Monday, April 29, 2019

सैर पर खोया व्यक्ति



कौशलेंद्र प्रपन्न
सुबह की सैर पर मेरे पिताजी जाएं या आपके चाचाजी। क्या फर्क पड़ता है। फर्क सिर्फ उम्र का हो सकता है। वह या तो साठ के पार होंगे या फिर सत्तर अस्सी पार। जब अस्सी पार का कोई व्यक्ति सुबह की सैर पर निकलता है तो ज़रूरी नहीं कि वो सकुशल घर वापस भी आ जाए। जब सुबह का गया व्यक्ति दोपहर तलक नहीं लौटता तब चिंताएं बढ़ने लगती हैं। उसपर यदि उस व्यक्ति के पास  कोई अता पता हो, न फोन हो और न ही इतनी स्मृति की याद रह सके कि किस गली से निकले थे और किस गली में वापस आना है। कहानी तब गहराने और पेचिदा होने लगती है। तमाम तरह की आशंकाएं और अघटित दुर्घटनाओं की चिंताएं हमें परेशान करने लगती हैं।
वैसे देखा जाए तो इसमें नया क्या है। होता ही रहता है। उसपर यदि आप किसी पुलिस स्टेशन में गुम हुए व्यक्ति की सूचना देने जाते हैं तब उनके व्यवहार में साफ झलकता है। आपके लिए महत्वपूर्ण व्यक्ति हो सकते हैं लेकिन उनके लिए वह एक केस भर है। केस मतलब कई तरह की व्यावहारिक और व्यावसायिक ज़रूरी कागजी कार्यवायी। आप कितना भी परेशान हों, उन्हें तो ऐसे केसेज से रोज़ रू ब रू होना होता है इसलिए कितने केसे के साथ वे संवेदनशीलता दिखाएंगे और कब तक। आप लगातार अपना धैर्य खोने लगते हैं। आप और हम उन्हें खरी खोटी भी सुनने लगते हैं कि आप ध्यान नहीं दे रहे हैं। आप दिलचस्पी नहीं ले रहे हैं आदि आदि। लेकिन वह अपने तई काम कर रहा होता है। खोया हुआ व्यक्ति किस मनोदशा और किस पस्थिति से गुजर रहा है इसका महज अनुमान ही लगा सकते हैं। शायद जी नहीं सकते।
जब हम खोए हुए बाबुजी, चाचाजी आदि आदि की तस्वीर निकलवाने स्टूडियो में जाते हैं तो हमारे पास या तो पासपोर्ट साइज की फोटो होती है या फिर कई बार वो भी नहीं। ऐसे में हम अपने मोबाइल को घंघालते हैं कोई सेल्फी हो, कोई फोटो ली हो जिसे इनलाज कराई जाए। और तब महसूस होता  कि कई बार फोन की उपयोगिता और फोटो खीचे जाने की सार्थकता। इस स्टूडियो में जहां एक ओर शादी ब्याह की तस्वीरें डेवलप हो रही होती हैं वहीं दूसरी तरफ आप खोए हुए व्यक्ति की तस्वीर निकलवा रहे होते हैं। वक़्त की ही बात है कहीं शादी के जश्न मनाए जा रहे होते हैं वहीं एक खोया हुआ व्यक्ति अपने परिचितों से मिलने के लिए तड़प रहा होता है।
रास्ते तो वहीं होते हैं। सड़के भी वहीं रहती हैं। गलियां भी वहीं पड़ी रहती हैं। बस उसपर चलने वाला, टहलने वाला खो जाता है। अपना पता भूल जाता है। उसमें गली का क्या दोष? उस सड़का की भी कोई गलती नहीं जिससे होकर वो खोया हुआ व्यक्ति किसी वक़्त गुजरा हो।
कस्बा हो, गांव हो, छोटा शहर हो तो लोगों को आसानी से पहचान पाते हैं। हमें एक दूसरे का पेशा, घर मकान सब याद रहता है। कोई कहीं खोना भी चाहे तो खो नहीं सकता। कोई न कोई मिल ही जाएगा जो आपके भटके कदम को घर की ओर मोड़ दे। मगर महानगर ऐसा संजाल है गलियों का। सड़कें इतनी एक दूसरे काटती, भागती रहती हैं कि उस गाड़ियां ही भाग सकती हैं। सड़कों को क्या पता उसे किस रफ्तार में भागना है या भगाना है। बस वो व्यक्ति नहीं पहचान पाती।
शहर हो या कस्बा शायद अभी भी कुछ लोग बचे हैं जो भूले हुए या खोए हुए को घर तक छोड़ आते हैं। शायद उनके पास वक़्त है या फिर वक़्त निकाल लेते हैं अपने ज़रूरी कामों में से ऐसे कामों के लिए। हम जिस दौर और रफ्तार से गुज़र रहे हैं इसमें ठहर कर चेहरे पहचानने की गुंजाइश नहीं छोड़ता। शायद हम दफ्तर पहुंचने और पंच करने की भय में इतने डरे होते हैं कि आम और साधारण संवेदना को भी भूल चुके हैं। लेकिन ऐसे ही माहौल में ऐसे भी कुछ लोग बचे हुए हैं जिन्हें किसी खोए हुए को थाने तक पहुंचाने में सकून मिला करता है। शायद ऐसे ही लोगों के कंधे पर संवेदनाएं खत्म होने से बची हैं। जब भी जहां भी कोई सत्तर या अस्सी पार मेरे या आपके पिताजी या चाचाजी सुबह की सैर पर जाएं तो एक पता लिखा पुर्चा उनकी जे़ब में ज़रूर रख दें। कोई तो होगा जो खोए हुए की जे़ब से पुर्चा निकाल कर घर छोड़ देगा।
एक खोया हुआ व्यक्ति किन मनोदशाओं में जीता होगा? एक तो जो स्वेच्छा से खोया करते हैं और दूसरे मजबूरन खो जाते हैं। दो तरह का खोना है। मजबूरन खोए हुए के तार जुड़े होते हैं। वो अपने तार जोड़ने के लिए बेचैन और परेशान हो रहा होता है।

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