Monday, April 8, 2019

तनावों से लड़ने की सीख देती शिक्षा


कौशलेंद्र प्रपन्न
शिक्षा न केवल हमारी जिं़दगी को आकार देने, मायने प्रदान करने और जीवन के मकसद निर्धारित करने में मदद करती है बल्कि जीवन मूल्यों, जीवन कौशलों को सीखने की तमीज़ भी पैदा करती है। संभव है उक्त अपेक्षाएं कोरी मूल्यपरक लगें किन्तु तमाम शिक्षाविद्, शैक्षणिक दस्तावेज़, शिक्षा दार्शनिकों की मानें तो उनपर सबकी एक ही राय शिक्षा के प्रति बनती है कि शिक्षा हमें बेहतर मनुष्य बनने में मदद करती है। बेहतर मनुष्य से सीधा तात्पर्य यही है कि हमारे अंदर अच्छे -बुरे, करणीय अकरणीय, शिष्ट और अशिष्ट के बीच अंतर करने की बौद्धिक समझ हो। क्या स्वयं के लिए और क्या समाज के लिए बेहतर है आदि की समझ शिक्षा अपनी यात्रा में विद्यार्थियों को तालीम दिया करती है। दीगर बात है कि शिक्षा के इस प्रयास में कई अवांतर हस्तक्षेप की वजह से शिक्षा कई बार अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाती। इसमें हम राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक हस्तक्षेप को रेखांकित कर सकते हैं। इतिहास बताता है कि राजनीति ने समय समय पर शिक्षा के इस प्रयास को अपने तई बदलने और रास्ते मोड़ने से भरपूर प्रयास किए हैं। काफी हद तक इस राजनीतिक हस्तक्षेप में विभिन्न दलों को सफलता भी हासिल हुई है। यही वजह है कि शिक्षा समय समय पर अपने मूल राह से भटकी हुई भी नज़र आती है। जबकि यह भटकाव शिक्षा की मूल प्रकृति नहीं है, बल्कि इसे प्रभावित करने में कई बाह्य कारक प्रभावी होते हैं।
हमारी शिक्षा एक ओर पाठ्यपुस्तकीय समझ और कौशल प्रदान करती जिसके ज़रिए हम परीक्षा की नदी तो पार कर लेते हैं लेकिन जीवन कौशल और व्यावहारिक दक्षता हासिल करने से चूक जाते हैं। वहीं दूसरी ओर शिक्षा हमें जीवन और इससे जुड़ी बारीक समझ विकसित करने में पीछे रह जाती है। मसलन विपरीत परिस्थितियों में कैसे समायोजन स्थापित करें, यदि कार्य स्थल या निजी जीवन में संघर्षां, तनावों, दुश्चिंताएं हैं तो उन्हें कैसे प्रबंधित किया जाए इसकी समझ व्यापक न होने की स्थिति में बच्चे एवं व्यस्क जीवन से कूच कर जाते हैं। हाल ही में दसवीं की एक बच्ची ने परीक्षा परिणाम देखने के बाद आत्महत्या का राह चुना और शिक्षा-जीवन और समाज को छोड़ गई। परीक्षा परिणाम घोषित होने के बाद आत्महत्या का सिलसिला बतौर जारी है। हर साल परीक्षा परिणाम के बाद देशभर में जो बच्चे असफल होते हैं उनमें कई बच्चे/बच्चियां जीवन की विफलता मान बैठते हैं और वह वयैक्तिक हानि, असफलता मान जीवन जीने के लायक स्वयं को न मान आत्महत्या का रास्ता चुनते हैं। ऐसी घटनाओं को संज्ञान में लेते हुए 2007 के आस-पास एनसीईआरटी, सीबीएससी आदि संस्थाएं मिलीं और शिक्षाविद्ों ने परीक्षा की प्रकृति पर मंथन किया। अंत में इस निर्णय पर आम सहमति बनी कि परीक्षा के प्रश्न पत्रों के स्वरूप में बदलाव किए जाएं। अंक के स्थान पर श्रेणी (ग्रेड) दी जाए। जब अराटीई अप्रैल 2010 में लागू हुई तो इसमें किसी भी बच्चे को फेल न करने के प्रावधान को तवज्जो दी गई। इससे उम्मीद थी कि बच्चों में परीक्षा संबंधी तनाव और भय को कम कर लिया जाएगा। अफ्सोसनाक हक़ीकत तो यथावत् रही। बच्चे आत्महत्याएं करते रहे। परीक्षा का भय बतौर ज़ारी रहा।
शुरू में बच्चों में शिक्षा को लेकर भय का माहौल बनता है। बच्चे स्कूल नहीं जाना चाहते। उन्हें स्कूल और घर के मध्य की दूरी को पाटने में हम विफल रहे। यही कारण है कि बच्चों को स्कूल परिसर लुभाने की बजाए डराते हैं। जबकि स्कूलों को बाल रूचि आधारित विकसित करने की कोशिश की जानी चाहिए थी। जो काफी हद तक इस योजना में स्कूलों को बाल सुरूचिपूर्ण रंगों, चित्रों, रेखा चित्रों का आदि का इस्तमाल भी किया गया। इससे बच्चों को स्कूल आना, पढ़ना रूचने लगा लेकिन अभी भी ऐसे बच्चों की संख्या लाखों में थी जिन्हें स्कूल का विकल्प नहीं मिल सका। वे बच्चे शिक्षा की मुख्यधारा से आज तक कटे हुए हैं। शिक्षा से यह कटाव और भी चौड़ा होता है जब हमारी राजनीतिक शक्तियां कम करने की बजाए उसे और गहरी करते हैं। मसलन शिक्षा हासिल करने से वंचित रह गए बच्चां को कैसे शिक्षा की परिधि में लाई जाए इसको लेकर राजनीति पहलकदमियां कम ही दिखाई देती हैं।
डॉक्टर का मानना है कि एक बच्चा जब गर्भ में होता है तब भी वह तनाव में हो सकता है। बच्चे को स्ट्रेस न हो इसके लिए डॉक्टर सलाह भी देते हैं। ख़ासकर जब प्रसव काल होता है तब तो विशेषरूप से डॉक्टर की सलाह होती है कि कोशिश कीजिए बच्चा स्ट्रेस में न हो। इन्हीं तनावों को दूर करने के लिए न केवल कोठारी आयोग बल्कि बाद के तमाम आयोगों ने अपनी संस्तुतियां दीं। वहीं राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा 2005 शांति के लिए शिक्षा पर जोर देते हुए शांति का पाठ को पाठ्यचर्या का मुख्य हिस्सा बनाया। दीगर बात है कि शांति के लिए शिक्षा पर अभी मजबूती से काम होना शेष है। वहीं हैप्पीनेस करिकूलम भी लांच किया गया। इसके मार्फत दावा तो यही किया गया कि बच्चों में शिक्षा और परीक्षा आदि को लेकर भय को दूर किया जा सकेगा। इस हैप्पीनेस करिकूलम का आधार यही शिक्षा की बुनियाद को बनाया गया कि बच्चा प्रसन्न और आनंदपूर्ण तरीके से सीखने-सिखाना की प्रक्रिया का हिस्सा बन सके। बच्चे स्कूल स्वेच्छा से आएं और आनंद आनंद में शिक्षा की बारीकियों से जुड़ सकें। हालांकि यह अभी एक ही राज्य में लागू है। दूसरे शब्दों में कहें तो इस करिकूलम की सफलता की व कहें कितना कारगार है इसकी समीक्षा बाकी है। वहीं दूसरी ओर हाल ही में सोशल, इमोशनल और ईथिकल करिकूलम के नाम से दलाई लामा ने विश्व के तकरीबन तीस से भी ज्यादा शिक्षा के विभिन्न क्षेत्रों से संबद्ध शिक्षाविद्यों द्वारा तैयार करिकूलम लॉच किया। इस करिकूलम के पीछे के विमर्श को समझने की कोशिश करें तो एक बात स्पष्ट होती है कि हमें विश्व में शांति  की स्थापना करनी है और युद्ध को रोकना है तो उक्त पाठ्यक्रमों से बच्चों को जोड़ना होगा। इस करिकूलम की मुख्य स्थापना यह भी है कि पूर्व के पाठ पढ़ाने यानी उपदेश के तर्ज रखने से परहेज किया गया है। इस करिकूलम के जरिए सामाजिक, संवेदनात्मक आदि मूल्यों की शिक्षा देने का प्रयास किया जाएगा।
गौरतलब हो कि सोशल, इमोशनल और ईथिकल करिकूलम (एसइइ) शायद पहली बार एनसीईआरटीएत्तर किसी और संस्था ने निर्माण किया है। इससे पूर्व 1975, 1985, 1988, 2000 और अंतिम 2005 में राष्ट्रीय पाठ्यचर्या की रूपरेखा का निर्माण हुआ। इन तमाम रा.पा.रू में परीक्षा और शिक्षा की प्रकृति को पुनर्परिभाषित करने की कोशिश की गई थी। यदि 1975 की रा.पा.रू की बात करें तो इसमें जिक्र है ‘‘ जहां स्कूल में केवल शुष्क शैक्षिक अनुभव दिए जाते हैं या मूल्यांकन की विधि रटने की प्रवृत्ति को प्रोत्साहित करती है, वहां यह सब निरर्थक हो जाता है, जिस पर हमने अभी तक विचार-विमर्श किया।’’ पेज 47। यह दस्तावेज मानता है कि मूल्यांकन का तरीका ऐसा होना चाहिए जिससे विद्यार्थी अपने ज्ञान के उपयोगपूर्वक नई स्थितियों से जूझने एवं समस्याओं का समाधान ढूंढ़ने की ओर बढ़ सकें। वहीं 1988 की पाठ्यचर्या यह मानती है कि पढ़ने-पढ़ाने के तौर-तरीके, पाठ्यचर्या इत्यादि में कई परिवर्तन किए गए, पर परीक्षा के क्षेत्र में कोई ख़ास प्रयास नहीं हुए। यही वजह है कि शिक्षा पर परीक्षा का वर्चस्व आज भी बना हुआ है। डॉ ऋतुबाला अपने शोध लेख में इस बाबत लिखती हैं कि पाठ्यचर्या 1988 न्यूनतम अधिगम स्तर की सिफारिश करती है, साथ ही साथ राष्ट्रीय टेस्टिंग सेवा की संस्तुति भी। ज्ञातव्य है कि ये दोनों ही विषय राष्ट्रीय शिक्षा नीति 1986 एवं उसकी कार्य योजना में देखने को मिलती है। पाठ्यचर्या का मानना है कि शारीरिक, संज्ञानात्मक एवं भाविक एवं साइको-मोटर स्किल को भी परीक्षा अपने दायरे में लाए। परिप्रेक्ष्य, पेज 20, वर्ष 24, अंक 3, दिसंबर 2017 दिलचस्प तो यह भी है कि पीछे तकरीबन हर पांच या दस साल में राष्ट्रीय पाठ्यचर्याएं बनाई गई हैं। अंतिम 2005 में बनी थी। इसे बने हुए भी दस साल से ज्यादा वक्त हो चुका है। कायदे से तनावों, चिंताओं, जीवन के संघर्ष आदि से कैसे एक बच्चा और व्यस्क जूझे और बाहर आ सके इसकी तालीम देने की ज़रूरत है।
हालांकि कई चीजें जीवन-संघर्ष सीखा देती हैं। किन्तु शिक्षा की इसमें अहम भूमिका होती है कि हम कैसे अपनी संवेदनाओं, भावनाओं पर नियंत्रण स्थापित कर सकें। न केवल बच्चों को बल्कि शिक्षकों को भी इसकी तालीम देने की आवश्यकता है कि वो इमोशनल मैंनेजमेंट और भावनाओं की समझ कैसे पैदा करें। बच्चों में इमोशनल साक्षरता कैसे विकसित की जाए इसकी समझ, तैयारी और प्रशिक्षण प्रदान करने की आवश्यकता पड़ेगी। जब एक ओर हमारा शिक्षक स्वयं तनाव और संघर्षों के बीच सामंजस्य स्थापित करने में असफल होता है तो वह कैसे बच्चों को कक्षा में भावना प्रबंधन की सीख दे पाएगा।

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