Wednesday, April 17, 2019

हमारी भाषा कैसी हो...नेताओं जैसी कभी न हो


कौशलेंद्र प्रपन्न
किताबों में नहीं मिलेगी। किसी गं्रथ में भी नहीं मिलेगी। यदि कहीं मिलेगी तो वह है नेताओं की जुबान में। नेताओं की भाषा की छटाएं हमें चुनावी रैलियों, घोषणाओं, मंचों पर मिला करती हैं। ख़ासकर नेताओं की भाषाओं की विविध छटाएं कई बार अंदर तक खखोरती हैं। चुभन पैदा करती हैं। कई बार अफ्सोस भी होता है कि हमारे चुने हुए नेता किस प्रकार की भाषा का प्रयोग आम चुनावी रैलियों में किया करते हैं। इन भाषाओं को सुनकर मालूम नहीं उनके बच्चे, पत्नी, बहु, परपोती आदि क्या कहती होंगी? क्या और कैसा महसूस करती होंगी? यह तो पता नहीं लेकिन उनकी बच्चियां या फिर नाती पोती कभी पूछते भी हैं या नहीं कि दादा जी आपने ऐसी भाषा कहां से सीखी? किस स्कूल में या किस मास्टर जी ने ऐसी भाषा बोलना सीखाया? यदि ऐसे सवाल हमारे नेताओं से बच्चे पूछें तो शायद उन्हें कुछ शर्मिंदगी महसूस हो। शायद तब किसी भी दूसरी संस्था निर्वाचन आयोग को उनके बोलने पर पाबंदी लगाने की ज़रूरत ही न पड़े। लेकिन आत्म विश्लेषण और आत्म भाषायी बोध हमारे नेताओं की जिंदगी से दूर होती जा रही हैं।
जब कभी भी नेताओं की भाषाओं का समाज शास्त्रीय विश्लेषण व अध्ययन किया जाएगा तो लगता है बड़बोली किस्म के नेताओं को अपने ही इतिहास से मुंह छुपाने की बारी आए। लेकिन चुनाव खत्म। उधर तमाम भाषायी आरोप प्रत्यारोप पर पानी और मिट्टी डाल दी जाएगी। किसी को भी याद नहीं रहेगा कि किस नेता ने किसे क्या क्या कहा। कहां क्या बोला। किसी ने किसी की चड्डी के रंग बताए तो किसी ने किसी को चोर बताया। नचनिया बोला। बोला तो बोला मंच पर बेशर्म की तरह ख्ुद भी हंसे और जनता का भी मनोरंजन किया।
हम कैसी भाषायी माहौल में जी रहे हैं। कई बार सोच कर लगता है कि सबसे पहले हम आक्रोश में अपनी भाषायी नियंत्रण खो देते हैं। जब कभी हम क्रोध में, ईर्ष्या या फिर घृणा भाव में डूबे होते हैं तब हमारी भाषायी नियंत्रण बेहद कमजोर हो जाती हैं। गुस्से में हमें मालूम नहीं पड़ता कि हम किसे क्या बोल रहे हैं। किसपर हमारी भाषा का क्या और कितना असर पड़ सकता है इसका अनुमान तक हम नहीं लगा पाते। बस एक प्रवाह में गुस्से में बोलते चले जाते हैं। जब गुस्से का भाव शांत होता है और अपनी भाषा पर चिंतन करते हैं तब महसूस होता है हमने क्या बोल दिया। क्या इस शब्द की आवश्यकता थी? क्या इस बात को और दूसरे तरीके से भी बोली जा सकती थी? आदि आदि।
हाल ही में मैट्रो में यात्रा के दौरान ऐसी ही भाषा बोलचाल में कानों में लगातार पड़ रहे थे। सोच रहा था कैसी भाषा का प्रयोग कॉलेज जाने वाली लड़कियां कर रही हैं? जो वो बोल रही हैं उसका गहरा क्या अर्थ है इससे बेख़बर को कई बार उस शब्द का इस्तमाल कर रही थीं। शब्द था ‘‘फट गई’’
दो लड़कियों ने एक केवल एक बार बल्कि तकरीबन दस से ज्यादा बार प्रयोग कीं कि मेरी तो फट गई। क्लास में गई और देखा मैडम आ चुकी हैं देखते ही मेरी तो फट गई। पहली नजर में इस शब्द में कोई खामी नजर नहीं आएगी। लेकिन ठहर कर सोचें तो फटना यहां ख़ास अर्थ में महदूद नजर आता है। आंखें फटना कहना उनका आशय नहीं था। यह तो तय है। क्या फट गई इसका ख्ुलाया करना मेरा प्रयास नहीं है, बल्कि कॉलेज में पढ़ने वाली बच्चियों को इसके बहुअर्थी मायने से परिचय न होना होगा ऐसा नहीं है। वे बख्ूबी जानती हैं। लेकिन गैर इरादतन और लापरवाही में बोल रही थीं। इसी तरह की भाषा का प्रयोग हम न जानें कब और किसके सामने बिना विचार किए करते हैं।
हमें अपनी भाषा और भाषायी मर्यादा का ख़्याल तो रखना ही चाहिए। जब हम किसी से ख़ासकर श्क्षित व अशिक्षित भी समाज में नागर व ग्रामीण समाज के साथ बोल रहे हैं तो अपनी भाषायी तमीज़ का परिचय देना कहीं न कहीं अपनी पीढ़ी को भाषा के प्रति सजग करना भी है।

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