रहे हैं उसे सुने। उसे सुनकर कितना भागीदार हो या फिर उसपर किस प्रकार का एक्शन ले इसकी अपेक्षा शायद नहीं रहती। लेकिन जब हम किसी को कुछ सुना रहे होते हैं तो हमारी अपेक्षा सुनने वाले से होती है कि वह सुनकर अपनी राय भी दे। सुनने में दिलचस्पी भी ले और हूंकारी भी भरे। हूंकारी भरना वैसे तो कहानी में ज़्यादा होती है। इससे हमें पल पल हर पग पग पर प्रतिक्रियाएं और सुनने वाले की मनःस्थिति के बारे में जानकारी मिल रही होती है। जब हम कक्षा-कक्ष में सुना रहे होते हैं तब यह जानना बेहद ज़रूरी हो जाता है कि सुनने वाले बच्चे उसे समझ भी रहे हैं या नहीं। यहां सुनने के साथ ही समझना एक अपेक्षा जुड़ जाता है। यदि बच्चा सुनकर अर्थ नहीं समझ पा रहा है, संदर्भ की समझ नहीं बन पा रही है तो शायद यह सुनना मुकम्म्ल नहीं माना जाएगा। इसलिए सुनाने वाले यानी कहने वाले को अपनी कहन पर काम करने अभ्यास करने की आवश्यकता पडे़गी। कहन में जो जितना चुस्त और दक्ष होगा उसकी सुनाने की प्रक्रिया उतनी ही सहज और सारगर्भित होगी ऐसा मान कर चल सकते हैं। सुनाने के दौरान हम किस प्रकार की भाषा, कथ्य, परिवेश आदि की रचना कर रहे हैं यह भी बहुत महत्वपूर्ण हो जाता है। क्योंकि सुनना अपने आप में श्रमसाध्य कामों में से एक है। कोई क्यों किसी की सुने? क्यों सुनाने वाला सुनाना चाहता है? आदि के पीछे के मकसद स्पष्ट नहीं होंगे तो वह कहने और सुनने की आम प्रक्रिया तो हो सकती है वह समझ कर सुनने की प्रक्रिया का हिस्सा बनने से वंचित हो जाएगी।
यदि किसी कक्षा की परिकल्पना करें तो हमारा शिक्षक जिस तरीके व शैली में बच्चों को कहानी, कविता, विज्ञान, गणित या समाज विज्ञान की बातें, अवधारणाएं सुना रहा है किस कदर उसकी भाषा और अपेक्षा स्पष्ट नहीं तो ऐसी स्थिति में बच्चे नहीं सुनते। बल्कि बस सुनने का ढोंग कर रहे होते हैं। ठीक वैसे ही जैसे हम बड़े भी कई बार सुनने का स्वांग कर रहे होते हैं। सुनते नहीं हैं। जब पूछा जाता है ‘‘ सुन रहे हैं? मैं क्या कह रहा हूं?’’ ‘‘ क्या आप बता सकते हैं मैं किस पर चर्चा कर रहा था?’’ इन वाक्यों से हमारी तंद्रा टूटती है। हम कह देते हैं, शॉरी सुन नहीं पाया।  हम क्यों नहीं सुन पाए या बच्चा क्यों नहीं सुन सका? इसके दो जवाब हो सकते हैं, पहला- हम सुनना नहीं चाहते थे। हमारी अंतर दुनिया में बड़ी हलचल मची हुई थी। इसलिए सुन नहीं पाए। बच्चा यदि भूखा है, असुरक्षित है, पीड़ित है तो वह सुन नहीं पाएगा। दूसरी स्थिति सुनाने वाला यानी कहने वाला यदि पुरानी और आदतन बोर की शैली में कह रहा है तब वैसी स्थिति में हमारी सुनने की इच्छा मर जाती है। तब बोलने वाले के शब्द/ध्वनियां भर हमारे कानों से टकराया करती हैं।
सुनने से गहरा जुड़ा है पढ़ने की लालसा। जब हमारा बच्चा कोई कहानी, कोई कविता आदि सुनता है तब उसमें उसे पढ़ने की जिज्ञासा पैदा होती है। बच्चा सुनने के बाद उस कहानी को पढ़ कर आनंद उठाना चाहता है। लेकिन उसके पढ़ने के रास्ते में वर्णमालाएं, अक्षर ज्ञान, शब्दों की प्रकृति आदि बाधा बनती हैं। बच्चा शब्दों और वाक्यों की पहचान से संघर्ष कर बाहर निकलता है तब उसे पढ़े उसे शब्दों और वाक्यों में निहित कहानी के मर्म को समझने के दूसरे स्तर पर संघर्ष करना पड़ता है। हमें बच्चों को पढ़ने की सीढ़ी पर चलाने से पूर्व सुनने की कला में प्रवीणता मुहैया करानी पड़ेगी तब पढ़ने की प्रक्रिया सुगम और सहज हो सकती है।
हमारा बच्चा अक्षर ज्ञान से लेकर, वर्णमालाओं के चक्रव्यूह को तोड़ते तोड़ते पांचवीं कक्षा पार कर जाता है। जैसे जैसे अगली कक्षाओं में जाता है यह वर्ण, अक्षर, वाक्य उसे डराने लगते हैं। वह या तो भाषा एवं साहित्य पढ़ने से मुंह मोड़ चुका होता है। और हम एक भविष्य के साहित्य प्रेमी व साहित्य के छात्र पाने से वंचित रह जाते हैं। बच्चे तो साहित्य से दूर हो ही जाते हैं यह तो एक हानि होती ही है साथ ही हमारा साहित्य महज बड़ों की रूचि और विलास की वस्तु बन कर सीमित हो जाती है। ऐसे में बच्चां को साहित्य से दूर होना कहीं न कहीं बच्चों में पढ़ने, सुनने, बोलने की क्षमता को कमतर करती है। वहीं बच्चों में भाषायी साक्षारता को भी कम करती है। बच्चे वर्ण आदि तो फिर भी पहचान लेते हैं किन्तु जब पढ़ या सुनकर समझने का जायजा लेते हैं तब हमारा बच्चा पिछड़ जाता है।

Tuesday, June 18, 2019

शपथ की भाषा



कौशलेंद्र प्रपन्न
संसद में कौन सांसद किस भाषा में शपथ ले रहे हैं इस बाबात मीडिया और सोशल मीडिया में ख़ासा चर्चा है। कोई अंग्रेजी में शपथ ले रहा है तो विवाद तो कोई भोजपुरी में शपथ लेने की मांग कर रहा है तो उसे यह तर्क दे कर रोका गया कि यह संविधान की आठवीं अनुसूची में शामिल भाषा नहीं है इसलिए इस भाषा में शपथ नहीं ले सकते। जिन भाषाओं में शपथ लेने से रोका गया उसमें बघेली भी शामिल है। अचानक संस्कृत भाषा को मुहब्बत करने वाले ज्यादा ही जोश में हैं। फलां ने संस्कृत में शपथ लिया। उसने भी लिया और इसने भी संस्कृत में शपथ ली। क्या हम नहीं जानते कि आज संस्कृत कुछ फीसदी लोगों की व्यवहार की भाषा हो सकती है। कुछ संस्थानों, स्कूलों आदि में ही पढ़ी और पढ़ाई जाती हैं। बाकी तो आम जिं़दगी से नदारत भाषा के दिन अचानक शिक्षा नीति के मसौदे आने से जान आ गई है। न केवल संस्कृत बल्कि पालि, प्राकृत, संस्कृत आदि भाषाएं इन दिनों खूब इठला रही हैं। हिन्दी भी उन्हें के संग ज्यादा खुश हो रही है। यह अगल बात है कि कुछ राज्यों ने इसे अनिवार्यतौर पर पढ़ने-पढ़ाने पर सवाल उठाए और सरकार को यह निर्णय वापस अपनी झोली में रखना पड़ा।
संस्कृत में शपथ लेने वाले वे सांसद हैं जो कभी कभार शौकीयातौर पर बोल लिया करते हैं। इनमें साध्वी प्रज्ञा, प्रताप सारंग, देबू सिंह पटेल आदि। वहीं अंग्रेजी में शपथ लेने वालों में राहुल गांधी, गौतम गंभीर, बाबुल सुप्रियो हैं। इन्हें क्या दोष देना कि क्यों इन्होंने अंग्रेजी में शपथ ली? राहुल बेशक जनता को हिन्दी में संबोधित करते हैं क्या वह स्क्रीप्ट हिन्दी में होती है या रोमन में? बाबुल सुप्रियो गाने तो हिन्दी की भी गाते हैं लेकिन संभव है उसकी स्क्रीप्ट भी रोमन की होती हो। लेकिन हम सवाल उठा रहे हैं। जबकि यह किसे नहीं मालूम कि पूरा का पूरा हिन्दी फिल्म जगत रेमन मार्का हिन्दी में ही पैसे पीटा करती है। जहां तक हिन्दी में शपथ लेने वालों की बात है तो ये लोग सीधे सीधे हिन्दी पट्टी से आया करते हैं या फिर हिन्दी सी दीखने की कोशिश करते हैं7 स्मृति ईरानी, रविशंकर प्रसाद, रमेश पोखरियाल निशंक, डॉ महेंद्र नाथ पांडे, जनरल वीके सिंह आदि।
भाषा से मुहब्बत शायद थोपी जाए तो यह हमारी अपनी नहीं हो सकती बल्कि वह दूसरी भाषा के तौर पर ही बरती जा सकती है। कौन किस भाषा में सहज है इसको लेकर किसी दूसरी शक्ति या दबाव तो कोई भी स्वीकार नहीं कर सकता। ठीक वैसे ही जब उत्तर भारतीय भाषायी समाज दक्षिण भारतीय भाषायी समाज पर हिन्दी सीखने-सिखाने की मजबूरी पैदा करते हैं तब भाषायी संघर्ष को जन्म देते हैं। जबकि यही कहानी उलट भी सकती है। फ़र्ज कीजिए दक्षिण भारतीय इतनी ताकत हासिल कर लें कि भाषायी समाज को प्रभावित कर सकते हैं तो संभव है हिन्दी के स्थान पर तमिल, कन्नड़, मलयाली आदि भाषाओं को सीखना-सिखाना अनिवार्य कर दे। तब भी संघर्ष शुरू होंगे ही। दरअसल भाषायी समाज को राजनीति हस्तक्षेपों को ख़ासा आकार दिया है। सत्ताएं तय करती रही हैं कि कौन सी भाषा कब और कैसे अचानक शक्ति प्रदाता भी भूमिका में आ जाएंगी।
भाषाओं को लेकर लंबे समय से संघर्ष और वाक्युद्ध चले हैं, जिसकी सत्ता और ताकत प्रभावित करने वाली रही है उसने दूसरी भाषा को पनपने से पहले ही कूचलने की पूरी कोशिश की है। इस पददलन में वे भाषाएं काफी हद तक सफल भी रही हैं। जबकि यदि हम 1968 की राष्टीय शिक्षा नीति की बात करें तो स्पष्टतौर पर कहा गया है कि अंग्रेजी को प्राथमिक स्तर पर शिक्षण का माध्यम नहीं बनाया जा सकता। न ही इतनी बड़ी संख्या में शिक्षक ही मुहैया करा सकते हैं। लेकिन वही अंग्रेजी हमारे करीब रहकर अन्य भारतीय भाषाओं की नींव खोदती रही है। एक भाषा के तौर पर अंग्रेजी सीखने-सिखाने में किसी को भी कोई गुरेज़ नहीं सकता किन्तु दूसरी भारतीय भाषाओं को धकेलकर अंग्रेजी को थोपना किसी को भी खटकेगा। हालांकि नई राष्टीय शिक्षा नीति आधुनिक और भारतीय भाषाओं को संरक्षित करने और पढ़ने-पढ़ाने के माहौल सृजित करने के प्रति गंभीर है। भारतीय भाषाओं को बचाना और सीखना-सिखाना ग़लत नहीं है बल्कि किसी एक भाषा को ताज पहनाना और अन्य भाषाओं को हाशिए पर धकेलना उचित नहीं। 

Friday, June 14, 2019

बहुभाषायी शक्ति और बच्चों की दुनिया


कौशलेंद्र प्रपन्न
जनमते ही बच्चों को मां की भाषा, नर्स की भाषा, डॉक्टर की भाषा, दाई की भाषा, नाते-रिश्तेदारों की भाषा कानों में पड़ती है। क्या इसे बहुभाषायी समाज कह सकते हैं? सीधे सीधे बहुभाषा से जुड़ती तारें पहली नजर में दिखाई न दे पाए किन्तु है तो बहुभाषायी समाज का उदाहरण ही। मां अपनी भाषा में पुचकारती है। दादी नानी अपनी भाषा बोली में। डॉक्टर अपनी भाषा में जच्चा बच्चे से बात करता है। यह प्रकारांतर से बहुभाषा का ही उदाहरण है। जब बच्चा घर में आता है तब उसके आस-पास बोलने वाले अपनी अपनी भाषा में बातें किया करते हैं। अपने परिवेश की ध्वनियों को बच्चा सुन और ग्रहण कर रहा होता है। वैज्ञानिक स्थापनाएं भी सत्यापित कर चुकी हैं कि बच्चे गर्भ में रहते हुए अपने परिवेश की ध्वनियों को संग्रहीत करता रहता है। वही ध्वनियां उसे बड़े होने पर मदद करती हैं भाषा सीखने में। इसे स्वीकारने में किसी को भी गुरेज़ नहीं होगी कि बच्चा जो भाषा गर्भ में सुनता है बड़े होकर वही ध्वनियां उस भाषायी कौशल में दक्षता प्रदान करती हैं। जब बच्चा स्कूल जाने योग्य आयु को होता है तब वह स्कूल में एक दूसरी या तीसरी भाषा सुनता,बोलता और लिखता है। बच्चा अब द्वंद्व व संघर्ष गुज़रने लगता है। जो भाषा उसकी घर की थी उसमें न किताबें होती हैं, न शिक्षक उसकी भाषा में पढ़ाता है, न बच्चे उस भाषा को बरत रहे होते हैं। जो कक्षा में आता है वह दूसरी या तीसरी भाषा में निर्देश देता है। कई स्कूलों में तो मातृभाषा व स्थानीय भाषा के इस्तमाल पर दंड़ित भी किया जाता है। ऐसे में भाषायी दंड़ व द्वद्व गहरे होने लगते हैं। इस स्तर पर बच्चों के बीच भाषा चुनाव की बड़ी चिंता पैदा होती है। इस चिंता की गहराई कॉलेज, विश्वविद्यालय तक और चौड़ी हो जाती है। इसका एक सीधा उदाहरण है, विश्वविद्यालय स्तर पर राजनीति शास्त्र, समाज-शास्त्र, विज्ञान, वाणिज्य आदि की पढ़ाई न तो मातृभाषा/स्थानीय भाषा में होती है और राज्य स्तरीय भाषा में बल्कि यहां अंग्रेजी में सीखने-सिखाने की प्रक्रिया चल रही होती है। ऐसे में बच्चे की मातृभाषा/स्थानीय भाषा साथ छोड़ देती है और बच्चा अंग्रेजी से लड़ने-जूझने के लिए तैयारी करता है। बच्चे की भाषायी दक्षता उसकी मातृभाषा/स्थानीय भाषा में थी किन्तु जब वह तीसरी भाषा के मार्फत विषय का अध्ययन करता है तब उसे तीसरी भाषा की तमीज़ को समझने और उस भाषा की प्रकृति को समझते बूझते एक बड़ा हिस्सा निकल जाता है।
घर वाली और बाहर वाली भाषा के मध्य झूलता हमारा युवावर्ग अंततः भाषायी अंतरविरोधों, भाषायी अलगाववाद में अपनी निजी पेशेवर क्षमता खोता चला जाता है। विशेषतौर पर हमारा युवा विज्ञान, गणित आदि में तो बेहतर प्रदर्शन करता है लेकिन जब भाषा की बारी आती है तब उसका सरोकार महज इतना ही होता है कि फलां भाषा के पेपर में पास मार्क्स ही तो अर्जित करने हैं। वह बच्चा पास अंकीय द्योढ़ी को पार कर प्रोफेशनल क्षेत्र में उतर जाता है। जब हमारा युवा कार्यक्षेत्र में आता है वहां उसे बहुभाषी होना एक अनिवार्य अहर्ता पूरी करनी पड़ती है। यहां पर हमारा युवा एक क्षेत्र, राज्य विशेष तक बंध कर रह जाता है। इसे ऐसे भी समझ सकते हैं कि एक दक्षिण भारतीय युवा अपने विषय और पेशेवर क्षेत्र में दक्ष है किन्तु यदि उसे दक्षिण भारतीय भाषा के एत्तर अन्य भारतीय भाषाएं नहीं आतीं तो ऐसे में वह युवा एक राज्य, जिला, गांव की चौहद्दी नहीं पार कर पाता। हालांकि यदि युवा श्रम और अभ्यास करे तो दूसरी अन्य राज्यीय भाषाएं सीखकर अपनी रोजगार के द्वारा को व्यापक स्तर पर खोल सकता है। इसमें क्या दक्षिण भारतीय और क्या उत्तर भारतीय बल्कि एक देश से देशांतर तक अपने पेशेवर फलक को व्यापक बनाना है तो हमें बहुभाषी होना ही होगा।
तकरीबन बत्तीस तेतीस वर्ष बाद राष्ट्रीय शिक्षा नीति को पुनरीक्षित करने और नवा करने का प्रयास किया गया। इसकी शुरुआत 2015 में हो चुकी थी। अंतिम प्रारूप आने में तकरीबन चार साल लग गए। इसके पीछे कई वज़हें हो सकती हैं। उसमें राजनीति इच्छा शक्ति, योजना-रणनीति का चुस्त न होना आदि। देर आए दूरुस्त आए पर आए तो। मई में राष्ट्रीय शिक्षा नीति का प्रारूप जनता के बीच है। इस प्रारूप में बड़ी ही संजीदगी और शिद्दत से भाषा-बहुभाषा और भाषायी शक्तियों को कैसे स्कूली कक्षाओं तक पहुंच बनाई जाए आदि मसलों पर विमर्श की गई है। दूसरे और तीसरे अध्याय को प्रमुखता से रेखांकित कर सकते हैं। इनमें अध्यायों में ख़ासकर बाल्यावस्था पूर्व देखभाल और शिक्षा पर नीतिपरक बदलावों और स्थापनाओं को रखा गया है। अंग्रेजी में अर्ली चाईल्डवुड केयर एंड एजूकेशन के नाम से जानते हैं। इसे पूर्व में आरटीई एक्ट में शामिल नहीं किया है। इसकी वजह से लाखों बच्चे आयु वर्ग 3 से 6 वर्ष के बच्चे स्कूली शिक्षा और देखभाल के अधिकार से बाहर हैं। इस प्रारूप में प्रस्तावित है कि ईसीसीई को आरटीई एक्ट में संशोधित कर जोड़ा जाए।
बाल्यावस्था में जब बच्चा अपने परिवेश से गहरे जुड़ता है इसमें स्कूल एक प्रमुख अंग है, वहां मातृभाषा/स्थानीय भाषा को जिम्मदारी और जवाबदेही के साथ स्वीकारने की वकालत की गई है। बच्चों को ग्रेड एक बलिक इससे पूर्व से ही मातृभाषा/स्थानीय भाषा में शिक्षा दी जाए पर ख़ासा जोर है। पांचवीं तक आते आते बच्चे में संख्या और वर्ण/ध्वनियों आदि की पहचान हो जाए साथ ही इन भाषाओं में बच्चे बोलने, पढ़ने और स्वयं को अभिव्यक्त करने में दक्ष हो सकें,इसके लिए प्रमुखतः नीति में कई सारी गतिविधियों और रास्ते बताए गए हैं। जब नीति में भाषा-मातृभाषा-स्थानीय भाषा के बाबत सुझाव दिए गए हैं तब वहीं पर इसे बतात नहीं भूला गया है कि कैसे इसे अमल में लाया जाएगा। मसलन कक्षा एक दो में बच्चों को मातृभाषा में बोलने, सुनने और पढ़ने कर दक्षता को बहुतायत मात्रा में अवसर प्रदान किए जाएंगे ताकि बच्चे में बोलने की कला और बोल कर अपने ऑब्जर्वेशन को अभिव्यक्त कर सके इसकी दक्षता विकसित की जा सके। बच्चों को ख़ासकर जो चौथी व पांचवीं में हैं उन्हें लिखने के लिए अतिरिक्त एक घंटा दिया जाना चाहिए। वहीं छोटे बच्चों को भी अपनी मातृभाषा/स्थानीय भाषा में बोलने बतियाने का अवसर मिले। उनकी भाषा-बोली में लिखने वाले कवि, कथाकारों, कलाकारों से मिलने और संवाद करने का अवसर स्कूल प्रदान करेगा। स्कूल में साल भर गणित, भाषा मेला का आयोजन किया जाएगा। इस गतिविधि का मकसद स्पष्ट है कि बच्चां को अपनी भाषा व अन्य भाषा के साहित्यकारों से मिलने और संवाद करने का असवर मिल सके। इससे अपनी भाषा से जुड़ने और लगाव पैदा हो सके आदि उद्देश्य है।
भाषा के शिक्षकों के लिए यह नीति एक ऐसा अवसर प्रदान करने का दावा करती है जिसमें बताया गया है कि आने वाले दिनों, वर्षों में भाषायी शिक्षकों के लिए नौकरियां हजारों और लाखों में सृजित होंगी। उदाहरण के तौर यदि एक शिक्षक अपनी मातृभाषा के साथ एक दूसरी भारतीय भाषा सीखता है तो उसे अपने राज्य में तो नौकरी की संभावनाएं हैं ही साथ दूसरे राज्य में भी शिक्षक का अवसर द्वार खुलते हैं। इस प्रकार से भाषा शिक्षकों को तैयार करने, प्रशिक्षण प्रदान की जिम्मेदारी यह नीति उच्च शिक्षा संस्थानों में भाषा-संकायों के देती है। इन संस्थानों में भाषा-शिक्षकों का प्रशिक्षण होगा और प्रशिक्षण के बाद ये देश के विभिन्न स्कूलों में पदस्थापित हो किए जाएंगे। खा़सकर अध्याय 22 में भारतीय भाषाओं के अध्ययन-अध्यापन को ध्यान में रखा गया है जिसमें कहा गया है कि प्राकृत, पालि, संस्कृत आदि भाषाओं को संरक्षित करने और सुरक्षित करने के लिए विशेष संकायों की स्थापना की जाएगी। इतनी ही बल्कि भारतीय भाषाओं को रोजगारोन्मुख बनाने के लिए भी वकालत की गई है।

Thursday, May 30, 2019

कागा बोली बोले



कौशलेंद्र प्रपन्न
कौवों को लेकर हमारा पूरा आर्ष ग्रंथ भरा हुआ है। लोकचेतना से लेकर दंतकथाएं तक कौवों की बातें, कौवों की कहानी कहती हैं।
कोई इस निगुर्ण को कैसे भूल सकता है, ‘‘कागा सब तन खाइओ, दो नयना मत खाइओ पीया मिलन की आस’’ आबीदा परवीन हों, कुमार गंधर्व हों या फिर अन्य शास्त्रीय गायक सब ने इसे गया है। जब भी इन्हें सुनते हैं वह कौवा याद आ जाता है।
वैसे तो देखने भालने में कोई सुंदर तो होता नहीं है किन्तु यह हमारे घरों के आस-पास ज़रूर सहज उपलब्ध होता है। गांव देहात में यह कथा भी सुनी जाती थी। कि जब सुबह सुबह आंगन में मुंडेर पर बैठ कोई कौवा बोलता था, तो पूछ बैठते थे ‘‘कौन आ रहा है? किसके आने की ख़बर दे रहे हो।’’ तब यही काला बदसूरत माने जाने वाला कौवा एक ख़बरनवीस की तरह होता था। एक डाकिए की भूमिका निभाता था।
अब न आंगन रहे और न मुंडेर। कहां बैठेंगे ये कौवे? बाजे बाजे तो शहर के कौवे बोलना भी नहीं जानते। चुपचाप बिजली की तार पर बैठ जाते हैं या फिर किसी पेड़ की डाल पर बैठे बैठे ताका करते हैं। इन्हें न पानी मयस्सर होता है और खाना। दर ब दर उड़ते रहते हैं।
रामायण में भी इनका जिक्र आता है शायद कागभुसुड़ी के नाम से। वहीं जब भी किसी श्राद्ध के पीड़ की बात आती है तब कौवों को बुलाया जाता है। कहते हैं। जब ये तृप्त हो जाएंगे तो हमारे पुरखों को भी शांति मिलेगी।
पशु पक्षियों से हमारा वास्ता बहुत पुराना रहा है। बल्कि मानव जाति के विकास इतिहास से जुड़ा है। हमें हमारे परिवेश में ज़िंदा जीव जंतुओं को बचाने की भी जिम्मेदारी है। इन्हें बचाएंगे तो शायद पर्यावरण के संतुलन को बना सकेंगे।

Wednesday, May 29, 2019

मिशन मात्रा जी


कौशलेंद्र प्रपन्न
हम सब शिक्षाकर्मी की एक बड़ी चिंता यह होती है कि हमारे बच्चे पढ़ना नहीं जानते। हमारे बच्चों को हिन्दी में ख़ासकर मात्रा लगाने में कठिनाई आती है। यह एक आम एवं ख़ास चिंता है। इस चिंता के साथ हम क्या करते हैं यह महत्वपूर्ण है। अहम तो यह भी है कि बच्चे यदि मात्रा नहीं लगा पाते या उन्हें मात्राओं की समझ नहीं है तो हमारी रणनीति या प्लानिंग क्या हो ताक उन्हें मात्रा में आने वाली दिक्कतों को दूर कर पाएं। वैसे याद हो कि दिल्ली सरकार ने यही कोई दो साल पहले मिशन बुनियाद की शुरुआत की थी। यह मिशन बुनियाद की कक्षाएं मई माह में लगा करती हैं। यूं तो कुछ शिक्षकों के लिए यह अतिरिक्त कार्यभार ही होता है जिन्हें छुट्टियों में भी कक्षाएं लेनी पड़ती हैं। लेकिन उन्हें इस बात खुशी भी होती हो कि उनके अथक प्रयास और बच्चों की लगन देखते हुए बच्चे जब पढ़ने लगते हैं तब उन्हें उतनी थकन न होती हो।
आप किसी भी ऐसी कक्षा में जाकर देखिए सच मानें बच्चे बहुत खुश और प्रसन्नता के साथ पढ़ रहे होते हैं। ऐसी ही एक कक्षा में जाने का मौका इन दिनों मिला। बच्चे ु  ू ि  ी मात्रा लगा कर पढ़ने और लिखने की कोशिश कर रहे थे। शिक्षिका पूरी तल्लीनता के साथ बच्चों को बोर्ड पर शब्दां को लिख और बच्चों से लिखने का काम दे रही थीं। बच्चे उसी उत्साह से नए नए शब्दों बना रहे थे। वे बच्चे एक वर्ण पर मात्राएं लगा कर उन्हें बोल भी रहे थे।
मैंने उनके कहा ‘‘चिड़िया नदी किनारे एक पेड़ पर बैठी थी। क्या कर रही होगी?’’
बच्चों ने जवाब दिया ‘‘वो अपने बच्चों के लिए घर बना रही होगी।’’
‘‘घर वो किन चीजों से बनाती है?’’ मैंने पूछा ‘‘ क्या वो ईट भट्ठे से ईट लाती होगी? क्या वो लकड़ी लकड़ी टाल जाकर लाती होगी?’’
बच्चों ने मना कर दिया। बच्चों ने कहा ‘‘वो मैदान में या खेत में जाकर बाहर से तिनके, घास, रस्सी लाती है। उससे वो घोसला बनाती है।’’
यह संवाद चल ही रहे थे। बीच में मैंने कहा वो जो चिड़िया है उसे लिखना नहीं आता। क्या कोई उस चिड़िया जी की मदद करेगा कि वो लिख कर अपनी बात आप सभी को समझा पाए।
इस कक्षा में उपस्थित तकरीबन चार पांच बच्चियों सामने आने लगीं। उन्होंने लिखने की कोशिश। कुछ ने बिल्कुल सही सही लिखा। हां दो बच्चियां ऐसी थीं जिन्होंने सच्ची को सची लिखा। चोच में चौच लिखा लेकिन जैसे ही इन दोनों से लिखा वैसे ही बाकी कक्षा की बच्चियों ने उसे सुधारने के लिए कहा। और बच्ची बोर्ड के सामने आकर उसे ठीक कर लिख गई। लिखने में प्रति बच्चों में काफी उत्साह देखने को मिला। बल्कि न केवल लिखने के प्रति बल्कि लिखे हुए शब्द को पढ़ने में भी उन्हें आनंद आ रहा था।
लिखते रहे और कहानियां बनाते रहे। इसमें बच्चों की सहभागिता ख़ासा अहम रही। हमने एक शब्द चुना कि आप सभी किस नदी के किनारे रहते हैं। दिल्ली किस नदी के किनारे है। बच्चों ने पहले जमुना कहा फिर सुधार कर यमुना जवाब दिया। फिर हमने इसे कहा ‘‘ चिड़िया को बोलना नहीं आता। कैसे बोले वो यमुना बोले कि जमुना बोले? इस पर बच्चों ने ही जवाब दिया यमुना ठीक रहेगा। तो कहानी आगे बढ़ी ‘‘एक चिड़िया यमुना किनारे के एक पेड़ पर बैठी थी। उस पेड़ पर उसने घोसला बनाना चाहा। इसके लिए उसे कुछ सामान की ज़रूरत थी। वो उड़कर पास के खेत और मैदान में गई वहां से तिनके, घास, पेड़ की टहनी आदि लेकर आई। और उसने अपने छोटे छोटे बच्चों के लिए एक घोसला बनाया।’’
बच्चे इस कहानी को बुनने में अपनी पूरी कल्पना शक्ति का प्रयोग कर रहे थे। बीच बीच में मैं उन्हें सिर्फ सोचने में मदद कर रहा था। बाकी पूरी कहानी उन्हीं की थी। मेरी एक और कोशिश यह थी कि बच्चे जो बोल रहे हैं उसे लिखने और पढ़ने की भी कोशिश करें। इस कहानी में आए नदी, पेड़, तिनाक, घर आदि शब्दों में कहां कहां छोटी और बड़ी मात्राएं लगी हैं उन्हें कैसे बोलेंगे और उन्हें कैसे लिखेंगे इसका अभ्यास भी कराता जा रहा था। बच्चों ज़रा भी यह एहसास नहीं हुआ कि कोई उनके बीच आया और मात्राएं सीखा गया। बच्चों मुंह की आकृति बनाने बिगाड़ने में खूब आनंद उठा रहे थे। कैसे छोटी मात्रा लगाने पर मुंह थोड़ खुलेगा और कम समय लगेगा और बड़ी मात्रा में मुंह ज्यादा खुलेगा और समय भी अधिक लगेगा इस प्रक्रिया के दौरान बच्चों को ख़ासा मजा आया।
शायद इसे ही बड़े बड़े शिक्षाविदों ने खेल खेल में शिक्षा का नाम दिया होगा। इस भाषायी शिक्षण में पता ही नहीं चला कि कब आधा घंटा गुज़र गया और बच्चों को छह मात्राएं यूं ही कहानी के ज़रिए सीखाने का प्रयास किया। लेकिन बच्चे तो बच्चे होते हैं उन्हें एक जुड़ाव सा हो गया। उन्होंने आग्रह किया बल्कि दुबारा आने के लिए जोर दिया कि कल भी आईए। यह तो मालूम नहीं कि कल जा सकूंगा कि नहीं किन्तु आज को जीया और जीने का भरपूर आनंद बच्चों को दिया। एक पारंपरिक कक्षा में भाषा शिक्षण से हट कर उन्हें भी मजा आया और जिन मात्राओं ने उन्हें परेशान कर रखा था वो भी दूर हो गया।
जब भी कोई बच्ची या बच्चा बहुत तेज बोलता या मैं मैं बोलूंगी की आवाज़ बहुत तेज रखता तो मेरा बस इतना कहना था ‘‘ मात्रा रूठ जाएगी’’ मात्रा को तेज आवाज और बहुत सी आवाज पसंद नहीं है। यदि आपको कुछ कहना है तो मात्रा बहन को धीरे से कहो। प्यार से कहो। जब मैंने कहा मात्रा जी या मात्रा बहन जी तो बच्चों की आंखें चमक उठीं। उन्होंने कहा मात्रा जीम ात्रा बहन जी!!! ये क्या? तब मैंने कहा हर मात्रा और हर आवाज़। बल्कि हर शब्द और हर व्यक्ति अपने लिए सम्मान चाहता है इसलिए मात्रा को भी जी लगा कर बोलोगे तो उसे अच्छा लगेगा। जैसे आपलोग मैडम जी बोलते हैं। तब उनकी भी इस बात में सहमति बन गई।

शिक्षकीय दुनिया की कहानी के पात्र

कौशलेंद्र प्रपन्न ‘‘ इक्कीस साल के बाद पहली बार किसी कार्यशाला में बैठा हूं। बहुत अच्छा लग रहा है। वरना तो जी ...