Thursday, April 11, 2019

सात पूंछ का मैं





कौशलेंद्र प्रपन्न 
एक कहानी है सात पूंछों का वाला चूहा। इस चूहे को मां बहुत प्यार करती है। वैसे हर मां को अपना बच्चा बहुत प्यारा होता है। वह चाहे जानवर हो या मनुष्य। बच्चा चाहे दिव्यांग हो या साधारण। विशेष हो या फिर सामान्य। बच्चा बच्चा होता है। उस कहानी में चूहे को समाज यानी उसके दोस्त। खेल खेल में काफी परेशान करते हैं। सात पूंछ का चूहा सात पूंछ का चूहा आदि आदि। चूहा इन कमेंट्स से बहुत परेशान होता है। मां से बिना साझा किए पास के नाई के पास जाता है और कहता नाई नाई मेरी एक पूंछ काट दो। श्नै श्नै एक एक कर सारी पूंछें कट जाती हैं। फिर भी कहने वाले नहीं रूकते। कहने वाले फिर चिढ़ाते हैं कि बिना पूंछ का चूहा बिना पूंछ का चूहा आदि आदि। बिना पूंछ का चूहा फिर भी परेशान है। 
यह कहानी हमारी जिं़दगी के बेहद करीब बैठती नज़र आती है। हमारे भी आस-पास ऐसे लोगों की कमी नहीं है जो हमें किसी भी सूरत में सुखी और स्वीकार नहीं कर पाते। वो अपने तई हमें बदलना चाहते हैं। उनके जैसे हों तो ठीक यदि नहीं तो उन्हें परेशानी होती है। वे चाहते हैं कि यह विशेष क्यों है? क्यों इसके सात पूंछ या आस-पास फलां की ज्यादा मांग है। सभी उसे ही पूछा करते हैं। यही चीज उन्हें पसंद नहीं आती। तभी तमाम तरह की नसीहतें देने लगते हैं। बिना मांगे राय देना और अपने आप को रायबहादुर साबित करने में ज़रा भी मौका नहीं चूकते। इधर हम हैं कि उनकी बातें और आ जाते हैं। उन्हीं के जैसे बनने में अपनी स्वभावित प्रकृति भूल जाते हैं। हम अपनी पहचान और प्रकृति को ताख़ पर रखकर औरों के जैसे बनने में जुट जाते हैं। होता यह है कि जो हम थे वह तो रह नहीं पाते और जो होने के लिए अपनी पूंछ कटा बैठे उन जैसे भी न हो सके। ऐसी स्थिति में हमारी गति सांप छुछुदर की हो जाती है। 
हमारा परिवेश कुछ कुछ ऐसी भी भूमिका निभाया करता है। कई बार हम परिवेश के अनुसार ढल जाते हैं तो कई बार परिवेश को अपने अनुरूप ढालने में सफल हो जाते हैं। इस संघर्ष में काफी संभावना इस बात की भी होती है कि हम अपने अस्तित्व को परिवेश के अनुसार ओढ़ लें। बहुत कम लोग होते हैं जो परिवेश को अपने अनुसार ढाल पाएं। शायद इस किस्म के लोगों को लीडर या मैंनेजर के नाम से जानते हैं। जो अपना परिवेश स्वयं गढ़ा करता है। इस प्रकार के लोगों की संख्या दिन प्रति दिन कम होती जा रही है। 
प्रेमचंद ने किसी कहानी में लिखा है कि यदि गर्दन किसी के पांव के नीचे हो तो उस पांव को सहलाने में ही गनीमत है। वरना...। और हम एक ऐसे डर और निराशा में जीने लगते हैं जिसको पार कर पाने की क्षमता पर ही विश्वास खोने लगते हैं। ठीक उसी तरह हमारी पूंछ यदि किसी के पांव के नीचे दबी हो तो बेहतर पर धीरे से अपनी पूंछ खींच लें। वरना हमारी पूंछ कट जाएगी या टूट जाएगी। 
हमारे आस-पास ऐसी कहानियां खूब हैं जो हमें जीने के लिए रोशनी देती हैं। यदि हम जग गए तो अपनी पूंछ भी बचा पाएंगे और अपने परिवेश को भी सुरक्षित कर पाएंगे। हमारे अपने बच्चे किन हालात से गुजरते होंगे ख़ासकर यदि वे विशेष हैं तो। हम बहुत कम ही ऐसे बच्चों के बारे में सोच पाते हैं कि फलां बच्चे के साथ परिवेश कैसे पेश आता है।  

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